Friday, July 16, 2010

वो भूली दास्तां....लो फ़िर याद गये मदन मोहन....


फ़िर वही शाम, वही गम, वही तनहाई है.....
दिल को समझाने मदन मोहन की याद चली आयी है...............

१४ जुलाई १९७५ को ये गुणी , वर्सेटाईल और माधुर्य से भरी धुनों का शहेन्शाह हमसे बिछड गया, और तब से उसके करोडों चाहने वाले जब भी यह गीत सुनते है, या इस जैसे कई अनेक, तो हम, आप और वे उनकी याद में आंख से एक कतरा तो ज़रूर बहाते हैं.

मैं अपने बचपन में मदन जी के एक गाने से रूबरू हुआ जैसे कि मां के कोख से ही, जब मेरी मां नैना बरसे रिमझिम रिमझिम सुनती थी, जो उसका हिंदी का बेहद पसंदीदा गीत था. चूंकि वे इतना अच्छा नहीं गाती थी, वे मेरे पिताजी से हमेशा यह गाना सुनती चली आ रही थी, बिलकुल पुरुष स्वर में!!!अपने अंतिम दिनों में भी!!इसलिये मैं भी लताजी के ही गाने गा गाकर बडा हुआ.

परसों यहां मदनजी को श्रद्धांजली देने के लिये एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें गायिका सपना नें लता जी के गाये हुए एक से एक नगमें सुनाये. मन फ़िर रम गया इन नगमों में और यादें मुझे पीछे ले गयी कुछ ८-१० सालों पहले, जब मुंबई में लताजी नें बहुत दिनों बाद एक कार्यक्रम दिया था और उसमें से कई गानें मदनजी के संगीतबद्ध किये हुए थे!!

तब एक गाना बडा ही दिल को छू गया , जो पहले भी सुनता चला आ रहा था, मगर पता नहीं क्यूं, उस दिन वह कलेजे को चीर कर रूह तक घुस गया-

वो भूली दास्तां... , लो फ़िर याद आ गयी....

अगर आपको उस दिन गाया हुआ यह गीत सुनना हो तो यूट्युब में जाकर सुन सकते हैं. मैं उसे यहां लोड नहीं कर सकूंगा , क्योंकि एम्बेड कोड नही है.

http://www.youtube.com/watch?v=a8L01-6441A&feature=related

मगर यकिन मानिये, इस गीत को खुद गानें की भी इतनी ख्वाहिश थी कि चुपके चुपके बाथरूम में गा लेता था. दोस्तों की मेहफ़िल में ये गाना गाने के कोशिश की ज़रूर , मगर सर्वकालिक महान लताजी के गाये गाने का जिगर नहीं ला पाया.

आज ज़्यादा भूमिका ना बांधते हुए एक इल्तज़ा है आप सभी अंतरंग मित्रों से, स्वर साथियों से,कि आज मेरी ये दिली ख्वाईश पूरी कर ही लेता हूं, और ये गाना रिकोर्ड करने की धृष्टता कर डालता हूं.गाने के मूड़ और जोनर के हिसाब से पुरुष स्वर में से खास गायक की तरह से गाने की कोशिश की है ( आप पहचान गये ना?).

अब जो भी गलत गाऊं, सज़ा मंज़ूर....पेशे खिदमत है.....



वस्तुतः , मैं एक एमेच्युअर गायक हूं , बिल्कुल खालिस शौकिया कलाकार.उसपर भी सिर्फ़ स्टेज पर गाता चला आया हूं.

अब जब रिकोर्डिंग करने लगा, घर में, कराओके ट्रॆक्स पर , तो रोज़ रोज़ नये प्रयोग नये आयाम खुलते जा रहे हैं, और एक ज़बर्दस्त चेलेंज सा लग रहा है.

जब आप स्टेज पर होते हैं, तो आपको एक अतिरिक्त उर्जा की, थ्रो की दरकार रहती है, और साथ में देह भाषा का भी सामंजस्य रखना पडता है, खासकर आजकर के दृष्य़ श्रव्य मिडिया के ज़माने में.फ़िर थोडा बहुत सुर इधर उधर हुआ तो भी चुपके से धक जाता है.अमित कुमार और कुछ हद तक नितिन मुकेशभी मुझसे ये कबूल कर चुके हैं,कि वे स्वर का इतना खयाल नहीं रख पाते, या ज़रूरत नहीं समझते.वहीं लताजी तो स्वर के लिये एक वायलीन का (कमल भाई) या हारमोनीयम(अनिल मोहिले) का साथ लेती हैं, और साथ में गाये हुए सुर को सुनने के लिये मोनिटर को एडजस्ट करने पर विशेष ध्यान देतीं हैं, जब भी वें स्टेज पर प्रोग्राम देतीं हैं.दरसल ये वो लोग हैं जिन्होने रिकोर्डिंग पर महारत हासिल कर ली है,जिसमें स्वर का खास ध्यान देने की पहली शर्त होती थी. क्योंकि गायक या वादक की ज़रा सी भी चूक से पूरी रिकोर्डिंग फ़िर से करनी पडती थी.आजकल इतने सारे सॊफ़्टवेयर आ गये हैं, कि मात्र कट पेस्ट से हे नहीं, सुर / पिच या लय/टेम्पो को भी कम ज़्यादा किया जा सकता है.टी सिरीज़ के स्टुडियो में हमारे एक गाने की रिकोर्डिंग के समय मैं ये देख कर या सुनकर दंग रह ग्या था कि अनुराधा पौडवाल बहुत बेसुरा गा कर चली गयी थी, और वहां के रिकोर्डिस्ट टेकनिशीयन्स बाद में स्वरों को साऊंड फ़ोर्ज पर मेनेज करते पाये गये!!

इसिलिये लताजी, मन्ना दा, रफ़ी साहब, मुकेश जी ,हेमंत दा, तलत साहब,या फ़िर भूपेन हज़ारिका,सुरेश वाडकर और बालासुब्रमन्यम... इनको जब भी अपनी मांद से निकल कर स्टेज पर गाते मैने स्वयं देखा तो उनकी लगन, डेडिकेशन और कमिटमेंट का तो मैं कायल ही हो गया.

एक छोटा सा किस्सा याद आया. सन १९८२/८३ के आसपास जब लता जी नें इंदौर में कार्यक्रम देनें का मन बनाया, तब कार्यक्रम के दिन सुबह स्टेडियम में जाकर ध्वनि व्यवस्था को चेक करने की इच्छा ज़ाहिर की. दुर्भाग्य से,शहर के एक पूर्व मंत्री नें किसी पूर्वाग्रह/विशिष्ट कारण के वजह से उनके कार्यक्रम के बहिष्कार के घोषणा कर डाली! जिस होटल में वे रुकी थी , इसके सामने काले झंडे दिखाने और टकराव की स्थिति बनाने का भी दुस्साहस कर लिया.

इसलिये आयोजकों के प्रमुख नईदुनिया दैनिक के प्रमुख संपादक श्री अभय छजलानी जे ने उनसे करबद्ध प्रार्थना की कि ऐसे माहौल में उनका जान मुनासिब नही होगा, और वे कार्यक्रम से कुछ पहले ही जाकर ध्वनि व्यवस्था चेक कर लें.

मगर वे नहीं मानी, और भारी बंदोबस्त में वे वहां गयीं. वहां उन्होने पोडियम के नीचे अपने साथ लाया हुआ छोटा सा मॊनिटर रखा, और आउटपुट को चेक किया. साथ ही इतने बडे क्रिकेट स्टेडियम में कडी धूप में दूर दूर तक लगे भोंगे ( यही तो कहा जाता था!!) भी चेक किये. दो भोंगों में गलती थी और बदलने वाले बात पर तो ध्वनि व्यवस्थापक नें कहा कि ये भोंगे तो इंदिरा गांधे तक को लगाये गये थे, तो वे्पहले तो एकदम ना्राज़ हो गयी,मगर बाद में खिलखिला कर हंस पडी,और बाकी हम सभी भी हंस पडे!!बाद में वें बोली, मुझसे एक आम आदमी की कुछ अपेक्षायें है, अच्छे गाने की, और खराब ध्वनि व्यवस्था के कारण उनके विस्श्वास ,आनंद और मेरी मेहनत पर पानी फ़िर जाता.

उस दिन के अनुभव नें मुझे बहुत कुछ सिखाया, अपने खुद के कार्यक्रम के लिये और बाद में बडे कलाकारों के लिये जिनका मेरा वास्ता बाद में तब पडा जब मैं लता मंगेशकर जी के नाम पर स्थापित पुरस्कार के आयोजन समिति का एक सदस्य म.प्र. सरकार द्वारा नामजद किया गया.तब से हर साल इस खा़कसार को यह फ़क्र हासिल हुआ कि हर किसी बडे कलाकार या संगीतकार के इंदौर आने से लेकर स्टेज के कार्यक्रम की ध्वनि व्यवस्था तक की ज़िम्मेदारी तकनीकी तौर पर सम्हाली.(एक कार्यक्रम में महेन्द्र कपूर के साथ आये मुख्य तबला वादक सुरेंद्र पा जी ने मुझे माईक चेक करते हुए गुनगुनाते हुए सुना तो वे महेंद्र कपूर से बोले कि यहां इंदौर के तो माईकवाले भी बहुत सुरीले हैं तो उन्होने हंसते हुए उनकी गलत फ़हमी दूर की, कि नहीं ये तो आयोजक ही है)

इसलिये जब मैं भी अपने स्टेज की मांद से निकल कर रिकोर्डिंग की मांद में घुसा हूं तो मुझे भी नानी याद आ रही है, जिसका जिक्र अगली बार......

एक और प्लेयर...

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Tuesday, July 6, 2010

आओ ट्विस्ट करें- पंचम दा की विस्फ़ोटक धुनों पर....श्रद्धांजली

RDX of Rahul Dev Burman


आज तो बस मैने ठान ही ली है, कि आज एक पोस्ट ज़रूर हो जाये.

दर असल इतने दिनों में व्यस्तता का तो आलम था ही, मगर लेपटॊप खराब हो जाना, फ़िर इजिप्ट के दो तीन चक्कर और काम की अधिकता, बस ब्लोग से दूर ही रहा.

वैसे बात ये भी है कि मैं कोई लेखक तो हूं नहीं, जो स्वयंस्फ़ूर्त ही कुछ लिख दूं. दिल में जो मेहसूस करता हूं वही कलम पर या कीबोर्ड पर उतर जाता है, और दिलीप के दिल से पोस्ट का सृजन हो जाता है.

मगर इस बार दिल तो किवाडों के अंदर ही बंद रहा , और दिमाग के खेल चलते रहे. मसलन इजिप्ट में कंपनी खोलना, प्रोजेक्ट का श्रीगणेश करना आदि आदि.

तो आज सोचा कि आज तो बस लिख ही दें, जो भी मन में आता है.

दर असल इन दिनों फ़िल्मी संगीत से जुडी कई हस्तियां याद आई , उनके जन्म दिन या पुण्यतिथी पर.

तलत साहब याद आये, उनके इन्दौर में हुए कार्यक्रम की एंकरिंग की थी तो उनसे हुई अंतरंगता, राज कपूर साहब से निजी मुलाकातें, फ़िल्म बॊबी के लिये दिये गये गाने की अनौपचारिक ऒडिशन, राहुल देव बर्मन से होटल ताजमहल के क्रिस्टल हॊल में फ़िल्म अपना देश के प्रीमीयर पार्टी पर राजेश खन्ना के साथ की गयी उनकी मस्ती... ,बचपन की इन यादों ने दिल पर दस्तक दी, और परदेश में मन को दिले सुकून दे गयी ये यादें.


राहुल देव बर्मन तो बडे ही अफ़लातून संगीतकार थे.मेहमूद नें सही ही फ़रमाया था. वे उन दिनों ही इतना फ़्युचरिस्टिक संगीत का, धुनों का सृजन करते थे .वे हमेशा नई नई परकशन्स वाद्यों पर, स्वरों के विभिन्न आयामों पर यूं प्रयोग किया करते थे कि मेहमूद ने आज से चालीस साल पहले कहा था, कि शायद पंचम नाम का तारा बॊलीवूड के संगीत के आकाश में ज़रा जल्दी ही उग गया है. ज़रा दस बीस साल ठहर जाओ, वह धूमकेतु की तरह आकाश पे छा जायेगा.

उनका कहना सच ही हुआ, उन्ही दिनों में वह सुरों के आकाश पे छा गया था, अपनी निराली मगर मधुर धुनों से. मगर आज चालीस साल बाद ज़रा गौर करें , कि पिछले दस पंद्रह सालों में जितने भी रिमिक्स बनें है, उनमें अधिकाष पंचम दा की धुनों पर ही हैं.Is not it?

उनकी प्रयोगधर्मिता के तो हमें कायल होना ही पडेगा.गाने के अंदर ही स्केल चेंज का फ़ंडा पहली बार आपने ही दिया. अलग अलग तरह के ताल वाद्य और ठेके उन्होने गानों में उपयोग किये, जैसे कि मादल इत्यादि. अभी पिछली बार के दुबई टूर में मैंने एक साईड रिथम का अरेबीयन वाद्य खरीदा था, जो मारकस और रेसो रेसो का ही युगल स्वरूप था, जो अरेबियन संगीत के तालवाद्यों में से एक है. यू ट्युब पर राहुलदेव की एक पुरानी रिकोर्डिन्ग के विडियो में वह वाद्य प्रयोग किया गया दिखा!!

मगर काश वे आज जिंदा होते, तो क्या आज की पीढी के संगीतकारों से कहीं उन्नीस बैठते? शायद हां... क्योंकि वे शायद मेलोडी के साथ कंप्रोमाईज़ नहीं कर पाते,जो अधिकतर नये संगीतकार कर रहें हैं. यूं नही कि आज की पीढी के ये सृजनकार गुणी या टेलेंटेड नहीं है, मगर समय की कमी, नयी पीढी की अल्प स्मृति या रिदमिक ताल की तात्कालिक श्रवणीयता के बहाने जो भी परोसा जा रहा है, वह मेलोडी तो नही है.( अपवादों को छोडकर)

चलो , आपको उन्ही का एक गीत सुनवातें हैं, जो सन १९६५ के आसपास रचा गया था, मेहमूद के ही फ़िल्म भूत बंगला के लिये, जिसमें पंचम दा का भी कॊमिक रोल था.


गीत है आओ ट्विस्ट करें, क्या खुला मौसम....


इस गीत को मना दा नें क्या खूबसूरत गाया है. क्या एनर्जी और सुरों का पावरयोगा है ये गीत!!! आपको बता दूं, फ़िल्म में इस गानें से एकदम पहले अमीन सायनी साहब नें तनुजा का गीत पेश किया था , (लताजी की मधुर आवाज़ में) जो मेलोडी, माधुर्य से भरे भारतीय संगीत शैली का था, और उसके एकदम बाद यह पाश्चात्य शैली का ट्विस्ट सोंग, बिल्कुल विपरीत जोनर का... ये सिर्फ़ पंचम दा ही कर सकते थे.


ये गाना मन्ना दा को समर्पित कार्यक्रम दिल का हाल सुने दिल वाला .. से लिया गया है, और इस गाने को मैने भी फ़िल्म उपकार के धीर गंभीर गीत कसमें वाद प्यार वफ़ा के एकदम बाद गाया था, और कोशिश की कि उसमें में से कुछ उर्जा, कुछ पावर को मैं भी अपने गले में डाल सकूं. (मन्नादा से उदयपुर में शो के दौरान निजी मुलाकात में मैने पूछा था कि आप तो क्लासिकल आधारित गानों के लिये जाने जाते हैं,मगर फ़ास्ट गानों में आपको कौनसा गीत पसंद है? तो उन्होने कहा कि ये गीत उनके दिल के करीब है.कुछ लडके और लडकीयां जो वहां मौजूद थी वे दंग रह गये जब बाद में मन्नादा नें
उतनी ही जोश, तडक भडक और नफ़ासत के साथ यह फ़ास्ट गीत गाया.)मैं भी ज़रा ज़्यादा ही झूम लिया था इस गाने में.....!!!!!!

संजय भाई नें सही कहा है अपने एंकरींग में, इस गाने की पृष्ठभूमी बनाते हुए, कि आजकल हमें नये फ़्युज़न के नाम पर जो भी सुनाया जा रहा है, यही काम पंचम दा नें बरसों पहले किया और मधुरता को बरकरार रखते हुए!!! और चाहे कुछ भी हो जाये, पुराना संगीत कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा.आप उनके बात से सेहमत ज़रूर होंगे.

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