Monday, March 30, 2009

आवाज़ की दुनिया - फ़िल्मी गीतों का सुरीला सफ़र

कभी कभी आप यूंही एक ऐसे जगह फ़ंस जाते हो, जहां आपको लगता है, कि

ये कहां आ गये हम ? यूंही साथ साथ चलते....

और कभी कभी अनजाने में आप उस जगह पहुंच जाते हैं जो आपके लिये एक स्वर्ग की अनूभूति देती है.


आज ही मुंबई से आया और अभी अभी देर शाम एक संगीत के विलक्षण कार्यक्रम को देख सुन आ रहा हूं.किसी मित्र नें याद किया और हम पहुंच गये संगीत की एक सुरीली मेहफ़िल में, जिसके सुरों की जादू से सन्मोहित होकर , घर लौटा हूं और पोस्ट लिखने बैठ गया.

आवाज़ की दुनिया ये फ़िल्मी गीतों का सुरीला सफ़र अशोक हांडे नें कुछ सालों पहले शुरु किया था.आप शायद जानते ही होंगे इस प्रोग्राम की थीम बडी ही अनूठी है.


प्रस्तुत प्रोग्राम की परिकल्पना जब अशोकभाई नें की थी तब अमूमन ऒर्केस्ट्रा के कार्यक्रम यूंही होते थे, जैसा कि आज भी हो रहा है, कि साजिन्दे स्टेज पर पीछे बैठे है,एक अनाऊंसर होता है जो कार्यक्रम का सूत्रधार होता है. जो फ़िल्मी गीतों के नाम और अन्य बातें दर्शकों को बताता है, एवं गायक गायिका फ़िल्मी गीतों को अपने पूर्ण क्षमता अनुसार गा कर हमारा मनोरंजन करते थे.इसमें कहीं कहीं एक मिमिक्री आर्टिस्ट भी होता था जो बीच में एक या दो बार आकर कलाकारों को और साथ ही में दर्शकों को भी रिलीफ़ देता था, और कार्यक्रम की मोनोटोनी बदलता था. कुछ शौकिन आयोजक उसमें नृत्य का भी समावेश कर देते थे, प्रेक्षकों की अभिरुची की खातिर.

उन दिनों की बातें थीं जब सिनेमा के गाने या तो फ़िल्म देखते हुए सुनने पडते थे या फ़िर रेडियो पर.श्रोता ये जानते हुए भी कि कोई भी गायक या गायिका कितना भी जतन कर ले , रफ़ी, मुकेश या लता आशा जैसा नहीं गा सकता, पूरे शिद्दत के साथ रुचि लेकर उन गानों के सुरों में खो जाता था.यह सब उस एम्बियेंस को मेनिफ़ेस्ट करने की सामूहिक कोशिश ही तो होती थी जिसने फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रमों को इतना पोप्युलर बनाया, कि आज भी आप हम इसके दीवाने है.

बाद में जब टीवी का उद्भव हुआ तो समीकरण बदलने लगे, और दृश्य श्राव्य माध्यमों का मिला जुला स्वरूप प्रस्तुत होने लगा, और रंगीन सपनों का मायाजाल बुनने लगा अलग अलग थीम को लेकर.

ऐसे में श्री अशोक हांडे नें सबसे पहले प्रेक्षकों की नब्ज़ को पकडा और शायद फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम के इतिहास में पहली बार एक ऐसे कार्यक्रम की संकल्पना की जो लीक से हटकर था.इस कार्यक्रम का नाम था आवाज़ की दुनिया.

इस कार्यक्रम का आगाज़ होता है पुराने गीतों से, जो आज भी हमें श्रवणीय , सुरीले और मनमोहक लगते है.साथ ही पीछे स्क्रीन पर उभरती है तसवीरें और परिदृश्य जो कहीं कहीं मूल फ़िल्म से तो कभी कभी अन्य फ़िल्मों के प्रभावी कोलाज़ से पेश किये गये है.स्वयं अशोक हांडे सूत्रधार की तरह अपनी साधी ,मीठी मगर प्रभावी वाणी की मदत से दर्शकों के दिलों पर कब्ज़ा कर लेते है, और हम सभी उनके साथ साथ उस सुरीले सफ़र पर निकल पडते है, जिसमें गायक और गायिकाओंकी पूरी मंडली पूरे अनुशासन के साथ रंगमंच के पात्रों की तरह विविध रंगों में रचे हुए नवरसों में पके स्वादिष्ट व्यंजन परोसने लगते है.यही क्या कुछ कम था कि किसी किसी गीत में नृत्य का भी एक शालीन तडका लगता था और साथ ही पृष्ठभूमी के अनुसार गायक गायिका भी उसी से बाबस्ता परिधान भी पहनते है, जिससे वातावरण निर्मिती में एकरूपता और जेन्युनिटी आ जाती है.पीछे की स्क्रीन पर ब्लॆक एण्ड व्हाईट तथा रंगीन दृश्यों के कोलाज़ साथ में हमें उस युग में त्वरित ट्रांसपोर्ट कर देते है.

साथ में इन फ़िल्मी गीतों की मेडली प्रस्तुत करते हुए उसके इतिहास से भी हम रू-ब-रू होते है, और करीब बीस साजिंदों की टोली हमें एक गीत से दूसरे गीत में ऐसे ले जाती हैं कि एक ऐसा सुरमई आलम तारी हो जाता है. हम सभी बच्चे हो जाते है, और अशोक हांडे के इस बाईस्कोप के विविधता भरे रंगों से होली खेलने लग जाते है.

स्वाभाविक है, कि फ़िल्मी गीतों का इतिहास जब बताया जा रहा हो तो उस दोगाने - मैं बन की चिडिया , मैं बन का पंछी, से, दिल जलता है तो जलने दे तक, आवाज़ दे कहां है से ओ गाडीवाले गाडी धीरे हांक रे तक, फ़िर ए मेरे वतन के लोगों से लेकर मेरे देश की धरती सोना उगले तक, और ना तो कांरवां की तलाश से लागा चुनरी में दाग तक और आज के परिप्र्येक्ष में टोप टेन के ये इश्क हाये , बैठे बिठाये , जन्नत दिखाये, नगाडा नगाडा, और गुज़ारीश तक गीत सुनाये.

इस पूरे कसावट से भरे , अच्छे समय प्रबंधन किये गये कार्यक्रम का सबसे केंद्रिय मूल तत्व जो समझ में आया कि फ़िल्मी गीतों द्वारा ही हम अपने अलग अलग क्षेत्रिय संस्कृति से परिचय पाते है. फ़िल्मों की ही वजह से आज हम भांगडा, गरबा, लावणी, भरतनाट्यम ,कुचिपुडी , आदि नृत्य शैलीयों से एक ही फ़िल्म के माध्यम से रूबरू होते आये है. राष्ट्रीय एकात्मकता का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है?

कुल मिला कर आवाज़ की दुनिया की ये प्रस्तुति मैंने पांच , छः बार देख चुका हूं , और साथ ही में अशोक जी नें इसी तरह की थीमों से तैयार किये अन्य कार्यक्रमों को मैं देख चुका हूं.जैसे- आज़ादी के पचास वर्ष, अमृतलता (लताजी पर केंद्रित), गाने सुहाने ,मधुरबाला (मधुबाला पर) और अन्य मराठी में भी . कल भी यहां उन्होने मधुरबाला की सफ़ल प्रस्तुती दी थी, मगर दुर्भाग्य वश मैं मुम्बई में होने की वजह से देख नहीं पाया.

अतः अगर आप को कभी मौका मिले तो ये कार्यक्रम देखना ना भूलें.

Sunday, March 15, 2009

गुरु दत्त , एक अशांत अधूरा कलाकार !

 


महान फिल्मकार गुरुदत्त की पुण्यतिथी पर एक विशेष प्रस्तुति प्रसिद्ध संगीत को समर्पित हिन्दयुग्म के ब्लोग आवाज़ में पिछले अक्टूबर में मैने एक लेख लिखा था . हमारे काफ़ी संगीत प्रेमी मित्रों से वह छूट गया था, अतः वे कब से आग्रह कर रहे हैं कि वह पोस्ट ’ दिलीप के दिल से ’ पर भी जारी की जाय. उनसे अनुमती लेकर यहां वह पोस्ट जस की तस पेश कर रहा हूं .


कुछ दिनों पहले मैंने एक सूक्ति कहीं पढ़ी थी -
To make simple thing complicated is commonplace.
But ,to make complicated things awesomely simple is Creativity.


गुरुदत्त की अज़ीम शख्सियत पर ये विचार शत प्रतिशत खरे उतरते है. वे महान कलाकार थे , Creative Genre के प्रायः लुप्तप्राय प्रजाति, जिनके सृजनात्मक और कलात्मक फिल्मों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा.

४४ साल पहले १० अक्टुबर सन १९६४ को, उन्होंने अपने इस कलाजीवन से तौबा कर ली. रात के १ बजे के आसपास उनसे विदा लेने वाले आख़िरी शख्स थे अबरार अल्वी. उनके निधन से हमें उन कालजयी फिल्मों से मरहूम रहना पडा, जो उनके Signature Fims कही जाती है.

वसंथ कुमार शिवशंकर पदुकोने के नाम से इस दुनिया में आँख खोलने वाले इस महान कलाकार नें एक से बढ़कर एक ऐसी फिल्मों से हमारा त,अर्रूफ़ करवाया जो विश्वस्तरीय Masterpiece थीं. गुरुदत्त नें गीत संगीत की चासनी में डूबी, यथार्थ से एकदम नज़दीक खट्टी मीठी कहानियों की पर बनी फ़िल्मों से, उन जीवंत सीधे सच्चे संवेदनशील चरित्रों से हमें मिलवाया,जिनसे हम आम ज़िन्दगी में रू-ब-रू होते है. परिणाम स्वरूप हम मंत्रमुग्ध हो, उनके बनाए फिल्मी मायाजाल में डूबते उबरते रहे.


गुरुदत्त अपने आपमें एक संपूर्ण कलाकार बनने की पूरी पात्रता रखते थे. वे विश्व स्तरीय फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे. साथ ही में उनकी साहित्यिक रूचि और संगीत की समझ की झलक हमें उनके सभी फिल्मों में दिखती ही है. वे एक अच्छे नर्तक भी थे, क्योंकि उन्होंने अपने फिल्मी जीवन का आगाज़ किया था प्रभात फिल्म्स में एक कोरिओग्राफर की हैसियत से. अभिनय कभी उनकी पहली पसंद नही रही, मगर उनके सरल, संवेदनशील और नैसर्गिक अभिनय का लोहा सभी मानते थे .(उन्होने प्यासा के लिये पहले दिलीप कुमार का चयन किया था).वे एक रचनात्मक लेखक भी थे, और उन्होंने पहले पहले Illustrated Weekly of India में कहानियां भी लिखी थी.


संक्षेप में , वे एक संपूर्ण कलाकार होने की राह पर चले ज़रूर थे. मगर, उनके व्यक्तित्व में एक अधूरापन रहा हर समय, एक अशांतता रही हर पल, जिसने उन्हें एक अशांत, अधूरे कलाकार और एक भावुक प्रेमी के रूप में, दुनिया नें जाना, पहचाना.

देव साहब जो उनके प्रभात फिल्म कन्पनी से साथी थे, जिन्होंने नवकेतन के बैनर तले अपनी फिल्म 'बाजी' के निर्देशन का भार गुरुदत्त पर डाला था, नें अभी अभी कहीं यह माना था की गुरुदत्त ही उनके सच्चे मित्र थे. जितने भावुक इंसान वे थे, उसकी वजह से हमें इतनी आला दर्जे की फिल्मों की सौगात मिली, मगर उनकी मौत का भी कारण वही भावुकता ही बनी .


उनकी व्यक्तिगत जीवन पर हम अगर नज़र डालें तो हम रू-बी-रू होंगे एक त्रिकोण से जिसके अहाते में गुरुदत्त की भावनात्मक ज़िंदगी परवान चढी.


ये त्रिकोण के बिन्दु थे गीता दत्त , वहीदा रहमान और लेखक अबरार अल्वी , जिन्होंने गुरुदत्त के जीवन में महत्वपूर्ण भुमिका निभाई.
गीता दत्त रॉय, पहले प्रेमिका, बाद में पत्नी.सुख और दुःख की साथी और प्रणेता ..


वहीदा रहमान जिसके बगैर गुरुदत्त का वजूद अधूरा है, जैसे नर्गिस के बिना राज कपूर का. जो उनके Creative Menifestation का ज़रिया, या केन्द्र बिन्दु बनीं.


और फ़िर अबरार अल्वी, उतने ही प्रतिभाशाली मगर गुमनाम से लेखक, जिन्होंने गुरुदत्त के "आरपार" से लेकर "बहारें फ़िर भी आयेंगी" तक की लगभग हर फ़िल्म्स में कहानी, या पटकथा का योगदान दिया.

आज भी विश्व सिनेमा का इतिहास अधूरा है गुरुदत्त के ज़िक्र के बगैर. पूरे जहाँ में लगभग हर फ़िल्म्स संस्थान में ,जहाँ सिनेमा के तकनीकी पहलू सिखाये जाते है, गुरुदत्त की तीन क्लासिक फिल्मों को टेक्स्ट बुक का दर्जा हासिल होता है. वे है " प्यासा ", " कागज़ के फ़ूल ", और "साहिब , बीबी और गुलाम ".
इनके बारे में विस्तार से फ़िर कभी..


गुरुदत्त नें अपने फिल्मी कैरियर में कई नए तकनीकी प्रयोग भी किए.
जैसे, फ़िल्म बाज़ी में दो नए प्रयोग किए-


1, १०० एमएम के लेंस का क्लोज़ अप के लिए इस्तेमाल पहली बार किया - करीब १४ बार. इससे पहले कैमरा इतने पास कभी नही आया, कि उस दिनों कलाकारों को बड़ी असहजता के अनुभव से गुज़रना पडा. तब से उस स्टाईल का नाम ही गुरुदत्त शॉट पड़ गया है.


२. किसी भी फ़िल्म्स में पहली बार गानों का उपयोग कहानी कोई आगे बढ़ाने के लिए किया गया.


वैसे ही फ़िल्म ' काग़ज़ के फूल ' हिन्दुस्तान में सिनेमा स्कोप में बनी पहली फ़िल्म थी. दरअसल , इस फ़िल्म के लिए गुरुदत्त कुछ अनोखा ,कुछ हटके करना चाहते थे , जो आज तक भारतीय फ़िल्म के इतिहास में कभी नही हुआ.


संयोग से तभी एक हालीवुड की फ़िल्म कंपनी 20th Century Fox नें उन दिनों भारत में किसी सिनेमास्कोप में बनने वाली फ़िल्म की शूटिंग ख़त्म की थी और उसके स्पेशल लेंस बंबई में उनके ऑफिस में छूट गए थे. जब गुरुदत्त को इसका पता चला तो वे अपने सिनेमाटोग्राफर वी के मूर्ति को लेकर तुंरत वहाँ गए, लेंस लेकर कुछ प्रयोग किये , रशेस देखे और फ़िर फ़िल्म के लिए इस फार्मेट का उपयोग किया.
चलिए अब हम इस फ़िल्म के एक गाने का ज़िक्र भी कर लेते है -


वक्त नें किया क्या हसीं सितम .. तुम रहे ना तुम , हम रहे ना हम...


गीता दत्त की हसीं आवाज़ में गाये, और फ़िल्म में स्टूडियो के पृष्ठभूमि में फिल्माए गए इस गीत में भी एक ऐसा प्रयोग किया गया, जो बाद में विश्वविख्यात हुआ अपने बेहतरीन लाइटिंग की खूबसूरत संयोजन की वजह से.


आप ख़ुद ही देख कर लुत्फ़ उठाएं .


गुरुदत्त इस क्लाईमेक्स की सीन में कुछ अलग नाटकीयता और रील लाईफ़ और रियल लाईफ का विरोधाभास प्रकाश व्यवस्था की माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे. ब्लेक एंड व्हाईट रंगों से नायक और नायिका की मन की मोनोटोनी ,रिक्तता , यश और वैभव की क्षणभंगुरता के अहसास को बड़े जुदा अंदाज़ में फिल्माना चाहते थे.


जिस दिन उन्होंने नटराज स्टूडियो में शूटिंग शुरू की, तो उनके फोटोग्राफर वी के मूर्ति नें उन्हें वेंटिलेटर से छन कर आती धूप की एक तेज़ किरण दिखाई, तो गुरुदत्त बेहद रोमांचित हो उठे और उनने इस इफेक्ट को वापरने का मन बना लिया. वे मूर्ति को बोले,' मैं शूटिंग के लिए भी सन लाईट ही वापरना चाहता हूँ क्योंकि वह प्रभाव की मै कल्पना कर रहा हूँ वह बड़ी आर्क लाईट से अथवा कैमरे की अपर्चर को सेट करके नहीं आयेगा. '

तो फ़िर दो बड़े बड़े आईने स्टूडियो के बाहर रखे गये, जिनको बडी़ मेहनत से सेट करके वह प्रसिद्ध सीन शूट किया गया जिसमें गुरु दत्त और वहीदा के बीच में वह तेज रोशनी का बीम आता है. साथ में चेहरे के क्लोज़ अप में अनोखे फेंटम इफेक्ट से उत्पन्न हुए एम्बियेन्स से हम दर्शक ठगे से रह जाते है एवं उस काल में, उस वातावरण निर्मिती से उत्पन्न करुणा के एहसास में विलीन हो जाते है, एकाकार हो जाते है.
और बचता है .., गुरुदत्त के प्रति एक दार्शनिक सोच...,मात्र एक विचार , एक स्वर...


वक्त नें किया क्या हसीं सितम...



अगली कडी में पहले किये गये वादे के अनुसार, एक पोस्ट तैय्यार कर रहा हूं, जिस में गुरुदत्त, रफ़ी जी, हेमंत दा, एस डी बरमन , और एक अज़ीम शायर पर एक संस्मरण.. अगले हफ़्ते...
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