Saturday, August 30, 2008

कहीं दूर जब दिन ढल जाये- मुकेश


आनंद
यह फ़िल्म आप हम सभी के मानस में कहीं दूर तक जा बसी है. आपके संवेदनशील मन नें हृषिकेश मुखर्जी के उस फ़िल्म के दोनों चरित्र आनंद और भास्कर के कलेवर के अंदर जा कर उनके हल्के फ़ुल्के उल्हास के क्षणों की या दर्दो ग़म की अनुभूति ज़रूर की होगी.

यह गाना इस शाश्वत सत्य को भोगने की पीडा को अभिव्यक्त करता है, कि जीवन क्षण भंगुर है, एक यात्रा जिसकी शाम तय है.फ़िल्म का नायक आनंद युवावस्था में ही अनचाहे इस यात्रा के अंत में अपने आप को पाता है. उसनें भी सपनोंका एक जहां बसाया था,जिसके बारे में फ़िल्म के आरंभ में वह कहता भी है:

मैने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने, सपने सुरीले सपने..

कुछ हंसते, कुछ ग़म के ये सपने लिये इस खुशमिज़ाज़ इंसान से आप हम जब रूबरू होते है तो उसके Exterior के आनंदित और उल्हास भरे व्यक्तित्व के पीछे छिपी उसके मन की वेदना से हम रूबरू होते है इस गीत के ज़रिये.मौत की भयावह सच्चाई से.

यह गीत योगेश ने लिखा है . (एक और गीत लिखा है इस फ़िल्म का- ज़िंदगी , कैसी है पहेली..) सलिल दा नें शाम के किसी राग में इसकी रचना की है, और इस जीवन के यथार्थ दिखाने वाले नगमे को मुकेश से अलावा और कौन गा सकता है भला?

अब आप इसका विडिओ देखें और मेरे साथ साथ चलें, आनंद के मन में झांकने..उसके सपनों में और ग़म में शामिल होने..




गाने के प्रारम्भ में समुंदर के क्षितिज पर अस्त होते हुए सूरज से आनंद के मन को उद्वेलित होते हुए हम पाते है, मृत्यु की आहट को वह डूबते सूरज में महसूस करता है, और उदास हो जाता है. मगर अगले क्षण ही एक बैलगाडी दिखाई है निर्देशक नें, जिसे देख नायक थोडा मुत़मईन हो जाता है, शांत हो जाता है . अपने दिल को आश्वस्त कर देता है, कि जिंदगी एक सफ़र ही तो है.

कहीं दूर जब दिन ढल जाये , सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये..
मेरे खयालों के आंगन में ,कोई सपनो के दीप जलाये, दीप जलाये......


आप ज़रा यहां बोलों का चयन देखें - सांझ की दुल्हन.. मृत्यु के बारे में आज तक कही गयी एक मात्र उपमा..

नायक भी इस दुल्हन का वरण करने के लिये अपने मन को तैय्यार करता है, और जो सपने उसने पहले देखे थे , उन्हे भुला कर इस दुल्हन द्वारा सपनों के दीप जलाने का स्वागत करता है.

गाने के पहले Interlude में उसके मन का अंतर्द्वंद को ,संत्रास को पत्ते गिरते हुए पेडों के झुरमुट द्वारा और समुंदर के लहरों का मन पर आघात करता हुए विज़्युअल से, साथ ही बांसुरी के हार्मोनी और वायोलीन के समूह के उतार चढाव से हृषी दा और सलिल दा नें बखूबी निर्मित किया है.

फ़िर देखिये पहला अंतरा..

कभी युं हीं जब हुईं बोझल सांसें, भर आयी बैठे बैठे जब युं ही आंखें,
तभी मचल के, प्यार से चलके, छुए कोई मुझे पर नज़र ना आये, नज़र ना आये..


क्या कुछ समझाने की ज़रूरत है? मौत में रोमांस खोजने का यह अंदाज़ , क्या बात है..

दूसरे अंतरे के पहले के interlude में आप सुनेंगे मृत्यु की आहट, Bass Trumpets के खरज़ स्वरों के प्रयोग द्वारा. साथ ही बांसुरी की उत्सवी और विरोधाभास भरी सरगम पूरी Octave में, साथ में विज़्युअल में आनंद के पुराने प्रेम की यादें दर्शाता हुआ सूखे हुए फ़ूल का किताब मे से निकलकर प्रेम की असफ़ल परिणीती का वर्णन करता है, और साथ में नये रिश्तों का मोह भी..

तभी तो वह दूसरे अंतरे में कह उठता है-

कहीं तो ये दिल कभी मिल नही पाते, कहीं पे निकल आये जनमों के नाते,
ठनी थी उल्झन, बैरी अपना मन, अपना ही होके सहे दर्द पराये,दर्द पराये..


प्रेमिका के बिछडने की पीडा़ , साथ में नये रिश्तों के अपनत्व का अहसास, दोनॊ भाव इस अंतरे में...

फ़िर तीसरे अंतरे में-

दिल जाने मेरे सारे भेद ये गहरे, हो गये वैसे मेरे सपने सुनहरे,
ये मेरे सपने, यही तो है अपने,मुझसे जुदा ना होंगे इनके ये साये.. कहीं दूर जब दिन ढल जाये.....

क्या आप बता सकेंगे यहां रचयिता तिकडी के मन के भाव क्या रहे होंगे? यह आप के लिये. और साथ में मुखडे और पहले दोनों अंतरों के कुछ अलग भाव, अर्थ अगर हैं तो आईये, सिरजने दिजिये आप के दिल से..

हां, इस गीत को पिछले एक हफ़्ते से भोग रहा हूं , सुर और अर्थ मानों दिल में गहरे पैठ गये है. इसी गाने को गाकर भी पीडा हल्की कर रहा हूं. आप भी सुनना चाहें तो यहां प्रेषित है.. सुनने का नम्रता से अनुरोध. वैसे इस बार पार्श्वसंगीत के साथ.

मैं, आप, संगीत और मुकेश !! दिलीप के दिल की आवाज़ से....

Wednesday, August 27, 2008

मानस के अमोघ शब्द


अद्वितीय गायक मुकेश चंद्र माथुर के पुण्य तिथी पर आपसे एक विनीत आग्रह . अपने एक नये ब्लोग मानस के अमोघ शब्द के बारे में थोडी सी चर्चा..

कुछ सालों पहले जब इस दुनिया में आया था तो जिंदगी के सफ़र के दौरान पाया की अपन तो श्री ४२० के राज कपूर जैसे निकल पडे थे खुल्ली सडक पे अपना सीना ताने,यह मिशन लिये की किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वासते हो तेरे दिल में प्यार,क्योंकि जीना इसीका नाम है..(कृपया profile में पढें)

मगर पाया कि सब कुछ सीखा हमनें ना सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालों, हम है अनाडी..बस चलते रहे सुनसान डगर और अनजान नगर में, यह कहते हुए कि आवारा हूं..

मगर क्या करें? दि़ये और तूफ़ान की कहानी की मानींद, दि़या तो अपनी धुन मे मगन ,आस्था के तिनके पर सवार ,मन के और समाज के अंधकार को मिटाने फ़ड्फ़डाता रहा..

मगर वह तो अपनी कहानी है.ज़माने नें कुछ ऐतबार किया , कुछ ना ऐतबार किया. हकीकत से रूबरू हो , बेआबरू हो, ग़ैरते मेहफ़िल से भी बेखबर ,कभी बाखबर चलते रहे. इंसानीयत से बडी शिद्दत से, नेक नीयत से ,भूले से मोहोब्बत कर बैठा यह दिल,नादां था बेचारा .. दिल ही तो है..

अब हमने यह तय किया कि आपकी मेहफ़िल में किस्मत आज़माकर देखेंगे, तो सोचा क्यों ना हम अपने फ़लसफ़े को भी आप के साथ शेयर करें, वह जो हमने इस जहां से पाया, तिनका तिनका जोड कर..

तो एक और ब्लोग बनाया है” मानस के अमोघ शब्द ’. मानस के याने मन के गहरे पैठ जा कर मेहसूस की गयी बातें अमोघ याने अचूक शब्दों में ..

उस ब्लोग पर पर कोशिश रहेगी कि कुछ ऐसा लिखा जा सके,जो संगीत के अलावा हो, जिस पर जीवन में सीखे मॆनेजमेंट के फ़ंडे, कुछ तकनीकी बातें, कुछ कलात्मक चित्र, कुछ सिंदबादी किस्से,और बहुत कुछ. दिलीप के दिल से पर संगीत की बातें तो चलती रहेंगी ही, जहां हर चीज़ ज़रा शऊर और तेह्ज़ीब के दायरे में रहेंगी. कभी कभी अपने दिल की आवाज़ भी सुनायेंगे .इसका मतलब यह नही की मानस के अमोघ शब्द पर कुछ ठिलवायी होगी. कहने का मतलब है, जो मन नें पाया वही लौटाने का जतन है ये, आ अब लौट चलें..

और हां, यहां लिखे हर वाक्य में एक बात जो लगभग हर जगह प्रतिध्वनित हो रही है है, वह है मुकेश की आवाज़ .जी हां, मुकेशचंद्र माथुर ... जिनकी पुण्यतिथी आज है. तो उन्हे भी याद करें , बडी शिद्दत से, बडे सूकूं से, बडी नज़ाकत से, जैसा की मुकेश जी के गानों का आलम होता था.

उन पर कोइ गीत लगाना क्या ज़रूरी है?

आप खुद ही गा लिजिये ना..हो जायेगी उनकी याद दिल से.

हर आम व्यक्ति को यह दिली सूकूं है की वह मुकेश के किसी ना किसी गीत को अपनी ज़िंदगी में कहीं ना कहीं अपने उपर भुगता हुआ, भोगा हुआ पाता है. दर्द भरे पलों की याद या खुले मन से बेबाक प्रेम अभिव्यक्ति करते हुए.जिसके होटों पे सचाई रहती है, दिल में सफ़ाई रहती है.जो कभी गर्दिश में रहा, तो कभी आसमान का तारा .

तभी मुकेश जी नें हमेशा कहा की - कोइ जब तुम्हारा हृदय तोड दे , तडपता हुआ जब कोइ छोड दे, तब तुम मेरे पास आना- मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा , आप जैसे दर्दीले गीत को सुनने वालों के लिये.

और जिसने यह सब नही मेहसूस किया है, उसकी चिन्ता मैं और आप व्यर्थ में क्यों करें? आप ने यहां तक मेरा साथ दिया है , इतने दूर यह पढने चले आये है,मेरे दिल से निकले कुछ अमोघ बोल सुनने, तभी , क्योंकी आप भी तो मेरे जैसे है..यह जो सब लिखा गया है, क्या सिर्फ़ मेरे बारे में या मेरी आपबीती या सुख दुख के क्षणों की पाती है? नही दादा, यह सब आप के ही मानस की तो अभिव्यक्ती है.

amoghkawathekar.blogspot.com या मेरे Dashboard से मानस के अमोघ शब्द पर जा सकते है. नामकरण के लिये credit संजय भाई को.गलती पर Debit मुझे मात्र !!!

तो आयें , मिल कर गा उठे -

जीना यहां , मरना यहां इसके सिवा जाना कहां ?

Monday, August 25, 2008

मन तरपत हरि दर्शन को आज..

रफ़ी - भजन रंग

जय श्री कृष्ण !!!

वास्तव में जन्माष्टमी कल थी या आज है इसका किसको खयाल.. हमारे मन की अवस्था तो यूं है - मन तरपत हरि दर्शन को आज..

आज यह गीत कृष्ण भजन है और बैजु बावरा के प्रसिद्ध भजन का रिमिक्स है,खुद रफ़ी जी नें गाया. जैसा की पिछली बार”मधुबन में ’गाने में था.गीत में वैसा ही improvisation .खुला , कृष्ण भक्ति में मगन हो कर गाया रफ़ी जी द्वारा. एक आग्रह, कृपया पुराने ओरिजीनल गाने से तुलना न करें.

मै और कुछ भी लिख पाने की स्थिती में नही हूं. अभी अभी संजय भाई के सुरपेटी ब्लॊग पर माखन मिश्री खा कर आ रहा हूं . आप भी प्रसाद ग्रहण करने वहां पधारें.www.surpeti.blogspot.com.


प्रस्तुत भजन के संदर्भ में इस के संगीतकार जनाब नौशाद सहाब खुद कहते है-

गूंजते है तेरे नगमों से अमीरों के महल,
झोपडों में भी गरीबों के तेरी आवाज़ है,

अपनी मौसीकी पे सबको फ़क्र होता है मगर,
मेरे साथी आज मौसीकी को तुझपर नाज़ है...

यह कृष्ण के लिये कहा गया है, या रफ़ी जी के लिये , अपने अपने अर्थ आप स्वयं लगांयें...

देखा जाये तो सही अर्थों में धर्म निरपेक्षता हमें फ़िल्म जगत में ही दिखाई पडती है.

स्वयं भगवान शिव द्वारा रचित राग मालकौंस पर निबद्ध इस कृष्ण भजन को मोहम्मद रफ़ी नें गाया, मोहम्मद शकील ने लिखा, और नौशाद अली ने बनाया.. क्या बात है..

मुकद्दस पाकीज़गी से बनाया गया यह गीत आप को बेखुद कर दे ,आप पर अगर कैफ़ियत तारी हो जाये तो फिर मुझसे मत पूछियेगा कि ये किसका कमाल है..

आप खुद ही तय किजिये.....



मुझ पर भी इसकी कैफ़ियत तारी हो गयी है, इसलिये - दिलीप के दिल से - भी यह भजन सुनने का आग्रह.. यानी , मेरी आवाज़ में, वैसे ही- मै, आप, और रफ़ी !!

रफ़ी जी और आप से क्षमा चाह्ते हुए..

Saturday, August 23, 2008

वृंदावन का कृष्ण कन्हैया

रफ़ी - शास्त्रीय रंग एवम भजन ..

आज कृष्ण जन्माष्टमी है, और कल भी.

तो क्यों नही आज उस नटखट , नंद गोपाल कन्हाई की याद में रफ़ी साहब की आवाज़ में कोई गीत पेश किया जाये.आज भी और कल भी. हम अभी भी रफ़ी के शास्त्रीय रंग के गानों की मेहफ़िल में है जनाब. कुछ जी नही भर रहा है.

वैसे गाने तो बहुत सारे है रफ़ी जी के, जो कृष्ण के विषय पर है,जैसे-

राधिके तूने बंसरी चुरायी, बडी देर भई नंदलाला, ना जईयो राधे छेडेंगे श्याम..

लेकिन प्रस्तुत गीत तो कालजयी है, लता के साथ गाकर अमर हुए इस गीत को राजेन्द्र कृष्ण नें लिखा(जिनके नाम में ही कृष्ण है)और हेमंत दा नें स्वरों मे पिरोया है. सन १९५७ की ’ मिस मेरी ’ फ़िल्म के लिये--

वृंदावन का कृष्ण कन्हैया , सब की आंखों का तारा,
मन ही मन क्यूं जले राधिका,मोहन तो है सब का प्यारा..


आपने देखा, ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी कैसे हल्के फ़ुल्के रोल में है. रेखा के पिता जेमिनी गणेशन और जमुना.. साथ में हमारे किशोर कुमार भी...(हास्य कलाकार मारुती या जगदीप भी ?)पूरी धमाल से भरी फ़िल्म थी. एक और बेहद सूरीला और बेजोड गीत था - सखी री सुन बोले पपीहा उस पार.. क्या संयोग था- लता और आशा की आवाज़ एक साथ.वो फिर कभी.

कहीं तो यह भी कहा गया है की ओरिजिनल गाना तमिल में था जिसे पी सुशीला और ए एम राजा नें गाया था. मगर गाने का स्वरूप खालिस उत्तर हिन्दुस्तानी लग रहा है, पूरबी रंगत लिये, हेमंत दा के जन्म स्थान वाराणसी की तरफ़ का.अतः यही ओरिजिनल है , बात खतम!

देखा जाये तो किशन कन्हैया हिन्दी फ़िल्मों के सभी गीतकारों का और संगीतकारों का आंखों का तारा थे. संपूर्ण अवतार थे वे, मगर दैहिक प्रेम की बजाय , आत्मीय प्रेम के पर्याय .An Epitome of Platonic Love !! तभी तो उन दिनों के नायक और नायिका के मन की सच्ची अनुरागी अवस्था कृष्ण और राधा के निस्पृह प्रणय की प्रेम गाथा द्वारा संदर्भित होती थी. आज कल युवाओं में वह तन मन की शुद्धता कहां? तभी तो आज कल ऐसे गीत कहां बनते है ( अपवाद स्वरूप - लगान फ़िल्म के गाने को छोडकर, जिसमें लगभग यही भाव थे)

अमूमन, जो भी भजन होते थे हिंदी फ़िल्मों में वह शास्त्रीय स्वरूप में ढाले जाते थे, और इसी विषय वस्तु के आसपास होते थे. साथ में यहां दक्षिणी फ़िल्म होने के कारण इसमें नृत्य का भी समावेश किया गया जो सोनें में सुहागा जैसा सुहाता है. सुना नही आपने, क्या खूब तबला और नाल बजी है, अलग अलग ठेके में.. और बांसुरी की मन मोहने वाली धुन..क्या समाधी तक नही ले जाती?

शब्दों पर भी ज़रा गौर करें.

रंग सलोना ऐसा जैसे छाई हो घट सावन की
एरी मैं तो हुई दिवानी, मन मोहन मन भावन की
तेरे कारण देख सांवरे छोड दिया मैनें जग सारा

(एरी मैं तो ..यहां मीरा भी उपस्थित है)



आईये और प्रेम रस में सुध बुध खो जायें..

Wednesday, August 20, 2008

कुहू कुहू बोले कोयलिया...

शास्त्रीय रंग...और रफ़ी

मोहम्मद रफ़ी जी के गाये हुए शास्त्रीय संगीत पर आधारित अनेक गानों में इस गाने का क्रम सबसे उपर लगता है. इस के बारे में ज्यादा कहने के लिये कुछ नही, वरन सुनने के लिये ,मन के सानंद आनंद से डोलने के लिये है. सिवाय इसके की यह गाना रफ़ी साहब नें स्वर कोकिला लता मंगेशकर के साथ गाया है, जिसमें एक ही गाने में चार रागों का प्रयोग किया गया है.स्थाई में राग सोहोनी है, और ३ अंतरों में है राग बहार, राग जौनपुरी, और राग यमन.

यह बंदिश सन १९५७ में स्वर्ण सुंदरी फ़िल्म के लिये आदि नारायण राव नें संगीत बद्ध की,(ताल त्रिताल). लेकिन इतने सुंदर शब्दों को कविता में किसने ढाला, यह पता नही. मेघराज नें बादरीया का श्याम श्याम मुख चूम लिया है..
वाह,वाह.जानकारों से आग्रह है कि जानकारी बढायें.

कुहू कुहू बोले कोयलिया ,
कुंज कुंज में भंवरे डोले ss,
गुन गुन बोले SS,आ SSS..(कुहू कुहू)

सज सिंगार रितु आयी बसंती,
(आलाप)
जैसे नार कोई हो रसवंती, (सरगम)
डाली डाले कलियों को तितलियां चूमें
फ़ूल फ़ूल पंखडिया खोले, अम्रत घोले, आsss.. (कुहू कुहू)

काहे ,काहे घटा में बिजली चमके,
हो सकता है, मेघराज नें बादरिया का श्याम श्याम मुख चूम लिया हो..
चोरी चोरी मन पंछी उडे, नैना जुडे आsss ..(कुहु कुहु)

(आलाप)
चंद्रिका देख छाई, पिया, चंद्रिका देख छाई..
चंदा से मिलके, मन ही मन में मुसकाई, छाई,चंद्रिका देख छाई..
शरद सुहावन मधुमन भावन, २
बिरही जनों का सुख सरसावन,
छाई छाई पूनम की छटा,घूंघट हटा, आsss (कुहू कुहू)

(आलाप)
सरस रात मन भाये प्रियतमा ,कमल कमलीनी मिले sss
सरस रात मन भाये
किरण हार दमके, जल में चांद चमके,
मन सानंद आनंद डोले २
सरगम ...

यह गाना अछ्छे अच्छे गायकों के लिये आज भी बडी चुनौती है. जगह तो दिखती है, मगर गले में नही उतरती. उतरती है तो उठती नही.

रफ़ी और लता को सलाम.

Friday, August 15, 2008

देश भक्ति के नगमें - मोहम्मद रफ़ी


रफ़ी साहब पर फ़िर से इतनी जल्दी लिखने का एक कारण है, आज़ादी की सालगिरह के दिन का महत्व. मगर जैसा की मैं कह रहा था, मैं यह सोचता हूं की उस दिन तो आप आज़ादी के तरानों की मस्ती में तो रहते ही है. क्या यह नही हो सकता की हम उसके बाद भी उस मस्ती को बरकरार रखें, नहीं तो १५ अगस्त खतम, पैसा हजम!

इसीलिये यह प्रयास. यकीन किजिये, आप को मज़ा ज़रूर आयेगा. कल के श्रीखण्ड को आज खाने जैसा !!

मैने पिछले पोस्ट में लिखा था, रफ़ीजी ने अलग अलग रंगों की छटा लिये हुए गाने गाये, जो की दूसरे गायकों को नसीब नही हुए. हर फ़न मौला थे रफ़ी साहब. जिस भी मूड का या प्रभाव का गाना हो, उनके लिये आसान था. क्योंकि, उनके गले में परवरदिगार नें वो कमाल भर दिया था , जो हर किस्म के गानों के लिये ही जैसे बनाया गया हो.चलो इसकी तसदीक भी कर लें.

विभिन्न रंगो, या मूड्स की हम जब बातें करेंगे तो हमें उनके गानों को हमें कुछ इस तरह के संवर्गों में बांटना पडेगा:

a. Soft Romantic songs कोमल रूमानी नगमें
b. Rhythemic melodious Love songs मधुर प्रेम गीत
c. Classical songs शास्त्रीय स्वरूप की बंदिशें
d. Devotional songs भजन
e. gazal गज़लें
f. Quawali कव्वाली
g. comedy कॊमेडी
h. Sad songs दर्द भरे गीत
h. philosophical songs दार्शनिक गीत
i. patriotic Songs देश भक्ति के नगमें
j. Special songs खास नगमें

(और कुछ हो तो आप बतायें)

तो पिछले पोस्ट में आपने क्लासिकल क्लासिक सुना, मधूबन में राधिका नाचे रे, जो कि एक भजन भी था. आम तौर पर भजनों को शास्त्रीय संगीत के सुरों से सजाया जाता है.जन्माष्टमी के अवसर पर एक बढियां भजन सुनवायेंगे.

आज है प्रस्तुत आज़ादी के तरानों की जुगाली..

रफ़ी जी तो इन गीतों में जान फ़ूंक देते थे. उनकी आवाज़ में जो वीर रस के ambience के लिये लगने वाली खुली और शेरदिल आवाज़ थी, साथ में ही उसमें करुणा रस का भी उतना ही समावेश था.

देशभक्ति के कई गीतों का यहां ज़िक्र करना चाहूंगा -

अब कोई गुलशन ना उजडे, कर चले हम फ़िदा, वतन पे जो फ़िदा होगा, सरफ़रोशी की तमन्ना अब , अपनी आज़ादी को हम हर्गिज़ भुला सकते नही,मेरी आवाज़ सुनों और कई..

और हां. आपमें से कुछ लोगो को याद होगा. सन १९६२ में जब चीन नें हमला किया था तो भारतवासियों का ज़ज़बा बढाने के लिये दो लघुफ़िल्में बनी थी जिसमें फ़िल्मी कलाकारों ने काम भी किया था. वो गाने भी रफ़ीजी नें ही गाये थे.याद नही आ रहे हैं. किसी के पास होंगे?

आज हम देशभक्ति के गीतों में हमेशा अव्वल रहने वाला यह गीत सुनें - वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो - शहीद (पुरानी) फ़िल्म के इस गीत को रफ़ीजी ने खान मस्तान(या मस्ताना ?) के साथ गाया है.

कल से कोशिश कर रहा था कि इसका ऒडियो क्लिप मिल जाये, क्योंकि टेप पर से MP3 में बदलने की जुगाड अभी लग नही पायी है. सारेगामा के साईट पर भी उपलब्ध नही है.

खैर ,अभी तो असल गीत के बजाय मेरे गुनगुनाये हुए एक छोटी सी क्लिप को सुनिये. साज़ो आवाज़ के साथ फिर कभी, अभी तो सिर्फ़ मैं , आप, और रफ़ीजी.

मधुबन में राधिका नाचे रे



मुहम्मद रफ़ी यह नाम जेहन में आते ही हम एक ऐसे सुरेले संगीतमयी यात्रा पर निकल पडते है, जिसके सफ़र में हम आप रूबरू होते है पहाड की तलहटी के किसी घुमावदार पगदंडी से, या किसी बडे से शीतल पानी के झरने से, कलकल बहते हुए स्रोत से, या हल्की ,मीठी सी बयार से. हम बौरा जाते है, मन रक्स करने लगता है, और दिल चाहता है की यह रूहानी सफ़र कभी भी खत्म ना हो.

रफ़ी साहब के गानों पर बहुत कुछ सोचा था, अब अभिव्यक्त करने से थोडा और रूमानी हो जाऊं तो यारों मुआफ़ कर देना.

आप सब जानकारों ने जब भी उनको सुना तो पाया होगा की इससे मीठी, इससे पाक साफ़ और चिरयौवन आवाज़ दूजी नही हुई. कोई आश्चर्य नही की अपने ज़माने में लगभग ६०-७०% गाने जो हिरो , या कॊमेडियन या किसी भी चरित्र पर फ़िल्माये जाते थे, वे आवाज़ उधार लेते थे रफ़ी की.He was epitome of Youthfullness and rightousness in the character.किसी भी आवाज़ का ultimate - या ultima थे , एकदम मुकम्मल.

क्षमा चाहूंगा, यदि स्वयं प्रभु रामचन्द्र की भी आवाज़ होगी तो ऐसी ही होगी. आदर्श आवाज़!!

उन दिनों की फ़िल्मों के जो नायक होते थे वे ज्यादहतर सभ्य , अहिंसा वादी एवं दिल के साफ़, अच्छे इंसान हुआ करते थे, तभी तो रफ़ी साहब की आवाज़ उनपर मुआफ़िक बैठती थी .

रफ़ी जी के गानों में आपको कई रंग मिलेंगे. तो आज से शुरुआत करते है उनके नायाब और कालजयी गीतो के एक रंग से-

शास्त्रीय रंग या भजन रंग

कई गानें आपको याद आयेंगे- उसकी चर्चा अगले अंक में, मगर प्रस्तुत गीत तो ’ वाह भाई वाह ’

" मधुबन में राधिका नाचे रे "


आपने आजकल कई रिमिक्स सुने होंगे, सुन ही रहे होंगे. मगर, इससे पहले भी यह नुस्खा आज़माया जा चुका है, बडे बडे स्थापित गायकों की आवाज़ में. मगर उद्देश्य था बडा ही विनीत. दरअसल, वे गाने फ़िर से रिकॊर्ड किये गये, जिन्हे बडी शोहरत मिली , जिन्हे अच्छे और लेटेस्ट तकनीक के इस्तमाल से बेहतर बनाया गया. रफ़ी, मन्ना दा, महेन्द्र कपूर आदि.

फ़िल्म कोहिनूर के लिये राग हमीर में निबद्ध किये गया यह गीत उसी श्रेणी में है, जिसमें आप पायेंगे की कहीं कहीं रफ़ी जी ने ओरिजिनल साउंड ट्रेक से अलग भी गाया है,जो सुखद है.

नौशाद साहब की कोमेंट्री भी क्या गज़ब !!

अंत में एक दिल की बात! यह गाना इस खाकसार ने ७ वर्ष की उम्र से गाना शुरु किया, (पहला गाना )इसलिये भी, रफ़ी जी पर मेरी यह ब्लोगयात्रा का आगाज़ भी इसी महान गीत से..

आपके विचारों से संबल मिलेगा, या सुधरने का मौका मिलेगा.


Wednesday, August 13, 2008

मोहम्मद रफ़ी के गाने पर रिमिक्स ?

मोहम्मद रफ़ी साहब के बारे में कुछ लिखने का वादा किया था, पूरा नही कर सका. अब पता चला कि जो लोग इस ब्लोग जगत पर अपना अमूल्य समय दे कर आप हम सब के लिये मोती चुन के लाते है, कितना परिश्रम , कितनी मशक्कत, कितना ्होमवर्क करते है, तब जा कर इतने अच्छे अच्छे पोस्ट हमें पढने एवं देखने मिलते है. श्रोता बिरादरी, सुखनसाज़, इत्यादि. सबसे पहले उनको और उनके स्रिजन को सलाम!!

इसलिये, लगता है, या तो कुछ अलग किया जाये, जो इन सब से बेहतर तो हो ही नही सकते.मगर हां, इनकी रिपोर्टिंग की जा सकती है, इन पर अपने कमेंट विस्तार से लिखे जा सकते है, या इन पर जुगाली की जा सकती है.Like playing a second fiddle ( या किसी भी अच्छी संगीत रचना के पीछे एक अचूक 7th Diminishing Note लगाना)
मगर रफ़ी जी पर तो लिखना है ही, और कंप्युटर के मॊनिटर की गड्बड कल ठीक हो जायेगी तो कल का पोस्ट तैयार है. तो कल से दो तीन दिनों की छुट्टी में रफ़ी सहाब के गानों की मस्ती में गोते लगाने के लिये तैय्यार रहें.

आपने आजकल रिमिक्स के कई गाने सुने होंगे, रफ़ी सहाब के गानों पर सुने है? खुद रफ़ी साहब की आवाज़ में ?

कल तक तो रुक जाईये जनाब!!!

’ जोग लिखि संजय पटेल की ’ पर भीमसेन का अच्छा पोस्ट आया है. (www.joglikhisanjaypatelki.blogspot.com)

Monday, August 4, 2008

किशोर दा के साथ कश्ती का खामोश सफ़र

'कश्ती का खामोश सफ़र है...' यह किशोर दा का सुधा मल्होत्रा के साथ गाया गाना आज दोपहर को उनके जन्म दिन पर सुना.रहा नही गया की पहले किशोर दा पर ही कुछ ...

यह गीत मेरे लिये एक अलग महत्व रखता है. मेरे बचपन में मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि स्वयं सुधा मलहोत्रा जी ने यह गाना भोपाल के हमीदिया कॊलेज के एक गेदरिंग में गाया था.चूंकि प्रिंसिपल उनके पिताजी ही थे, तो सुलभ ही उपलब्ध हो गयी. साथ में कोई साथी बंबई से आया था. मेह्फ़िल में जया भादुरी भी मौजुद थी.

इसलिये जब दिल की गहराई तक उतरने वाला यह गीत जब आज श्रोता बिरादरी पर नश्र हुआ (या पोस्ट हुआ)्तब पुरानी यादों ने फ़िर दस्तक दी.

बताया गया कि ्रिकॊर्डिंग के वक्त बडे संजीदा मूड में गाने के लिये किशोर दा से बडी मिन्नतें की गयी, मगर वे सिरियस नही हुए. पर जब वास्तव मे रिकॊर्डिंग शुरु हुई तो नतीजा सामने है.

आज कुछ लिखने का नही बल्कि कहने का मूड है, आज मुझे भी कुछ कहना है, तो यह गीत पेश है. अपनी दिल की आवाज़ में स्वांतः सुखाय की अवस्था में गाया है खुद ही ने, शायद आप भी दाद दें तो मेहरबानी.

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