Friday, August 21, 2009

रफ़ी साहब और किशोरदा - प्यार का मौसम....





जैसे ये जो सावन का महिना चल रहा था, उसमें पवन के सोर करने के अलावा अन्य विशिष्ट रेखांकित करने जैसी बात ये है कि इस अगस्त में कई त्योहारों नें हमारे धार्मिक परिवेश में ,हमारी दिनचर्या को भक्तिरस और उल्ल्हास के रौनक भरे क्ष्णों से नवाज़ा है.जैसे रक्षा बंधन, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी , और राष्ट्रिय पर्व स्वाधिनता दिवस आदि.

मगर उसी प्रकार , ये महिना हमारे फ़िल्मी संगीत की सुरीली दुनिया में भी अहम स्थान रखता है. इसकी बानगी तो जाते जाते ३१ जुलाई ही दे गया जब कि हमारे हरदिल अज़ीज़ मोहम्मद रफ़ी जिअसे फ़नकार को हमसे जुदा किया, जब सावन के बादल भी वर्षा के बूंदों की जगह खून के आंसू रोया होगा. वैसे ही २७ अगस्त भी पास ही आने वाला है, जब हमारे लाडले रूहानी गायक मुकेश भी हमसे हमेशा के लिये रुख्सत हो गये.कल २१ अगस्त के मनहूस सोमवार को २००६ में उनकी सुरमई शहनाई हमेशा के लिये खामोश हो गयी थी.

हां, ये ज़रूर हुआ कि हरफ़नमौला कलाकार गायक किशोर कुमार को हमे ४ अगस्त को उनके जन्म दिन पर भी याद कर रंजो गम के इस मेले में कुछ रौनक लगाई.अभी अभी गुलज़ार जी नें भी अपने जन्मदिन पर अपनी बगिया के फ़ूलों से बहार खिलाई थी.

इसलिये आप पायेंगे, कि राष्ट्रिय पर्व की तरह हम सभी फ़िल्मी गीतों के शौकीन इन कलाकारों को इन दिनों शिद्दत से याद करते है, उन्हे अपनी भावनांजली पेश करते है, और फ़िर एक बार उनसे मुहब्बत की लौ को टिमटिमाये रखते हैं.

३१ जुलाई के आस पास हर जगह रफ़ी साहब को याद किया गया, और ४ अगस्त के आपपास किशोरदा को. एक कार्यक्रम में मैने ज़रूर शिरकत की थी , मगर बतौर गायक के नहीं, मगर स्पेशलिस्ट एंकर की तरह.(जाने माने एंकरपर्सन या उदघोषक श्री संजय पटेल किसी कारणवश उसमें नहीं जा सके तो मुझे बोला गया. मगर विकेट के आगे खेलनेकी आदत होने की जगह विकेट के पीछे कीपर बनने का खास अनुभव नही था).

मेरे एक करीबी शिष्य बनाम मित्र चिंतन बाकीवाला (K For Kishor- 2nd Runner Up) तो उस दिन खंडवा में गौरी कुंज में पूरा दिन बिताया जहां किशोर दा रहते थे और उत्सवी माहौल में शाम को विनोद राठोड के साथ गीतों की प्रस्तुति दी.


चिंतन तो पूर्णतयः किशोरमय हो गया है. बातचीत का लेहजा, ट्रेट्स,देह भंगिमा, देह भाषा आदि किशोरमयी हो गयी है. आकहिर क्यों ना हो, नागेश कूकनूर नें किशोर दा की जीवनी पर एक फ़िल्म घोषित की है, जिसमें वह किशोर दा का रोल निभायेगा. .पूरा खंडवा उन दिनों फ़ेस्टिवल मूड में रंग गया था.मध्य प्रदेश सरकार नें भी किशोर सन्मान पुरस्कार मय एक लाख की राशि से इस साल गुलशन बावरा को सन्मानित किया(मगर दुखद निधन की वजह से उस कार्यक्रम का क्या हुआ यह पता नहीं चला).

वैसे पिछले साल यह पुरस्कार मनोज कुमार को दिया गया. अब ये तो भगवान ही जानते हैं कि किशोर दा और मनोजकुमार में क्या साम्य है, क्योंकि पता चला था मुंबई में हुई निर्णायकों की बैठक में हमारे गुणी निर्णायक सिर्फ़ समोसा खा कर चले गये थे, सही कर.

अब मुकेश जी पर कार्यक्रमों की गहमा गहमी चल ही रही है इंदौर में.आज भी एक कार्यक्रम था , और पूरे हफ़्ते दो या तीन और हैं. हम तो बस अंधेरे कमरे में , लेपटोप की धीमी रोशनी में यही गाये जा रहे हैं कि

हमे क्या जो हर सू ,उजाले हुए हैं....
के हम तो अंधेरों के पाले हुए है...
(रफ़ी साहब )

दरसल कुछ साल पहले तक , श्री संजय पटेल अपने धुन के दीवाने इन सभी महान हस्तीयों को किसी ना किसी बहाने श्रोता बिरादरी के जाजम पर याद कर लेते थे, और खाकसार को भी ( ऐसा ही कुछ लिखा जाता है दोस्तों!!)ये फ़क्र हासिल हुआ था कि इन फ़नकारों को अपने तहे दिल से इज़हार ए अकीदत अपने सुरों के माध्यम से पेश कर सकूं. इन दिनों यह सब अब एक ख्वाब सा ही रह गया है. संजय भाई नें किसी वृहद मकसद से इन कार्यक्रमों से दूरी बना ली है(खुदा करे ये क्षणिक हो), और अपने राम के तो काम के कारण आराम के लाले पडे हुए है. सोचा था कि रफ़ी साहब के लिये इतना कुछ है लिखने को कि हर रोज़ भी लिखूं तो मुकेश जी की पुण्यतिथी तक लिख सकता हूं. हमारे एक साथी सुनील करंदीकर जी नें तो प्यार भरा फ़तवा ही निकाल लिया है , कि उनपर कुछ लिखूं.किशोर दा पर कार्यक्रम में भी कुछ बोला ही था, मगर यहां भी आपकी जाजम पर कुछ नही लिख सका.अभी गुलज़ार के जन्म दिवस पर भी कुछ मन बना था, मगर टांय टांय फ़िस्स!!

हां , ये ज़रूर किया है, कि एक गीत रिकोर्ड किया है, जो एक साथ रफ़ी जी और किशोर दा को मेरी स्वरांजली होगी.(मदन मोहन जी के समय पर भी आप सभी मित्रों का ये आग्रह था ही कि उनपर भी कुछ गा कर ही सुनवाया जाता. मगर लेट लतीफ़ी के कारण ये अब बाद में.

तुम बिन जाओं कहां...
के दुनिया में आके , कुछ ना फ़िर, चाहा कभी, तुमको चाह के....

अब इस गीत को अलग अलग रफ़ी जी नेम और किशोर दा नें गाया, और आप सुनेंगे तो फ़रक मेहसूस होगा अदायगी में, गले के टिंबर में, और हरकतों , मुरकीयों में.

रफ़ी जी की शहद भरी साफ़ आवाज़ में रोमांस का ज़ज़्बा , और जवानी की मस्ती का नूर झलकता है, और राहुलदेव नें धुन में गोलाईयां की जगह बनाई है.वहीं किशोरदा की आवाज़ में इस गीत में एक पहाडी़पन परिलक्षित होता है, जिसमें गंभीरता और मेच्युरिटी के साथ साथ खडे सुरों का मिश्रण राहुलदेव नें बखूबी किया है, और हरकतों की जगह योडेलिंग के खूबसूरत फ़ाल्स नोट्स को बोया है, और सुरीली फ़सल काटी है.(उनका किशोर प्रेम जगजाहिर था).रफ़ी जी की मीठी आवाज़ में बास के साथ रेझो़नेंस था तो किशोरदा की आवाज़ में ट्रेबल के साथ नासिका की खनक भी थी.(मोटे तौर पर लता और आशा की आवाज़ के टिंबर से अनुभव करें)


मैंने कोशिश की है, कि एक ही गाने में दोनों के वर्शन गाकर सुनाऊं, मात्र एक विनम्रता के साथ किये गये प्रयोग की तौर पर- क्योंकि इस बात का कोई प्रमाणपत्र नही चाहिये कि दोनों की आवाज़ को कॊपी किया है,क्योंकि कॊपी से अधिक महत्वपूर्ण है उनकी सुरों को रेंडर करने की स्टाईल, और अपने अपने जोनर की खूबियों को गाने में ज़ज़बातों के साथ इंटरप्रेट करना.

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वैसे जानकारों को ये बता दूं कि योडलिंग को सबसे पहले रफ़ी साहब नें गाया था. उनके एक या दो गीत मैं अगली बार पेश करूंगा, क्योंकि वे मेरे पास केसेट में है.कहीं ये भी बताया जाता है, कि दक्षिण अफ़्रीका में गये अनूप कुमार नें यह सुना था और आकर अपने भाई को सुनाया था. कुछ भी हो, योडलिंग के लिये किशोर दा ही श्रेष्ठ हैं.

यहा ये विवेचन या तुलनात्मक विष्लेषण इस लिये नहीं किया जा रहा है, कि इन दों में से किसी को श्रेष्ठ ठहराया जाये. बस हम तो तथ्यागत वस्तुपरक शास्त्रार्थ कर रहें है, क्योंकि हमें तो दोनों की अज़ीज़ है, प्यारे हैं. ये गीत उन दिनों का हैं जब किशोरदा के नाम का परचम अपनी दूसरी इनिंग में अर्श पर फ़हरा रहा था, और रफ़ी जी को सीमित गाने मिलने लगे थे.

वैसे रफ़ी जी या मन्ना दा की तरह किशोरदा शास्त्रीय संगीत में निपुण नहीं थे, मगर एक नैसर्गिक गायक थे. इसीलिये बरसों बाद अमितकुमार को उन्होनें शास्त्रीय संगीत के लिये मन्ना दा के पास भेजा था.खुद किशोर दा रफ़ी जी की स्वार्गिक आवाज़ के दीवाने थे. एक बार जब उनसे मिलने का मौका मिला था, तब होटल के रूम में टेप पर वे रफ़ी जी का ही गीत सुन रहे थे. - मन रे तू काहे ना धीर धरे....

बाद में कहीं उन्होनें यह गीत गाया भी था.

रफ़ी जी के ज़नाज़े के समय किशोर दा घंटो उनके पार्थिव देह के पास पैरों पर बैठे हुए देखे गये थे.लोगों की मन में अपनी अपनी स्वार्थगत कारणों द्वारा उपजे मत्सर के कारण यह गलत धारणा बनी थी कि दोनों में मनमुटाव था, जबकि वे एक दूसरे की बेहद इज़्ज़त किया करते थे. एक बार रफ़ी जी को किसी नें यह ज़रूर पूछा था कि क्या आपको के इस जलवे से मन में कोई मलाल है? तो उन्होनें हंसते हुए कहा था कि उनपर खुदा की नेमत है, वह बरकरार रहे. अपना अपना वक्त है.

मात्र एक बार उनमें किसी छोटी बात प्यार भरी तकरार ज़रूर हुई थी. रफ़ी साहब अक्सर किशोर कुमार को किशोर दादा कहते थे, जबकि किशोर दा ये सुनकर मन ही मन में चिढते थे कि रफ़ी तो उनसे उम्र में बडे हैं मगर फ़िर भी क्यों दादा कह कर बुलाते हैं.एक दिन बातों हीं बातों में उन्होने हल्के फ़ुल्के अंदाज़ में रफ़ी जी से अपनी शिकायत दर्ज़ कर ही दी. तो रफ़ी साहब नें बडे ही मासूमियत से ये कहा कि चूंकि बंगाली में दादा कहने का रिवाज़ है, इसलिये वे ऐसा कह रहे थे. बाद में दोनों खूब हंसे...

ये मासूमियत, ये खूलूस, ये स्नेह भरे प्यार के बंधन के दर्शन क्या आज की पीढी के गायकों में देखे जा सकतें हैं? गलाकाट प्रतिस्पर्धा नें उन भावनाओं को, संवेदनाओं को दरकिनारा कर दिया है, जो रफ़ी और किशोर नाम के उन सच्चे कलाकारों में कूट कूट कर भरे हुए थे.

काश, वे दोनों आज भी होते????????

11 comments:

Udan Tashtari said...

बेह्तरीन आलेख संगीत के दोनों दिग्गजों पर.

अफ़लातून said...

आप तो पूरे भक्त हैं । जो अभक्त न हो।
किशोर कुमार के लिए मोहम्मद रफ़ी के गाये दो गीत भी सुन सके - यूट्यूब की बदौलत ।

ताऊ रामपुरिया said...

वाह जी, आपने इतने अधिकार पुर्वक लिखा है इस विषय पर कि आपको जितना धन्यवाद दिया जाये उतना कम है. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

डॉ .अनुराग said...

सच कहा आपने न अब आपस में वो सामान भावना रही है ओर न वो स्नेह ...किशोर जी की बनायीं फिल्मे ये भी बताती है की दुनिया को हंसोड़ नजर आने वाला वो कलाकार दरअसल अन्दर से कितना उदास था

Alpana Verma said...

आप ने किशोर जी और रफी साहब के बारे में जो भी लिखा वह काफी जानकारी भरा तो है ही साथ ही लगता है आप ने काफी अध्ययन भी किया है इनके बारे में..
-चिंतन ' जी को हमने के फॉर किशोर में सुना था..बहुत अच्छा गाते हैं..किशोरमय तो उस में भी दीखते थे...
-मुकेश जी की बरसी २७ को है याद दिलाया तो फिर उनकी आवाज़ में भी श्रदांजलि स्वरुप कुछ आपसे सुनते?

-तुम बिन जाऊँ कहाँ'गीत किसे पसंद नहीं होगा..शशि कपूर ने इसे परदे पर निभाया भी खूब है..मुझे बहुत पसंद है..
आप ने इसे बहुत ही अच्छा गाया है..और मिक्सिंग भी अच्छी की है.बहुत अच्छा लगा सुनकर..ऐसा लगा ही नहीं एक बार को--- की आप गा रहे हैं[पहले सुने गाने -धीमे और गंभीर थे शायद इस लिए..] ..
इस गीत केलिए ..ज़ोरदार तालियाँ!
और आभार

Alpana Verma said...

आप ने किशोर जी और रफी साहब के बारे में जो भी लिखा वह काफी जानकारी भरा तो है ही साथ ही लगता है आप ने काफी अध्ययन भी किया है इनके बारे में..
-चिंतन ' जी को हमने के फॉर किशोर में सुना था..बहुत अच्छा गाते हैं..किशोरमय तो उस में भी दीखते थे...
-मुकेश जी की बरसी २७ को है याद दिलाया तो फिर उनकी आवाज़ में भी श्रदांजलि स्वरुप कुछ आपसे सुनते?

-तुम बिन जाऊँ कहाँ'गीत किसे पसंद नहीं होगा..शशि कपूर ने इसे परदे पर निभाया भी खूब है..मुझे बहुत पसंद है..
आप ने इसे बहुत ही अच्छा गाया है..और मिक्सिंग भी अच्छी की है.बहुत अच्छा लगा सुनकर..ऐसा लगा ही नहीं एक बार को--- की आप गा रहे हैं[पहले सुने गाने -धीमे और गंभीर थे शायद इस लिए..] ..
इस गीत केलिए ..ज़ोरदार तालियाँ!
और आभार

हरकीरत ' हीर' said...

गुलजार जी को जन्म दिन की शुभकामनाएं .....और आपको ढेरों बधाई इस सुंदर आलेख के लिए ....!

४ अगस्त के आपपास किशोरदा को. एक कार्यक्रम में मैने ज़रूर शिरकत की थी , मगर बतौर गायक के नहीं, मगर स्पेशलिस्ट एंकर की तरह.....

आपके इस हुनर से तो हम अनजान थे .....!!

इतनी व्यस्तता के बावजूद आप ब्लॉग लिखने का समय निकाल लेते हैं ....?
नमन है आपको .....!!

Manish Kumar said...

waah aapki gayiki man ko bha gayi

Creative Manch said...

बेह्तरीन लेख
बहुत मेहनत से तैयार की है आपने यह पोस्ट
कई जानकारियां मिलीं
आभार


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Science Bloggers Association said...

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विधुल्लता said...

आपके ब्लॉग पर डॉ.अनुरागजी की पोस्ट से आई हूँ ...संगीतमयी आपकी ये पोस्ट वाकई अच्छी लगी ..रफी मेरे पसंदीदा गायक हें ....उनका एक गीत वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो पुकार्तेहें ....बहुत खोजा नहीं मिला ..कभी मिले तो बताइयेगा ..आज सुबह से ही आपकी सभी पोस्ट पढ़ी ..बिना लाग लपेट के सरल सहज भाषा में रोचक जानकारी और रिपोतार्ज भी ...अनेक शुभकामनाएं और इतने सुन्दर गीत सुनवाने के लिए आभार वैसे मुझे आनंद का मुकेश का गीत ..कहीं दूर जब ....जब भी सुनती हूँ मन एक दुविधा में दुःख और सुख से परे चले जाता है ....बस धन्यवाद

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