जब ये नाम मुझे बताया गया , तो मैं पहले समझ ही नही सका , कि ये उस अज़ीम और मकबूल शख्सियत का पूरा नाम है, जिसे आप और हम सभी फ़िल्मी संगीत की एक महान सफ़लतम जोडी शंकर - जयकिशन के एक स्तंभ के नाम से जानते है.जिसने चालीस के दशक के अंत में धूमकेतु की तरह हिंदी सिनेमा के संगीत के आकाश में विस्फ़ोट के साथ उदय किया और बाद में २५ वर्ष से भी अधिक काल में मधुर मेलोडियस गीतों से हम सभी संगीत प्रेमीयों को नवाज़ा.
अभी उनकी बरसी (२६ अप्रिल )को उन्हे हम से बिछडे बाईस साल हो गये.
महान शोमॆन राज कपूर की सन १९४८ में बनी फ़िल्म बरसात से आगाज़ करने वाली इस संगीतकार जोडी नें एक के बाद एक दिलकश ,सुरीले और श्रवणीय गीतों की झडी लगा दी और हमारा मन मयुर नाच उठा इस झम झम बारीश की फ़ुआरों के अपने मानस पटल पर एहसास कर. एक से बढ कर एक गीत उन्होने पेश किये की वे पचास के दशक के श्रेष्ठतम संगीत महर्षियों की फ़ेरहिस्त के शीर्ष पर पहुंच गये.सन १९७१ में जयकिशन के निधन से इस जोडी का करीश्माई वजूद बिखर गया.
शंकर मूलतः मध्य प्रदेश के थे, और बाद में पंजाब से चलकर हैद्राबाद में बस गये थे, जो मुम्बई की फ़िल्म नगरी में जब आये तो उनसे मुलाकात हुई जयकिशन डाह्याभाई पांचाल से जिन्होने कारपेंटरी के अपने पुश्तैनी व्यवसाय को छोड कर बलसाड के बांसडा गांव से बंबई नगरीया की राह पकडी थी.पृथ्वी थियेटर के नाटकों में पार्श्व संगीत के ऒर्केस्ट्रा में वे दो्नो पहली बार मिले, और दोस्ती परवान चढी. शंकर तबला और ढोलक बजाते थे , और जयकिशन हारमोनियम!!
कुछ दिन हुस्नलाल भगतराम और राम गांगुली के साथ बतौर असिस्टेंट काम करने के बाद वे राज कपूर की नज़र में जो चढे, आज तक हमारी जेहन में गहरे जा कर पैठ गये है. याद है जिया बेकरार है, और बरसात में हम से मिले तुम...
दरसल पहली फ़िल्म आग की तरह दूसरी फ़िल्म बरसात के लिये भी राज नें राम गांगुली को बतौर संगीतकार अनुबंधित किया था और एक गाने की रिकोर्डिंग तक कर ली थी.उन्हे ये फ़िल्म कैसे मिली उसका एक रोचक वृत्तांत है, जो शायद आपको मालूम ही होगा.
उन दिनों एक ही गाने की दो रिकोर्डिंग हुआ करती थी. एक Original Soundtrack के लिये और दूसरी ७८ rpm की रिकोर्ड के लिये जिसमें अमूमन दो ही अंतरा ही कवर हो पाते थे.पहली रिकोर्डिंग के दूसरी के लिये राम गांगुली एच एम व्ही के स्टुडियो पर आये ही नही और शंकर को भेज दिया. राज कपूर नें फ़िर भी उनकी राह देखी और और गायिका लता मंगेशकर को रुक जाने को कहा. इसी बीच एच एम व्ही के ही दूसरे स्टुडियो में भी रिकोर्डिंग चल रही थी, तो लताजी समय बिताने जब वहां पहुंची तो उन्हे आश्चर्य का जोरदार धक्का लगा जब उन्होने पाया कि राम गांगुली वहां किसी दूसरी फ़िल्म का गीत रिकोर्ड करवा रहे थे, और उस गीत की धुन भी इस गाने की धुन से मिलती जुलती थी. लता जी को स्वाभाविक है कि बडी ठेस पहुंची और उन्होने राज जी से इस बात की शिकायत कर दी.इस बात से राज कपूर इतने खफ़ा हो गये कि उन्होने आनन फ़ानन में राम गांगुली को बरसात फ़िल्म से अलग कर दिया और शंकर जयकिशन की नई जोडी को आज़माने का निश्चय कर लिया. इसके बाद जो हुआ वह तो इतिहास बन गया. इस फ़िल्म के सभी गाने प्रसिद्ध हुए जो कि उन दिनों एक रिकोर्ड ही हुआ.
बरसात में इस जोडी नें सिर्फ़ लता जी से ही सभी गाने गवाये. कुल दस गानों में सिर्फ़ एक गीत रफ़ी जी नें गाया (मैं ज़िंदगी में हर दम रोता ही रहा हूं)और बाकी ८ सोलो और एक मुकेशजी के साथ ड्युएट- पतली कमर है... याने नर्गिस, पहाडी लडकी विमला के लिये और नवाब बेगम के लिये भी.
नवाब बेगम? जिसे हम सभी निम्मी के नाम से जानते है!!!
इसी फ़िल्म से हमसे रू ब रू हुए महान गीतकार शैलेन्द्र , जिन्होने आग के समय राज कपूर को लौटा दिया था. इसी समय हसरत जयपुरी नें भी आकर ये प्रसिद्ध पंचक बनाया.राज,शंकर,जयकिशन, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी ..
इस पंचक के साथ दो और सुर ऋषियों ने(लता और मुकेश) आर के बेनर के लिये अजर अमर कालातीत गाने देकर सप्तर्षि का ये समूह स्वयम अजरमर हो गया.
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हम सभी शंकर की मेलोडी पर जबरदस्त पकड के बारे में तो जानते ही है, मगर एक और किस्सा है, जिससे हमें उनके एक और स्वरूप के दर्शन होते हैं.
एक बार शंकरजी प्रसिद्ध गज़ल ठुमरी गायिका शोभा गुर्टु से एक गीत गवा रहे थे किसी फ़िल्म के लिये . म्युज़िक रूम में रिहल्सल कराते हुए जब उन्होने गीत की धुन समझाई तो शोभा जी नें उसे अपने खास अंदाज़ से गाया.हर गायक का अपना अपना खास ढंग होता है, जिससे वह जाना जाता है. मगर संगीतकार ही है जो उसे अपने ढंग से गवाना चाहता है.अभी कल ही झी मराठी के एक रीयलिटी शो में हृदयनाथ मंगेशकर नें क्या खूब कहा- हर संगीतकार में एक हुनर , एक क्रियेटिव्ह जोनर होता है. यही हुनर सृजन कराता है उससे उसकी अद्भुत सुरीली रचना की, जिसे एक गायक अपने ढंग से पेश करता है. मगर इसका अर्थ यह नही कि गायक का भी अपना कोई हुनर नही, क्रियेटिव्ह जोनर नहीं होता. वह संगीतकार से भी आगे जाकर उस रचना में सुगंध भरता है, विविध रंगों से श्रवणीय बनाता है. लताजी ही एक मात्र गायिका थी जो किसी भी संगीतकार से आगे जा कर गीत में चार चांद लगा देती थी. मगर हृदयनाथ नें उसे मात्र २० % मार्क्स दिये, बाकी ८०% संगीतकार को दिये.
तो प्रस्तुत गीत में दोनों के अंदाज़ में एकरूपता नही आ पा रही थी शंकर जी के मनमाफ़िक.
बस एक मोड पर यूं हुआ कि शंकर जी ने शोभाजी को एक जगह मुरकी लेने को कहा, मगर किसे भी तरह उनसे वह मुरकी गले से नही उतरी.अंत में फ़ेस सेविंग के लिये शोभा जी नें कहा-शंकरजी, ये मुरकी तो गले में से निकलना संभव ही नही है, वरना मैं तो गा ही देती.
शंकर जी हंसे, हारमोनियम पकडा ,आंखें बंद की और त्वरित ही खुद गाकर वह मुरकी पेश की !!
मान गये शंकर जी... शोभा जी के हाथ खुद ब खुद जुड गये उस महान संगीतकार के वंदन में जो स्वयम एक महान गायक भी था!!
बरसात से जो सुरों का सिलसिला शुरु हुआ वह थमा साथी जयकिशन की मृत्यु पर, सन १९७१ में. आपमें से कईयों को मालूम ही होगा एक अजीब संयोग उस दिन का जिस दिन मेरिन ड्राईव्ह के गोविंद महल से जयकिशन जी की अंतिम यात्रा निकली थी तो हज़ारो गमगीन आंखों ने उन्हे श्रद्धांजली दी थी . भीड थी की एक समुंदर की मानिंद. संयोग से तभी ब्रेबोर्न स्टेडियम पर भी एक अलग भीड अजित वाडेकर की क्रिकेट टीम का जल्लोश से स्वागत कर रही थी. मराठी दैनिक मार्मिक में बालासहेब ठाकरे नें एक बढिया कार्टून अब तक नज़र में है..
मुम्बई की एक आंख में आंसू और एक आंख में हंसी ........
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मगर जैसा कि मैने उपर लिखा है.. कि इस मामले में शंकर वाकी में अभागे रहे. २६ अप्रिल १९८७ को जब शाम को शंकर नें अंतिम सांसे ली तो उन्हे रात ही में अंतिम संस्कार के लिये ले जाया गया, बिल्कुल चार पांच लोगों की उपस्थिती में..
उसी समय देर दूरदर्शन को रात दिये गये अपने इंटरव्यु मेम राज कपूर ने इस अभागे सुर महर्षी के लिये क्या खूब कहा-
रोये तो यारों के कंधों पर...
जाये तो यारों के कंधों पर ...
(साभार - लोकसत्ता)
(अगली कडी में शंकर जयकिशन पर कुछ और..साथ में मन्ना दा पर , उनके जन्म दिन पर..)