कल स्व. मुकेश जी की पुण्य तिथी थी.
कल मैं पोस्ट नहीं लिख पाया.या यूं कहूं , मैंने नही लिखी. क्योंकि ऐसे स्मृति दिनों में मैं अक्सर अपने ड्राईंग रूम में अपने आपको बंद कर उस महान शख्सि़यत के गीत गाकर उसे अपने तहे दिल से शिराजे अकी़दत पेश करता हूं. रफ़ी साहब हों , या हेमंत दा , या फ़िर मेरे दिल के करीब और हर दिल अज़ीज़ मुकेश जी .....
इन दिनों मैं और भी पेशोपेश में हूं. एक मन कहता है, कि मुकेश जी पर कुछ लिखूं. तो साथ ही मन ये भी करता है, कि उनपर खुद के गाये हुए गीत भी सुनवाऊं. मगर ये दिल संशय में पड़ जाता है, कि क्या कोई सुन भी रहा है? अधिकतर लोग सुनानें में लगे हुए हैं.ये भी समझ में नहीं आता कि बडे बडे नाम जो संगीतपर ब्लोग लिखते हैं,(यहां अनुपस्थित है) उन्हे वो क्या पसंद हैं जो वे भी इस तरफ़ का रुख करेंगे, और टिप्पणी से नवाज़ेंगे?
मगर फ़िर कई संगीत प्रेमी और कानसेन ये भी लिखते हैं कि उनकी तमन्ना थी कि मैं अपना भी कोई गीत सुनवाता.
आखिर मैं इस नतीज़े पर पहुंचा कि मैं कुछ लिखूं भी, कुछ मूल गीत भी सुनवाऊं, और अपने भी गीत सुनाऊं, ताकि जिसकी जैसी इच्छा रहे वह मिले. हम सभी इस इच्छा से ही तो जी रहें है, कि संगीत या साहित्य कि सेवा हो जाये तो दिली सुकूं हासिल हो, बस और क्या चाहिये? मेरे अंदर के कलाकार को तो हर जगह कई सालों से शोहरत और लाड प्यार मिला ही है लाईव शो कर के, जब भी मेरे भीतर का इंजिनीयर या मॆनेजर उसे इजाज़त देता है.(आजकल देता ही नहीं)
मगर ये क्या हुआ कि आप सभी के संपर्क में आया और एक निराली दुनिया का बाशिंदा हो गया मैं, जैसे मुकेश जी नें कहीं गाया ही है ना..
फ़रीश्तों की नगरी में मैं आ गया हूं,
ये रानाईयां, देख चकरा गया हूं...
तो अब आपके प्यार और लाड दुलार की ही तो दरकार है.
तो चलें , भावनाओं के इस भीगे मौसम में कल एक गीत रह रह कर याद आया, जो लबों पर आ ही गया...सर्दी और बुखार के चलते हुए, आवाज़ भी कुछ ज़्यादा ही नासिका मय हो गयी थी.
मुकेश जी के गले के टिम्बर का जलवा अलहैदा ही है, बाकी सभी गायकों से. राजहंस से भी शुभ्र और पवित्र चरित्र के मालिक, स्फ़टिक से भी स्वच्छ हृदय के भीतर अंतर्मन में जब संवेदनायें और ज़ज़बात मेनिफ़ेस्ट होते हैं सप्त सुरोंके के आदित्य रथ पर सवार,तो निकलता है भावनाओं का , वेदनाओं का वह सैलाब, जिसमें हम आप और पूरी कायनात बह जाती है, खो जाती है. और हम सभी अपने आप को मिटा देतें हैं, बिछ जाते हैं उस रुहानी आवाज़ के वजूद पर, और क्षितिज पर रह जाती है शाम के धुंधलके की कुछ लाल पीली और कृष्ण रेखायें,जिनमें हम अपने अपने नवरस खोजकर दिली सुकूं की तलाश पूरी करते हैं.
मुकेश जी के दर्द भरे गीत सुनना , याने गोया खपली पडे़ ज़ख्म को चाह कर फ़िर से खुरचना ,तब तक की भिलभिला कर रक्त ना बहने लगे और फ़िर से ताज़ा हो जाये वही ज़ख्म जो हम सालों से अपने दिल की गहराई में छुपा का संजोये फ़िरते हैं, जो हमें कभी अपनों ने दिये थे, जिन्हे स्वर दे देता है मुकेश की किसी भी गानें का बहाना. अपने अपने तईं हम मुकेश के उस गीत के ज़रीये खुद उस गीत के भावों को जी लेते हैं, उस फ़िल्म के नायक में परकाया प्रवेश कर जाते हैं,और अपने अपने ग़म के फ़सानों का तसव्वूर कर खुश हो लेते हैं.
सारंगा तेरी याद में,
नैन हुए बेचैन, ओ ss,
मधुर तुम्हारे मिलन बिना , दिन कटते नहीं रैन....
वो अंबुआ का झूलना, वो पीपल की छांव,
घूंघट में जब चांद था, मेहंदी लगी थी पांव,
आज उजड के रह गया, वो सपनों का गांव....
संग तुम्हारे दो घडी़ , बीत गये दो पल,
जल भर के मेरे नैन में, आज हुए ओझल,
सुख ले के दुख दे गयी, दो अंखियां चंचल....
सारंगा तेरी याद में.....
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कुछ दिनों पहले फ़िल्म रजनी गंधा का एक गीत रिकोर्ड किया था,
कई बार यूं ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है...
मन दौडने लगता है..
गाकर उसे अल्पनाजी को भेज दिया था, कि वे उसे विडियो में डाल दें तो मेहरबानी होगी.
उन्होनें उसे एक बढिया चलचित्र में तब्दील किया , और साथ ही अर्ज़ भी किया कि डॊ अनुराग जी की फ़रमाईश है इस गीत के लिये. तो आज वह मौका आ ही गया. तो ये गीत समर्पित है धन्यवाद के साथ अल्पनाजी को, और अनुराग जी को, (स्मार्ट इंडियन को भी), और बाकी सभी दिवानों को जो मुकेशजी को चाह्ते हैं, और मेरे पीछे दंडा लेकर पडेंगें, कि पहले ठीक से गाओ !!! हा! हा! हा!
तो मिच्छामि दुक्कडम....
कई बार यूं ही देखा है....