Tuesday, September 29, 2009

लता मंगेशकर - संगीत से समाधि तक



आज स्वर कोकिला लता मंगेशकर का जन्म दिन है, और मन बडा ही गुले गुलज़ार हो रहा है, बौरा रहा है, क्या सुनूं, क्या सुनाऊं, कुछ भी समझ नहीं आ रहा है.

अभी कल ही जन्मदिन पूर्व संध्या को हमारे मित्र सुमन चौरसिया नें यहां प्रेस क्लब में लता जी का जन्म दिन मनाया और केक काटी. प्रसिद्ध संगीत समिक्षक अजातशत्रु भी मौजूद थे, और इस अवसर पर कुछ ऐसे संगीत के दिवानों का भी सन्मान किया गया जिन्होनें पिछले कई वर्षों से संगीत की किसी ना किसी तरह से सेवा की है, साहित्य या पत्रकारिता के ज़रिये.

हमारे सभी के लाडले भाई यूनुस खान का भी सन्मान किया गया. उनकी मधुर वाणी अभी तक तो विविध भारती पर सुनते ही आये थे , मगर उनका भावप्रवीण चेहरा और उसपर Highly Infectious मधुर मुस्कान के तो हम दिवाने ही हो गये.

मुझे आज याद आयी आज से कुछ सालों पहले का वह वाकया जब मैं अनायास ही , अनजाने में ही लता जी से रूबरू हुआ था, पहले फोन पर ,बाद में उनके समक्ष ही.

मौका था सात आठ साल पहले लताजी का वह यादगार कार्यक्रम जो उन्होने मुंबई के अंधेरी स्पोर्ट्स कोम्प्लेक्स के मैदान पर बडे सालों के बाद दिया था.

मैं उन दिनों इंदौर में एक N R I परिवार श्री अजित माहेश्वरी के बंगले का इंटिरीयर डेज़ाईनिंग कर रहा था. आंतरिक साजसज्जा के साथ हम आध्यात्म में साथ साथ रुचि रखने के कारण इतने घुल मिल गये कि जैसे एक ही परिवार हो गये थे.

उनकी छोटी बहन उन दिनों इंदौर आयी थी जिनके पति श्री प्रमोद झंवर मुंबई में बॊंबे होस्पिटल में जाने माने डॊक्टर थे.विषेश बात ये थी कि वे लताजी के निजी चिकित्सक भी थे. तो इसिलिये जब उन दोनों को मेरा संगीत में रुचि मालूम पडी तो उन्होने मुझे मुंबई आमंत्रित किया उस कार्यक्रम के लिये , जिनके स्पेशल वी आई पी पासेस उनके पास जो थे.

नेकी और पूछ पूछ ? मैं तुरंत ही उस दिन सुबह की फ़्लाईट से मुंबई पहुंचा और झंवर दंपत्ती के ब्रीच केंडी के नज़दीक घर में जा पहुंचा.

नाष्ता वैगेरे निपटा कर ज्यों ही मैं मुंबई के अपने कार्य निपटाने के लिये तैय्यार हुआ तो एक फोन आया, जिसपर मराठी के प्रसिद्ध संगीतकार अनिल मोहिले थे, जिन्होने डॊ. साहब से बात करवाने के लिये कहा और कहा कि स्वयं लता दीदी बात करना चाह रही थी.

मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ अपने इस भाग्य पर. मैं भागते हुए डों साहब को बुलाने गया. वे चूंकि बाथरूम से आ ही रहे थे मैं मोहिले जी को दो मीनीट रुकने के लिये वापिस फोन पर जा पहुंचा.

जैसे ही मैने चोंगा उठा कर हेलो कहा, उधर तब तब एक चिरपरिचित आवाज़ नें फ़ोन ले लिया था. संसार की सबसे मधुर आवाज़, स्वर , उस तरफ़ था, और अनजाने में मुझको डॊ.साहब समझ कर उन्होने बात करना शुरु कर दिया.मुझे तो बस एकदम लकवा सा ही मार गया था, जो मैं मूर्तिवत हो कर उस अमृत स्वर गंगा की पावन स्वर धारा का रसपान करने लगा.

बात यूं हुई थी कि चूंकि लताजी का उसी दिन शाम को कार्यक्रम था, पिछले दो या तीन दिनों से उनकी रिहल्सल्स लीला पेंटा होटल में ही चल रही थी. मगर किसी कारणवश लता जी संतुष्ट नहीं थी, या तो अपने पर्फ़ोर्मेंस की वजह से , या फ़िर वाद्य वृंद के संयोजन से. इसलिये उन्हे एसिडीटी हो गयी और बाद में दस्त जैसे लग गये थे.

काम के प्रति उनकी कमिटमेंट, क्वालिटी और संपूर्णता की जिद तो मैं उनमें सन १९८३ में ही देख चुका था जब वें पहली बार इंदौर आयीं थी अपने कार्यक्रम देने के लिये.(वह भी एक अलग सा अनुभव था जो बाद में बाटूंगा आपके साथ)जिस लता मंगेशकर के गाने के हम इतने दिवाने हैं,( एकदम पागलपन की हद तक ) वह स्वयं अपने आउटपुट के प्रति सजग और चिंतित कितनी हैं ये पता चला.

बाद में डॊ. साहब नें खुद फोन ले लिया और लता जी को आश्वस्त करते हुए उन्हे कुछ गोलीयां लिख दी, और शाम को कार्यक्रम में थोडा पहले आकर पर्सनली देखनें का भी आश्वासन दिया.


शाम को जब हम सभी साथ साथ कार्यक्रम की वेन्यु पर पहुंचे तो लताजी राह ही देख रही थी. एक अलग सा कमरा था जहां उन्होने करीब एक घंटे पहले अपने आप को बंद कर लिया था, ताकि कार्यक्रम पर मन एकाग्र कर सकें.डा. साहब के साथ लताजी के समक्ष जा कर खडे हो गये.

लताजी का पहनावा याने लगा कि साक्षात किसी देवी के मंदिर में आकर हम दर्शन के लिये खडे हो गये हैं. स्वच्छ सफ़ेद साडी केसरिया बॊर्डर के साथ, लंबे बाल, और थोडा म्लान , क्लांत सा चेहरा, पेट की खराबी की वजह से.

उनकी बातें हुई. मेरा मात्र परिचय कराया गया कि इंदौर से हैं, तो लताजी मुस्कुरा दी.मैं ठगा सा खडा ही रह गया, और ये भी नही सूझा कि उन्हे नमस्ते ही कर दूं , या फ़िर चरण छूकर अपनी तहे दिल के अंदर छिपी श्रद्धा को किसी माध्यम से प्रकट कर दूं. बस हम बाहर आ गये.....



और मैं तब से बाहर ही खडा हूं आज तक, लता जी के बंद किये द्वार के बाहर, उनकी मुसकान और मधुर आवाज़ की लुटिया लिये, बस सुन रहा हूं तो उनके हर वो गीत, जिसमें उन्होनें आनंद , खुशियां, दर्द, रंजो ग़म , अल्हडता, रोमांस , स्नेह , मां का दुलार, पत्नी का समर्पण , सभी अपने स्वरों की चासनी में डुबो कर हमें डुबा दिया उस संगीत के सागर में.

चलिये अब मैं आपको आज सुनवाता हूं उनका संगीतबद्ध किया हुआ एक बेहद ही मधुर गीत - ऐरणी चा देवा तुला ठिनगी ठिनगी वाहु दे,आभाळागत माया तुझी आम्हावरी राहू दे..
मराठी फ़िल्म साधी माणसं के लिये लताजी नें आनंदघन नाम से जिन ५ फ़िल्मों में संगीत दिया था उसमें से एक ये है.



जिन्होने इसे नहीं सुना हो, वो उनके सुरों की समझ, वाद्यों का वाजिब प्रयोग, और मेलोडी का भरपूर उपयोग..

प्रील्युड में एक अलग से रिदम से आरंभ होकर पार्ष्व में लोहे को कूटते हुए घन की आवाज़, और साअथ ही इंटरल्युड में सुमधुर मुरली के स्वर. पता नहीं , क्या क्या साईड रिदम के वाद्यों का प्रयोग किया गया है.(कोई बता सके तो आभारी रहूंगा)


क्या आपको यह गीत संगीत से समाधि तक नहीं ले जा रहा?

Tuesday, September 22, 2009

’राग - ज़ेज़ स्टाईल ’ हिंदुस्तानी शास्त्रीय राग और पश्चिमी संगीत का फ़्युज़न - जयकिशन



इस चित्र को आप ज़रा गौर से देखें.

नामवर संगीतकार जोडी शंकर जयकिशन में से एक जयकिशन डाह्याभाई पांचाल.....

अभी पिछली १२ तारीख को आपकी पुण्यतिथी थी और हम सबनें उन्हे याद किया. वैसे पिछली ६ ता. को यहां मुंबई से आई एक फ़िल्मी संगीत को समर्पित एक ग्रुप आया था जिसनें शंकर जयकिशन जी की धुनों के प्यारे प्यारे नगमें सुनाये थे. मैं जा नहीं सका क्योंकि अस्पताल में था बिटिया के लिये, मगर बाद में पता चल्ल कि बेहद ही बढिया कार्यक्रम हुआ था उस रात. खुद संजय पटेल जो स्वयं पुराने फ़िल्मी गीतों के दर्दी हैं,गुले गुलज़ार हो कर मुझे दाद देते हुए कहा कि एक तो शंकर जयकिशन की मेलोडी और ऊपर से इतना बढिया प्रोग्राम. बस उनकी टिप्पणी में ही मैंने पूरे कार्यक्रम का लुत्फ़ उठा लिया.

शंकर जयकिशन दोनों अलग अलग संगीत देते थे ये बात हम सभी जानते ही हैं. मगर कई बार सुनने वाले यही जानने की चेष्टा में लगे रहते हैं, कि कौनसी फ़िल्म में गीत शंकर जी नें दिया था और कौनसी में जयकिशन जी नें.

मेरे एक मित्र श्री श्रीधर कामत बता रहे थे कि अमूमन शैलेन्द्र नें शंकर के लिये लिखा था और हसरत नें जयकिशन के लिये. मगर मुझे लगता है ये पूर्णतयः सही नही होना चाहिये. रात के हमसफ़र ये गीत शैलेंद्र नें लिखा था मगर मेलोडी जयकिशन की लगती है.

वैसे पgaला कहीं का, एप्रिल फ़ूल, आम्रपाली,दिल एक मंदिर आदि जयकिशन जी नें ही दिये होंगे. क्योंकि मोटे तौर पर जब भी हम उनकी धुन को सुनते हैं उसमें मेलॊडी की बहुतायत मिलेगी बनिस्बत पाश्चात्य सिम्फनी भरे कोर्ड्स भरी धुन के जो शंकर का बेस्टन था या उनकी स्ट्रेंग्थ थी.शंकर के गीतों में ऒर्केस्टा ज़्यादा मिलेगा,जिसमें पाश्चात्य वाद्यों की बहुतायत होगी, और जयकिशन के ईंटरल्य़ुड्स में भारतीय वाद्य और तबले ढोलक का उपयोग ज़्यादा.

पहचान के लिये एक और छोटा सा नुस्खा मैं वापरता हूं. शंकर जी का बाद में लताजी से अनबन होने की वजह से उनकी धुनों को लताजी नें नहीं गाया, जबकि जयकिशनजी नें लताजी की मधुर आवाज़ का उपयोग बादमें भी किया.

ये चित्र एक रिकोर्डिंग के समय का हैं जो हमें विश्वास नेरुरकर (लोकसत्ता)के सौजन्य से प्राप्त हुआ है.ये रिकोर्डिंग ज़र हटके है.

दायीं ओर जयकिशन जी को तो पहचानने में कठिनाई नहीं आयेगी. बायीं तरफ़ है, प्रख्यात सितारवादक रईसखान , जिन्होने हिंदी फ़िल्मी गीतों में कई बार सितार के पीसेस बजाये हैं ( तुम्हे याद करते करते- लताजी- आम्रपाली)

काला चष्मा लगाये हुए चश्मे बद्दूर हैं, मशहूर सॆक्सोफ़ोन वादक मनोहारी सिंग (तुम्हे याद होगा कभी हम मिले थे- हेमंत-लता - सट्टा बाज़ार) या (आवाज़ देके हमें-रफ़ी-लता-प्रोफ़ेसर)ये बाद में प्रसिद्ध संगीतकार राहुलदेव बर्मन के मुख्य असिस्टेंट और अरेंजर भी रहे हैं (छोटे नवाब से लव स्टोरी १९४२ तक)

जयकिशनजी के पीछे बैठकर ड्रम बजा रहे हैं ड्रमप्लेय लेस्ली गोदिन्हा.

ये रिकोर्डिंग किसी फ़िल्म की गाने की ना होकर १९६८ में बनी एक एल पी रिकोर्ड ’राग - ज़ेज़ स्टाईल ’ के समय का है.जानकारी के अनुसार इसमें और जिन वादक कलाकरों नें अपने हुनर दिखाये थे वे थे -

अनंत नैय्यर और रमाकांत (तबला)
झॊन परेरा ( ट्रंपेट)
एडी ट्रेवर्स (बास)
दिलीप नाईक और एनिबाल केस्ट्रो ( एलेक्ट्रिक गिटार)
सुमंत (फ़्ल्यूट)

वाद्यवृंद संयोजन था एस. जे. का!! जिन्हे हमेशा की तरह असिस्ट किया दत्ताराम और सेबेस्टियन डिसूज़ा नें.

हिंदुस्तानी राग और पश्चिमी संगीत का फ़्युज़न ४० साल पहले करने का भारत में ये पहला और अभिनव प्रयोग था. इससे पहले उस्ताद रविशंकर जी नें ऐसे प्रयोग किये थी ज़रूर, मगर अमेरीका में.

उन दिनों किसी कारणवश फ़िल्म इंडस्ट्री के वादकों का स्टाईक चल रहा था, और कई दिनों से संगीतकार बस घर बैठे थे.तो ऐसे में एच एम व्ही के श्री विजयकिशोर दुबे के मन में इस परिकल्पना का जन्म हुआ और उन्होंने यह बात जयकिशन को बताई. वैसे ये बात शंकर जी को खास पसंद नहीं आयी, और उन्होंनें इसका कुछ विरोध भी किया.मगर जयकिशन जी को ये बात और चेलेंज इतना मन भाया कि उन्होने शंकर के विरोध के बावजूद इस क्रीयेटिव काम को अंजाम देनेम की ठान ली.

शास्त्रीय संगीत में प्रचलित प्रसिद्ध राग तोडी, भैरव, मालकंस, कलावती, तिलक कामोद, मियां की मल्हार,बैरागी जयजयवंती ,पिलू, शिवरंजनी, और भैरवी इन ग्यारह रागों पर आधारित फ़्युज़न संरचना उन्होने कंपोज़ की ये अलग सी इंस्टुमेंटल रिकोर्ड. उन दिनों नयी तकनीक से स्टीरीयो में ध्वनिमुद्रण किया गया, जिन धुनों को बाद में कहीं किन्ही फ़िल्मों में जयकिशन जी नें उपयोग भी किया था.

परंपरा को छोड कर किया गया कोई नवप्रयोग हमेशा टीका का पात्र होता आया है.इस रिकोर्ड का भी हश्र ऐसा ही हुआ, और कालांतर में इस सृजन को भुला दिया गया. बाद में सारेगामा कं नें सी डी में ये एल पी फ़िर से बाज़ार में लायी थी तब फ़िर से उन क्षणॊम को फ़िर से याद किया गया.

मैं इस सी डी की खोज में हूं. जिस तरह स्व. मदन मोहन जी एक पुराने गीतों की मनमोहन रिकोर्डिंग फ़िर से सुनाई दी थी, ये भी सुनने की ख्वाईश है, खासकर आज जब काउंटर मेलोडी के नाम पर पॊप रिथम के अंतर्गत ना जाने क्या क्या परोसा जा रहा है.

किसी भी संगीतप्रेमी के पास यह रिकोर्ड मिलेगी? लता दीनानाथ मंगेशकर संग्रहालय के सुमन चौरसिया जी के पास शायद होना चाहिये, जो अभी मुम्बई गये हुए हैं.

(जानकारी लोकसत्ता से साभार)
तो सुनिये वह बेहतरीन नगमा जो लताजी नें गा कर अमर कर दिया.


सेंस्युलिटी का एक अंडरकरंट जो इस गाने में है, वह उस्ताद रईसखान जी के सितार में आपको मिलेगा. सॆक्सोफ़ोन को लोग नाम के अनुरूप सेक्स्युलिटी का प्रतिरूप कहते हैं, मगर सितार का जो उपयोग हुआ है, वह तो इस दुनिया के बाहर की चीज़ है.



सेक्सोफोन का भी उपयोग अधिकतर पार्टी गीत में रात को उपयोग किया जाता है, मगर विरह के लिये जिस तरह मनोहारी सिंग नें प्रोफ़ेसर फ़िल्म में बजाया गया है, वह भी इस दुनिया से बाहर की चीज़ है.सॆक्सोफोन के सुर सीधे तार सप्तक में मींड के साथ घूमते हैं तो यूं लगता है, कि जैसे किसीने बरफ़ के चाकू को सीने में गोद दिया है, और उसे हलके से घुमा रहा हो.साथ में तबले की ताल नें और भी गज़ब ढाया है.रफ़ी जी और लताजी के दर्द भरे सुर कलेजे को चीर कर अंदर घुस जाते हैं.

और क्या लिखूं और? आपही सुन खुद सुन लिजिये...और शंकर जयकिशन के इस कालजयी रचनाओं को दाद दिजिये.

Wednesday, September 16, 2009

आशा भोंसले- स्वर्ग से उतरी एक स्वर किन्नरी...


पिछले दस दिन बस अस्पताल में गुज़रे.

और साथ ही इंदौर में एक मेगा ईवेंट भी चल रहा था, जुनून.. सात सुरों का, जिसमें अन्नु कपूर नें इंदौर आकर करीब सौ गायक गायिकाओं में से २४ कलाकार चुनें, सुगम (फ़िल्मी), सूफ़ी और लोकगीत विधाओं में , और ता. ९ को यहां के बडे अभय प्रशाल में उनकी कोंपिटीशन हुई तीन बडे निर्णायकों के सामने- इला अरुण , जस्पिन्दर कौर नरुला , और मोहम्मद वकील, (उभरते हुए ग़ज़ल फ़नकार) जो नितिन मुकेश के बदले बुलाये गये, क्योंकि उन्हे अचानक विदेश जाना पडा़.इस ईवेंट में मेरी और श्री संजय पटेल की हमेशा की तरह एक महती भूमिका रही.

लगता है, नज़र लग गयी और खाकसार भी गिर पडे़ चारो खाने चित, याने बुखार में, और पिछले तीन दिन से ज्वर की पीडा से गुज़र रहें है.

इन दिनों मेरे दिल के बेहद करीब , सुरों के साम्राज्य की मलिका, मदहोश दिलकश आवाज से पिछले साठ से भी ज़्यादा हम सभी के दिलों पर और कान पर राज करने वाली आशा भोंसले का जन्म दिन भी था ८ सितंबर को.(१९३३) याने यह उनका ७८ वां जन्म दिन था.

बाद में मेलोडी धुनों के शहंशाह जयकिशन जी की भी पुण्य तिथि थी १२ सितंबर को (१९७१).

इधर वाईरल नें घेरा और उधर संयोग ये रहा कि मेरे घर और ऒफ़िस के लेप्टॊप दोनों खराब हो गये. दर्द का आलम ये है पिछले तीन दिनों से कि रात जागते तिलमिलाते गुज़र रही थी, क्योंकि नेट से कट गये.बस एक ही चमकती रोशनी की किरण जो उस पीडा के अंधियारे से फ़ूट पडी वो आशा जी के कुछ वो नगमें जो ना मालूम क्यों रात रात भर मन में ही गनगुनाता रहा और दर्द से आंशिक सुकून पाता रहा.
प्यारा हिंडोला मेरा,
चैन से हमको कभी आपने जीने ना दिया,
ये है रेशमी जुल्फ़ों का अंधेरा
(क्या खूब गाकर सुनाया था जस्पिंदर नरुला नें उस दिन)

अब ये लेप्टोप आ गया है, तो दर्दे दिल, दर्दे जिगर सभी इसमें ही समा गये हैं.

और ये गीत जो मैं आप को सुनाने जा रहा हूं, जिसके संगीतकार भी संय़ोग से शंकर जयकिशन ही है..

रे मन सुर में गा sss



ये गीत पहले कभी तैय्यार किया था, मगर गा नहीं पाये थे किसी भी कार्यक्रम में, उस कार्यक्रम में भी नहीं, जो बरसों पहले हमनें आशाजी की लिये पेश किया था और उसमें सामने स्वयं आशाजी नें हमें सुना.

इस गीत की रागरागिनी(राग यमन) पर बात करने की बजाय इस १०२ डिग्री बुखार में आशाजी की सिर्फ़ वह तान बार बार सुनाई दे रही है, जिसके सामने मैं नतमस्तक हूं. सुरों के हिमालय खुद मन्ना दा भी इस गाने में आशाजी के गले से निकली हरकतों, मुरकीयों के कायल हुए होंगे ज़रूर. कोई भी मानव गला ऐसी साफ़ सुथरी स्वच्छ पानी के झरने जैसी एक सुर से दूसरे सुर में फ़िसलती हुई नियंत्रित तान नही गा पाया हैं.क्या आरोह क्या अवरोह

(लताजी के दिवाने मुझें माफ़ करें, मगर उनका गला तो मानवीय है कहां?)

तो चले उस अमानवीय गले की भी तान नहीं सुनेंगे? तो प्रस्तुत है दिव्यात्मा लता जी का गीत ...

मनमोहना बडे झूटे

जिसके संगीतकार भी संयोग से शंकर जयकिशन ही हैं.

मगर मैं दोनों अज़ीम शाहकाराओं की तुलना करने का दुस्साहस क्यों कर रहा हूं? शायद वाईरल नें दिमाग पर असर कर दिया है,(दिल पर नहीं).

इसलिये मैं तो इस बहाने इस गुनाह की सज़ा से बच जाऊंगा. मगर आप क्या करेंगे जनाब?

Saturday, September 5, 2009

ये कौन चित्रकार है? मुकेश जी और प्रकृति का चमत्कार !!


मुकेश - कडी २

अभी दो दिन पहले ही मुंबई काम के सिलसिले में जाना हुआ.विघ्नहर्ता विनायक की स्थापना मुंबई के गली गली , कूचे कूचे में हुई नज़र आ रही थी. बडे बडे पांडाल, रोशनीयों की झप झप , झक पक, और एक दूसरे से होड लेती हुई भगवान गणपति देवा की बडी बडी ,दर्शनीय, और मनोहारी मूर्तियां....

क्या संयोग ही था कि हम प्रसिद्ध लालबाग चा राज़ा के गणपति पंडाल के पास के ही होटल में रुके हुए थे. चाहता तो था कि रात को ही दर्शन करता , मीटिंग देर तक चल रही थी और देर रात को भी इतनी भीड थी (कोई फ़िल्म स्टार आया था).तो सोचा कि कल अंतिम दिन याने अनंत चौदस को ही देखेंगे.

मगर एकदम खबर ये आयी इंदौर से, कि मेरी प्यारी सी बिटिया मानसी को तेज़ बुखार की वजह से हॊस्पिटल में भरती किया है.बस आनन फ़ानन में सुबह के प्लेन की टिकीट बुक किये और अल सुबह किंगफ़िशर की उडान में बैठ कर वापिस इंदौर चल दिये.मुंबई में बारीश हल्की हल्की हो ही रही थी, और विमान नें जब उडान भरी तो बादलों के कोहरे में से ऊंची ऊंची अट्टालिकाओं के शीश झांक रहे थे.पता चला कि दो दिन से इंदौर में भी झम झम बारीश हो रही थी.

फ़्लाईट में दिल मश्कूक था और मन में असंख्य शंकायें जन्म ले रही थी.इंदौर में भी वाईरल का बुखार चल पडा था, डेंग्यु फ़्ल्यु का प्रकोप था ही, और रही सही कसर स्वाईन फ़्ल्यु में पूरी कर रखी थी. विमान में विडियो और ऒडियो एंटर्टेनमेंट था,मगर बिटिया की चिंता में कुछ भी देखने का मूड नही हो रहा था,तभी एक चेनल पर मुकेश जी के गीत सुनाई दिये तो बस वहीं अटक गया.

करीब एक घंटे की फ़्लाईट के बाद जब कप्तान नें इंदौर आने का संकेत दिया, तो संयोग से मुकेश जी का एक गीत लगा-

ये कौन .....चित्रकार है?

अमूमन जब भी ये गीत लगता है, तो मैं इसे फ़ास्ट फ़ारवर्ड कर देता था, क्योंकि अक्सर हर संगीत के अधिकतर कार्यक्रम में (जिसमें मुकेशजी के गीत होते है)ये गीत ज़रूर लिया जाता है. मगर दुर्भाग्य से या तो ऒर्केस्ट्रा के साज़ों के कंडक्शन में कहीं खामी रह जाती थी या गायक इस गीत के उत्तुंग भावों को पकड नहीं पाता था. संक्षेप में, इस गीत के बोल और वाद्य संयोजन के जादू को मैं कभी पहचान नहीं पाया था.

इस लिये अपने मन में हो रही हलचल का ध्यान बंटाने मैं खिडकी से बाहर झांक कर देखने लगा.तो मैने वर्षा के बादलों के झुरमुट में से नीचे दृष्टि डालकर देखा तो मैं ठगा सा ही रह गया.



नीचे हरे हरे गालीचे की माफ़िक मालवा की धरती फ़ैली हुई थी. कहीं कहीं भीगी भीगी सी झाडि़यां, कहीं सांप सी लहर खाती हुई नदीयां और उफ़नते नाले, कहीं पानी के बडे बडे लबालब भरे हुई जलाशय ....मानों अपने घर के आंगन के बगीचे में पानी भरा हुआ हो और हम उसमें ’आई’(मां) की स्नेहमई नज़र से बचते बचाते फ़चाक से कूद पडते हैं, गीले हो जाते हैं.या फ़िर कभी कभी कागज़ की कश्तियां तैराया करते थे

क्या मंज़र था... मुकेशजी की पाक नर्म सुरीली आवाज़ ,पं भरत व्यास के शुद्ध शहद से टपकते हुए मधुर बोल, अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी ,जमीं का शफ़्फ़ाफ़ सा लेहलहाता हुआ स्वरूप जैसे वसुंधरा की गोद फूलोँ से भरी हो, सिंदूरी आफ़ताब का चमकता अक्स कभी कभी सफ़ेद राजहंसों के हुजूम से उड रहे बादलों से चीर कर बारीश के पानी को ओढे पैरहन से पलट कर आता हुआ . .

मैं खा़लिक़ (सृष्टिकर्ता) की खा़लिस़ कुदरती ’अक्कासी (चित्रकारी)से अभिभूत हो कर , सन्मोहित हो कर मालिक के इस अज़ीम शाहकार से नतमस्तक हो गया, और वाकई में आंखों से भक्तिमय आंसूं तर आये.मन के भाव बौने हो गये, और उस महान सर्व शक्तिमान निर्माता के उत्तुंग व्यक्तित्व से प्रभावित मैं भक्तिसागर में डूब गया, कि जब हवाई जहाज नें जब ज़मीन को छुआ तब उस सन्मोहन से उबरा.

आज अभी देर रात को उस अस्पताल में हूं जिसको आज से कई सालों पहले मैने ही बनाया था एक होटल के लिये .उसके चौथे माले के प्राईवेट वार्ड के कमरे में बाहर बडी खिडकी से इंदौर शहर पर झमझमाती बारीश की चादर में से कहीं कहीं बिजली की कडकडाहट और रोशनी को देख रहा हूं , कहीं कहीं अनंत चौदस के गणपति विसर्जन की झांकीयों की रोशनी का उजाला देख रहा हूं , और फ़िर भी सुबह के उस मंज़र का खयाल दिलोदिमाग से निकाल नहीं पा रहा हूं.

चलो, आप को भी अपने इस अनुभव से गुज़ारने की हिमाकत करता हूं...

सुनिये और देखिये इस गीत के अंश को, दृष्यावली को, और शिक्षक बनें जीतेंद्र को (शिक्षक दिवस की संध्या पर). आप भी सन्मोहित हो जाये उस ईश्वर के जादूगरी का तसव्वूर कर के.आप पर भी वही आलम तारी हो जाये जो मुझ पर हुआ है.

अगर मज़ा नहीं आया तो मुझे कोसियेगा, ईश्वर को नहीं या इन्हे भी नहीं....!!!!



हरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन,
के जिसके बादलों की पालकी उडा रहा पवन,
दिशायें देखो रंग भरी.....,
चमक रही उमंग भरी
ये किसने फूल फूल पे ......किया सिंगार है
ये कौन चित्रकार है? ये कौन चित्रकार है?
ये कौन .....चित्रकार है?

तपस्वीयों सी है अटल ये पर्वतों की चोटीयां,
ये सर्प सी घुमेरदार घेरदार घाटियां,
ध्वजा से ये खडे हुए .....है वृक्ष देवदार के ,
गलीचे ये गुलाब के बगीचे ये बहार के ,
ये किस कवि की कल्पना .....का चमत्कार है,

ये कौन चित्रकार है? ये कौन चित्रकार है?

कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो,
इसके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो
चमका लो आज लालिमा ....अपने ललाट की,
कण कण से झांकती तुम्हे छवि विराट की
अपनी तो आंख एक है, उसकी हज़ार है.

गीतकार पं. भरत व्यास, संगीतकार सतीश भाटिया,
फ़िल्म बूंद जो बन गयी मोती ( वी. शांताराम)


Blog Widget by LinkWithin