ये कहां आ गये हम ? यूंही साथ साथ चलते....
और कभी कभी अनजाने में आप उस जगह पहुंच जाते हैं जो आपके लिये एक स्वर्ग की अनूभूति देती है.

आज ही मुंबई से आया और अभी अभी देर शाम एक संगीत के विलक्षण कार्यक्रम को देख सुन आ रहा हूं.किसी मित्र नें याद किया और हम पहुंच गये संगीत की एक सुरीली मेहफ़िल में, जिसके सुरों की जादू से सन्मोहित होकर , घर लौटा हूं और पोस्ट लिखने बैठ गया.
आवाज़ की दुनिया ये फ़िल्मी गीतों का सुरीला सफ़र अशोक हांडे नें कुछ सालों पहले शुरु किया था.आप शायद जानते ही होंगे इस प्रोग्राम की थीम बडी ही अनूठी है.

प्रस्तुत प्रोग्राम की परिकल्पना जब अशोकभाई नें की थी तब अमूमन ऒर्केस्ट्रा के कार्यक्रम यूंही होते थे, जैसा कि आज भी हो रहा है, कि साजिन्दे स्टेज पर पीछे बैठे है,एक अनाऊंसर होता है जो कार्यक्रम का सूत्रधार होता है. जो फ़िल्मी गीतों के नाम और अन्य बातें दर्शकों को बताता है, एवं गायक गायिका फ़िल्मी गीतों को अपने पूर्ण क्षमता अनुसार गा कर हमारा मनोरंजन करते थे.इसमें कहीं कहीं एक मिमिक्री आर्टिस्ट भी होता था जो बीच में एक या दो बार आकर कलाकारों को और साथ ही में दर्शकों को भी रिलीफ़ देता था, और कार्यक्रम की मोनोटोनी बदलता था. कुछ शौकिन आयोजक उसमें नृत्य का भी समावेश कर देते थे, प्रेक्षकों की अभिरुची की खातिर.
उन दिनों की बातें थीं जब सिनेमा के गाने या तो फ़िल्म देखते हुए सुनने पडते थे या फ़िर रेडियो पर.श्रोता ये जानते हुए भी कि कोई भी गायक या गायिका कितना भी जतन कर ले , रफ़ी, मुकेश या लता आशा जैसा नहीं गा सकता, पूरे शिद्दत के साथ रुचि लेकर उन गानों के सुरों में खो जाता था.यह सब उस एम्बियेंस को मेनिफ़ेस्ट करने की सामूहिक कोशिश ही तो होती थी जिसने फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रमों को इतना पोप्युलर बनाया, कि आज भी आप हम इसके दीवाने है.
बाद में जब टीवी का उद्भव हुआ तो समीकरण बदलने लगे, और दृश्य श्राव्य माध्यमों का मिला जुला स्वरूप प्रस्तुत होने लगा, और रंगीन सपनों का मायाजाल बुनने लगा अलग अलग थीम को लेकर.
ऐसे में श्री अशोक हांडे नें सबसे पहले प्रेक्षकों की नब्ज़ को पकडा और शायद फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम के इतिहास में पहली बार एक ऐसे कार्यक्रम की संकल्पना की जो लीक से हटकर था.इस कार्यक्रम का नाम था आवाज़ की दुनिया.
इस कार्यक्रम का आगाज़ होता है पुराने गीतों से, जो आज भी हमें श्रवणीय , सुरीले और मनमोहक लगते है.साथ ही पीछे स्क्रीन पर उभरती है तसवीरें और परिदृश्य जो कहीं कहीं मूल फ़िल्म से तो कभी कभी अन्य फ़िल्मों के प्रभावी कोलाज़ से पेश किये गये है.स्वयं अशोक हांडे सूत्रधार की तरह अपनी साधी ,मीठी मगर प्रभावी वाणी की मदत से दर्शकों के दिलों पर कब्ज़ा कर लेते है, और हम सभी उनके साथ साथ उस सुरीले सफ़र पर निकल पडते है, जिसमें गायक और गायिकाओंकी पूरी मंडली पूरे अनुशासन के साथ रंगमंच के पात्रों की तरह विविध रंगों में रचे हुए नवरसों में पके स्वादिष्ट व्यंजन परोसने लगते है.यही क्या कुछ कम था कि किसी किसी गीत में नृत्य का भी एक शालीन तडका लगता था और साथ ही पृष्ठभूमी के अनुसार गायक गायिका भी उसी से बाबस्ता परिधान भी पहनते है, जिससे वातावरण निर्मिती में एकरूपता और जेन्युनिटी आ जाती है.पीछे की स्क्रीन पर ब्लॆक एण्ड व्हाईट तथा रंगीन दृश्यों के कोलाज़ साथ में हमें उस युग में त्वरित ट्रांसपोर्ट कर देते है.
साथ में इन फ़िल्मी गीतों की मेडली प्रस्तुत करते हुए उसके इतिहास से भी हम रू-ब-रू होते है, और करीब बीस साजिंदों की टोली हमें एक गीत से दूसरे गीत में ऐसे ले जाती हैं कि एक ऐसा सुरमई आलम तारी हो जाता है. हम सभी बच्चे हो जाते है, और अशोक हांडे के इस बाईस्कोप के विविधता भरे रंगों से होली खेलने लग जाते है.

स्वाभाविक है, कि फ़िल्मी गीतों का इतिहास जब बताया जा रहा हो तो उस दोगाने - मैं बन की चिडिया , मैं बन का पंछी, से, दिल जलता है तो जलने दे तक, आवाज़ दे कहां है से ओ गाडीवाले गाडी धीरे हांक रे तक, फ़िर ए मेरे वतन के लोगों से लेकर मेरे देश की धरती सोना उगले तक, और ना तो कांरवां की तलाश से लागा चुनरी में दाग तक और आज के परिप्र्येक्ष में टोप टेन के ये इश्क हाये , बैठे बिठाये , जन्नत दिखाये, नगाडा नगाडा, और गुज़ारीश तक गीत सुनाये.
इस पूरे कसावट से भरे , अच्छे समय प्रबंधन किये गये कार्यक्रम का सबसे केंद्रिय मूल तत्व जो समझ में आया कि फ़िल्मी गीतों द्वारा ही हम अपने अलग अलग क्षेत्रिय संस्कृति से परिचय पाते है. फ़िल्मों की ही वजह से आज हम भांगडा, गरबा, लावणी, भरतनाट्यम ,कुचिपुडी , आदि नृत्य शैलीयों से एक ही फ़िल्म के माध्यम से रूबरू होते आये है. राष्ट्रीय एकात्मकता का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है?
कुल मिला कर आवाज़ की दुनिया की ये प्रस्तुति मैंने पांच , छः बार देख चुका हूं , और साथ ही में अशोक जी नें इसी तरह की थीमों से तैयार किये अन्य कार्यक्रमों को मैं देख चुका हूं.जैसे- आज़ादी के पचास वर्ष, अमृतलता (लताजी पर केंद्रित), गाने सुहाने ,मधुरबाला (मधुबाला पर) और अन्य मराठी में भी . कल भी यहां उन्होने मधुरबाला की सफ़ल प्रस्तुती दी थी, मगर दुर्भाग्य वश मैं मुम्बई में होने की वजह से देख नहीं पाया.
अतः अगर आप को कभी मौका मिले तो ये कार्यक्रम देखना ना भूलें.