Friday, August 28, 2009

अपने अपने ग़म के फ़सानों का तसव्वूर - मुकेश के गीत ( पुण्य तिथी पर विशेष)


कल स्व. मुकेश जी की पुण्य तिथी थी.

कल मैं पोस्ट नहीं लिख पाया.या यूं कहूं , मैंने नही लिखी. क्योंकि ऐसे स्मृति दिनों में मैं अक्सर अपने ड्राईंग रूम में अपने आपको बंद कर उस महान शख्सि़यत के गीत गाकर उसे अपने तहे दिल से शिराजे अकी़दत पेश करता हूं. रफ़ी साहब हों , या हेमंत दा , या फ़िर मेरे दिल के करीब और हर दिल अज़ीज़ मुकेश जी .....

इन दिनों मैं और भी पेशोपेश में हूं. एक मन कहता है, कि मुकेश जी पर कुछ लिखूं. तो साथ ही मन ये भी करता है, कि उनपर खुद के गाये हुए गीत भी सुनवाऊं. मगर ये दिल संशय में पड़ जाता है, कि क्या कोई सुन भी रहा है? अधिकतर लोग सुनानें में लगे हुए हैं.ये भी समझ में नहीं आता कि बडे बडे नाम जो संगीतपर ब्लोग लिखते हैं,(यहां अनुपस्थित है) उन्हे वो क्या पसंद हैं जो वे भी इस तरफ़ का रुख करेंगे, और टिप्पणी से नवाज़ेंगे?

मगर फ़िर कई संगीत प्रेमी और कानसेन ये भी लिखते हैं कि उनकी तमन्ना थी कि मैं अपना भी कोई गीत सुनवाता.

आखिर मैं इस नतीज़े पर पहुंचा कि मैं कुछ लिखूं भी, कुछ मूल गीत भी सुनवाऊं, और अपने भी गीत सुनाऊं, ताकि जिसकी जैसी इच्छा रहे वह मिले. हम सभी इस इच्छा से ही तो जी रहें है, कि संगीत या साहित्य कि सेवा हो जाये तो दिली सुकूं हासिल हो, बस और क्या चाहिये? मेरे अंदर के कलाकार को तो हर जगह कई सालों से शोहरत और लाड प्यार मिला ही है लाईव शो कर के, जब भी मेरे भीतर का इंजिनीयर या मॆनेजर उसे इजाज़त देता है.(आजकल देता ही नहीं)

मगर ये क्या हुआ कि आप सभी के संपर्क में आया और एक निराली दुनिया का बाशिंदा हो गया मैं, जैसे मुकेश जी नें कहीं गाया ही है ना..

फ़रीश्तों की नगरी में मैं आ गया हूं,
ये रानाईयां, देख चकरा गया हूं...

तो अब आपके प्यार और लाड दुलार की ही तो दरकार है.

तो चलें , भावनाओं के इस भीगे मौसम में कल एक गीत रह रह कर याद आया, जो लबों पर आ ही गया...सर्दी और बुखार के चलते हुए, आवाज़ भी कुछ ज़्यादा ही नासिका मय हो गयी थी.


मुकेश जी के गले के टिम्बर का जलवा अलहैदा ही है, बाकी सभी गायकों से. राजहंस से भी शुभ्र और पवित्र चरित्र के मालिक, स्फ़टिक से भी स्वच्छ हृदय के भीतर अंतर्मन में जब संवेदनायें और ज़ज़बात मेनिफ़ेस्ट होते हैं सप्त सुरोंके के आदित्य रथ पर सवार,तो निकलता है भावनाओं का , वेदनाओं का वह सैलाब, जिसमें हम आप और पूरी कायनात बह जाती है, खो जाती है. और हम सभी अपने आप को मिटा देतें हैं, बिछ जाते हैं उस रुहानी आवाज़ के वजूद पर, और क्षितिज पर रह जाती है शाम के धुंधलके की कुछ लाल पीली और कृष्ण रेखायें,जिनमें हम अपने अपने नवरस खोजकर दिली सुकूं की तलाश पूरी करते हैं.

मुकेश जी के दर्द भरे गीत सुनना , याने गोया खपली पडे़ ज़ख्म को चाह कर फ़िर से खुरचना ,तब तक की भिलभिला कर रक्त ना बहने लगे और फ़िर से ताज़ा हो जाये वही ज़ख्म जो हम सालों से अपने दिल की गहराई में छुपा का संजोये फ़िरते हैं, जो हमें कभी अपनों ने दिये थे, जिन्हे स्वर दे देता है मुकेश की किसी भी गानें का बहाना. अपने अपने तईं हम मुकेश के उस गीत के ज़रीये खुद उस गीत के भावों को जी लेते हैं, उस फ़िल्म के नायक में परकाया प्रवेश कर जाते हैं,और अपने अपने ग़म के फ़सानों का तसव्वूर कर खुश हो लेते हैं.


सारंगा तेरी याद में,
नैन हुए बेचैन, ओ ss,
मधुर तुम्हारे मिलन बिना , दिन कटते नहीं रैन....

वो अंबुआ का झूलना, वो पीपल की छांव,
घूंघट में जब चांद था, मेहंदी लगी थी पांव,
आज उजड के रह गया, वो सपनों का गांव....

संग तुम्हारे दो घडी़ , बीत गये दो पल,
जल भर के मेरे नैन में, आज हुए ओझल,
सुख ले के दुख दे गयी, दो अंखियां चंचल....

सारंगा तेरी याद में.....
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कुछ दिनों पहले फ़िल्म रजनी गंधा का एक गीत रिकोर्ड किया था,

कई बार यूं ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है...
मन दौडने लगता है..

गाकर उसे अल्पनाजी को भेज दिया था, कि वे उसे विडियो में डाल दें तो मेहरबानी होगी.

उन्होनें उसे एक बढिया चलचित्र में तब्दील किया , और साथ ही अर्ज़ भी किया कि डॊ अनुराग जी की फ़रमाईश है इस गीत के लिये. तो आज वह मौका आ ही गया. तो ये गीत समर्पित है धन्यवाद के साथ अल्पनाजी को, और अनुराग जी को, (स्मार्ट इंडियन को भी), और बाकी सभी दिवानों को जो मुकेशजी को चाह्ते हैं, और मेरे पीछे दंडा लेकर पडेंगें, कि पहले ठीक से गाओ !!! हा! हा! हा!

तो मिच्छामि दुक्कडम....

कई बार यूं ही देखा है....

Friday, August 21, 2009

रफ़ी साहब और किशोरदा - प्यार का मौसम....





जैसे ये जो सावन का महिना चल रहा था, उसमें पवन के सोर करने के अलावा अन्य विशिष्ट रेखांकित करने जैसी बात ये है कि इस अगस्त में कई त्योहारों नें हमारे धार्मिक परिवेश में ,हमारी दिनचर्या को भक्तिरस और उल्ल्हास के रौनक भरे क्ष्णों से नवाज़ा है.जैसे रक्षा बंधन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी , और राष्ट्रिय पर्व स्वाधिनता दिवस आदि.

मगर उसी प्रकार , ये महिना हमारे फ़िल्मी संगीत की सुरीली दुनिया में भी अहम स्थान रखता है. इसकी बानगी तो जाते जाते ३१ जुलाई ही दे गया जब कि हमारे हरदिल अज़ीज़ मोहम्मद रफ़ी जिअसे फ़नकार को हमसे जुदा किया, जब सावन के बादल भी वर्षा के बूंदों की जगह खून के आंसू रोया होगा. वैसे ही २७ अगस्त भी पास ही आने वाला है, जब हमारे लाडले रूहानी गायक मुकेश भी हमसे हमेशा के लिये रुख्सत हो गये.कल २१ अगस्त के मनहूस सोमवार को २००६ में उनकी सुरमई शहनाई हमेशा के लिये खामोश हो गयी थी.

हां, ये ज़रूर हुआ कि हरफ़नमौला कलाकार गायक किशोर कुमार को हमे ४ अगस्त को उनके जन्म दिन पर भी याद कर रंजो गम के इस मेले में कुछ रौनक लगाई.अभी अभी गुलज़ार जी नें भी अपने जन्मदिन पर अपनी बगिया के फ़ूलों से बहार खिलाई थी.

इसलिये आप पायेंगे, कि राष्ट्रिय पर्व की तरह हम सभी फ़िल्मी गीतों के शौकीन इन कलाकारों को इन दिनों शिद्दत से याद करते है, उन्हे अपनी भावनांजली पेश करते है, और फ़िर एक बार उनसे मुहब्बत की लौ को टिमटिमाये रखते हैं.

३१ जुलाई के आस पास हर जगह रफ़ी साहब को याद किया गया, और ४ अगस्त के आपपास किशोरदा को. एक कार्यक्रम में मैने ज़रूर शिरकत की थी , मगर बतौर गायक के नहीं, मगर स्पेशलिस्ट एंकर की तरह.(जाने माने एंकरपर्सन या उदघोषक श्री संजय पटेल किसी कारणवश उसमें नहीं जा सके तो मुझे बोला गया. मगर विकेट के आगे खेलनेकी आदत होने की जगह विकेट के पीछे कीपर बनने का खास अनुभव नही था).

मेरे एक करीबी शिष्य बनाम मित्र चिंतन बाकीवाला (K For Kishor- 2nd Runner Up) तो उस दिन खंडवा में गौरी कुंज में पूरा दिन बिताया जहां किशोर दा रहते थे और उत्सवी माहौल में शाम को विनोद राठोड के साथ गीतों की प्रस्तुति दी.


चिंतन तो पूर्णतयः किशोरमय हो गया है. बातचीत का लेहजा, ट्रेट्स,देह भंगिमा, देह भाषा आदि किशोरमयी हो गयी है. आकहिर क्यों ना हो, नागेश कूकनूर नें किशोर दा की जीवनी पर एक फ़िल्म घोषित की है, जिसमें वह किशोर दा का रोल निभायेगा. .पूरा खंडवा उन दिनों फ़ेस्टिवल मूड में रंग गया था.मध्य प्रदेश सरकार नें भी किशोर सन्मान पुरस्कार मय एक लाख की राशि से इस साल गुलशन बावरा को सन्मानित किया(मगर दुखद निधन की वजह से उस कार्यक्रम का क्या हुआ यह पता नहीं चला).

वैसे पिछले साल यह पुरस्कार मनोज कुमार को दिया गया. अब ये तो भगवान ही जानते हैं कि किशोर दा और मनोजकुमार में क्या साम्य है, क्योंकि पता चला था मुंबई में हुई निर्णायकों की बैठक में हमारे गुणी निर्णायक सिर्फ़ समोसा खा कर चले गये थे, सही कर.

अब मुकेश जी पर कार्यक्रमों की गहमा गहमी चल ही रही है इंदौर में.आज भी एक कार्यक्रम था , और पूरे हफ़्ते दो या तीन और हैं. हम तो बस अंधेरे कमरे में , लेपटोप की धीमी रोशनी में यही गाये जा रहे हैं कि

हमे क्या जो हर सू ,उजाले हुए हैं....
के हम तो अंधेरों के पाले हुए है...
(रफ़ी साहब )

दरसल कुछ साल पहले तक , श्री संजय पटेल अपने धुन के दीवाने इन सभी महान हस्तीयों को किसी ना किसी बहाने श्रोता बिरादरी के जाजम पर याद कर लेते थे, और खाकसार को भी ( ऐसा ही कुछ लिखा जाता है दोस्तों!!)ये फ़क्र हासिल हुआ था कि इन फ़नकारों को अपने तहे दिल से इज़हार ए अकीदत अपने सुरों के माध्यम से पेश कर सकूं. इन दिनों यह सब अब एक ख्वाब सा ही रह गया है. संजय भाई नें किसी वृहद मकसद से इन कार्यक्रमों से दूरी बना ली है(खुदा करे ये क्षणिक हो), और अपने राम के तो काम के कारण आराम के लाले पडे हुए है. सोचा था कि रफ़ी साहब के लिये इतना कुछ है लिखने को कि हर रोज़ भी लिखूं तो मुकेश जी की पुण्यतिथी तक लिख सकता हूं. हमारे एक साथी सुनील करंदीकर जी नें तो प्यार भरा फ़तवा ही निकाल लिया है , कि उनपर कुछ लिखूं.किशोर दा पर कार्यक्रम में भी कुछ बोला ही था, मगर यहां भी आपकी जाजम पर कुछ नही लिख सका.अभी गुलज़ार के जन्म दिवस पर भी कुछ मन बना था, मगर टांय टांय फ़िस्स!!

हां , ये ज़रूर किया है, कि एक गीत रिकोर्ड किया है, जो एक साथ रफ़ी जी और किशोर दा को मेरी स्वरांजली होगी.(मदन मोहन जी के समय पर भी आप सभी मित्रों का ये आग्रह था ही कि उनपर भी कुछ गा कर ही सुनवाया जाता. मगर लेट लतीफ़ी के कारण ये अब बाद में.

तुम बिन जाओं कहां...
के दुनिया में आके , कुछ ना फ़िर, चाहा कभी, तुमको चाह के....

अब इस गीत को अलग अलग रफ़ी जी नेम और किशोर दा नें गाया, और आप सुनेंगे तो फ़रक मेहसूस होगा अदायगी में, गले के टिंबर में, और हरकतों , मुरकीयों में.

रफ़ी जी की शहद भरी साफ़ आवाज़ में रोमांस का ज़ज़्बा , और जवानी की मस्ती का नूर झलकता है, और राहुलदेव नें धुन में गोलाईयां की जगह बनाई है.वहीं किशोरदा की आवाज़ में इस गीत में एक पहाडी़पन परिलक्षित होता है, जिसमें गंभीरता और मेच्युरिटी के साथ साथ खडे सुरों का मिश्रण राहुलदेव नें बखूबी किया है, और हरकतों की जगह योडेलिंग के खूबसूरत फ़ाल्स नोट्स को बोया है, और सुरीली फ़सल काटी है.(उनका किशोर प्रेम जगजाहिर था).रफ़ी जी की मीठी आवाज़ में बास के साथ रेझो़नेंस था तो किशोरदा की आवाज़ में ट्रेबल के साथ नासिका की खनक भी थी.(मोटे तौर पर लता और आशा की आवाज़ के टिंबर से अनुभव करें)


मैंने कोशिश की है, कि एक ही गाने में दोनों के वर्शन गाकर सुनाऊं, मात्र एक विनम्रता के साथ किये गये प्रयोग की तौर पर- क्योंकि इस बात का कोई प्रमाणपत्र नही चाहिये कि दोनों की आवाज़ को कॊपी किया है,क्योंकि कॊपी से अधिक महत्वपूर्ण है उनकी सुरों को रेंडर करने की स्टाईल, और अपने अपने जोनर की खूबियों को गाने में ज़ज़बातों के साथ इंटरप्रेट करना.

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वैसे जानकारों को ये बता दूं कि योडलिंग को सबसे पहले रफ़ी साहब नें गाया था. उनके एक या दो गीत मैं अगली बार पेश करूंगा, क्योंकि वे मेरे पास केसेट में है.कहीं ये भी बताया जाता है, कि दक्षिण अफ़्रीका में गये अनूप कुमार नें यह सुना था और आकर अपने भाई को सुनाया था. कुछ भी हो, योडलिंग के लिये किशोर दा ही श्रेष्ठ हैं.

यहा ये विवेचन या तुलनात्मक विष्लेषण इस लिये नहीं किया जा रहा है, कि इन दों में से किसी को श्रेष्ठ ठहराया जाये. बस हम तो तथ्यागत वस्तुपरक शास्त्रार्थ कर रहें है, क्योंकि हमें तो दोनों की अज़ीज़ है, प्यारे हैं. ये गीत उन दिनों का हैं जब किशोरदा के नाम का परचम अपनी दूसरी इनिंग में अर्श पर फ़हरा रहा था, और रफ़ी जी को सीमित गाने मिलने लगे थे.

वैसे रफ़ी जी या मन्ना दा की तरह किशोरदा शास्त्रीय संगीत में निपुण नहीं थे, मगर एक नैसर्गिक गायक थे. इसीलिये बरसों बाद अमितकुमार को उन्होनें शास्त्रीय संगीत के लिये मन्ना दा के पास भेजा था.खुद किशोर दा रफ़ी जी की स्वार्गिक आवाज़ के दीवाने थे. एक बार जब उनसे मिलने का मौका मिला था, तब होटल के रूम में टेप पर वे रफ़ी जी का ही गीत सुन रहे थे. - मन रे तू काहे ना धीर धरे....

बाद में कहीं उन्होनें यह गीत गाया भी था.

रफ़ी जी के ज़नाज़े के समय किशोर दा घंटो उनके पार्थिव देह के पास पैरों पर बैठे हुए देखे गये थे.लोगों की मन में अपनी अपनी स्वार्थगत कारणों द्वारा उपजे मत्सर के कारण यह गलत धारणा बनी थी कि दोनों में मनमुटाव था, जबकि वे एक दूसरे की बेहद इज़्ज़त किया करते थे. एक बार रफ़ी जी को किसी नें यह ज़रूर पूछा था कि क्या आपको के इस जलवे से मन में कोई मलाल है? तो उन्होनें हंसते हुए कहा था कि उनपर खुदा की नेमत है, वह बरकरार रहे. अपना अपना वक्त है.

मात्र एक बार उनमें किसी छोटी बात प्यार भरी तकरार ज़रूर हुई थी. रफ़ी साहब अक्सर किशोर कुमार को किशोर दादा कहते थे, जबकि किशोर दा ये सुनकर मन ही मन में चिढते थे कि रफ़ी तो उनसे उम्र में बडे हैं मगर फ़िर भी क्यों दादा कह कर बुलाते हैं.एक दिन बातों हीं बातों में उन्होने हल्के फ़ुल्के अंदाज़ में रफ़ी जी से अपनी शिकायत दर्ज़ कर ही दी. तो रफ़ी साहब नें बडे ही मासूमियत से ये कहा कि चूंकि बंगाली में दादा कहने का रिवाज़ है, इसलिये वे ऐसा कह रहे थे. बाद में दोनों खूब हंसे...

ये मासूमियत, ये खूलूस, ये स्नेह भरे प्यार के बंधन के दर्शन क्या आज की पीढी के गायकों में देखे जा सकतें हैं? गलाकाट प्रतिस्पर्धा नें उन भावनाओं को, संवेदनाओं को दरकिनारा कर दिया है, जो रफ़ी और किशोर नाम के उन सच्चे कलाकारों में कूट कूट कर भरे हुए थे.

काश, वे दोनों आज भी होते????????
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