फ़िर वही शाम, वही गम, वही तनहाई है.....
दिल को समझाने मदन मोहन की याद चली आयी है...............
१४ जुलाई १९७५ को ये गुणी , वर्सेटाईल और माधुर्य से भरी धुनों का शहेन्शाह हमसे बिछड गया, और तब से उसके करोडों चाहने वाले जब भी यह गीत सुनते है, या इस जैसे कई अनेक, तो हम, आप और वे उनकी याद में आंख से एक कतरा तो ज़रूर बहाते हैं.
मैं अपने बचपन में मदन जी के एक गाने से रूबरू हुआ जैसे कि मां के कोख से ही, जब मेरी मां नैना बरसे रिमझिम रिमझिम सुनती थी, जो उसका हिंदी का बेहद पसंदीदा गीत था. चूंकि वे इतना अच्छा नहीं गाती थी, वे मेरे पिताजी से हमेशा यह गाना सुनती चली आ रही थी, बिलकुल पुरुष स्वर में!!!अपने अंतिम दिनों में भी!!इसलिये मैं भी लताजी के ही गाने गा गाकर बडा हुआ.
परसों यहां मदनजी को श्रद्धांजली देने के लिये एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें गायिका सपना नें लता जी के गाये हुए एक से एक नगमें सुनाये. मन फ़िर रम गया इन नगमों में और यादें मुझे पीछे ले गयी कुछ ८-१० सालों पहले, जब मुंबई में लताजी नें बहुत दिनों बाद एक कार्यक्रम दिया था और उसमें से कई गानें मदनजी के संगीतबद्ध किये हुए थे!!
तब एक गाना बडा ही दिल को छू गया , जो पहले भी सुनता चला आ रहा था, मगर पता नहीं क्यूं, उस दिन वह कलेजे को चीर कर रूह तक घुस गया-
वो भूली दास्तां... , लो फ़िर याद आ गयी....
अगर आपको उस दिन गाया हुआ यह गीत सुनना हो तो यूट्युब में जाकर सुन सकते हैं. मैं उसे यहां लोड नहीं कर सकूंगा , क्योंकि एम्बेड कोड नही है.
http://www.youtube.com/watch?v=a8L01-6441A&feature=related
मगर यकिन मानिये, इस गीत को खुद गानें की भी इतनी ख्वाहिश थी कि चुपके चुपके बाथरूम में गा लेता था. दोस्तों की मेहफ़िल में ये गाना गाने के कोशिश की ज़रूर , मगर सर्वकालिक महान लताजी के गाये गाने का जिगर नहीं ला पाया.
आज ज़्यादा भूमिका ना बांधते हुए एक इल्तज़ा है आप सभी अंतरंग मित्रों से, स्वर साथियों से,कि आज मेरी ये दिली ख्वाईश पूरी कर ही लेता हूं, और ये गाना रिकोर्ड करने की धृष्टता कर डालता हूं.गाने के मूड़ और जोनर के हिसाब से पुरुष स्वर में से खास गायक की तरह से गाने की कोशिश की है ( आप पहचान गये ना?).
अब जो भी गलत गाऊं, सज़ा मंज़ूर....पेशे खिदमत है.....
वस्तुतः , मैं एक एमेच्युअर गायक हूं , बिल्कुल खालिस शौकिया कलाकार.उसपर भी सिर्फ़ स्टेज पर गाता चला आया हूं.
अब जब रिकोर्डिंग करने लगा, घर में, कराओके ट्रॆक्स पर , तो रोज़ रोज़ नये प्रयोग नये आयाम खुलते जा रहे हैं, और एक ज़बर्दस्त चेलेंज सा लग रहा है.
जब आप स्टेज पर होते हैं, तो आपको एक अतिरिक्त उर्जा की, थ्रो की दरकार रहती है, और साथ में देह भाषा का भी सामंजस्य रखना पडता है, खासकर आजकर के दृष्य़ श्रव्य मिडिया के ज़माने में.फ़िर थोडा बहुत सुर इधर उधर हुआ तो भी चुपके से धक जाता है.अमित कुमार और कुछ हद तक नितिन मुकेशभी मुझसे ये कबूल कर चुके हैं,कि वे स्वर का इतना खयाल नहीं रख पाते, या ज़रूरत नहीं समझते.वहीं लताजी तो स्वर के लिये एक वायलीन का (कमल भाई) या हारमोनीयम(अनिल मोहिले) का साथ लेती हैं, और साथ में गाये हुए सुर को सुनने के लिये मोनिटर को एडजस्ट करने पर विशेष ध्यान देतीं हैं, जब भी वें स्टेज पर प्रोग्राम देतीं हैं.दरसल ये वो लोग हैं जिन्होने रिकोर्डिंग पर महारत हासिल कर ली है,जिसमें स्वर का खास ध्यान देने की पहली शर्त होती थी. क्योंकि गायक या वादक की ज़रा सी भी चूक से पूरी रिकोर्डिंग फ़िर से करनी पडती थी.आजकल इतने सारे सॊफ़्टवेयर आ गये हैं, कि मात्र कट पेस्ट से हे नहीं, सुर / पिच या लय/टेम्पो को भी कम ज़्यादा किया जा सकता है.टी सिरीज़ के स्टुडियो में हमारे एक गाने की रिकोर्डिंग के समय मैं ये देख कर या सुनकर दंग रह ग्या था कि अनुराधा पौडवाल बहुत बेसुरा गा कर चली गयी थी, और वहां के रिकोर्डिस्ट टेकनिशीयन्स बाद में स्वरों को साऊंड फ़ोर्ज पर मेनेज करते पाये गये!!
इसिलिये लताजी, मन्ना दा, रफ़ी साहब, मुकेश जी ,हेमंत दा, तलत साहब,या फ़िर भूपेन हज़ारिका,सुरेश वाडकर और बालासुब्रमन्यम... इनको जब भी अपनी मांद से निकल कर स्टेज पर गाते मैने स्वयं देखा तो उनकी लगन, डेडिकेशन और कमिटमेंट का तो मैं कायल ही हो गया.
एक छोटा सा किस्सा याद आया. सन १९८२/८३ के आसपास जब लता जी नें इंदौर में कार्यक्रम देनें का मन बनाया, तब कार्यक्रम के दिन सुबह स्टेडियम में जाकर ध्वनि व्यवस्था को चेक करने की इच्छा ज़ाहिर की. दुर्भाग्य से,शहर के एक पूर्व मंत्री नें किसी पूर्वाग्रह/विशिष्ट कारण के वजह से उनके कार्यक्रम के बहिष्कार के घोषणा कर डाली! जिस होटल में वे रुकी थी , इसके सामने काले झंडे दिखाने और टकराव की स्थिति बनाने का भी दुस्साहस कर लिया.
इसलिये आयोजकों के प्रमुख नईदुनिया दैनिक के प्रमुख संपादक श्री अभय छजलानी जे ने उनसे करबद्ध प्रार्थना की कि ऐसे माहौल में उनका जान मुनासिब नही होगा, और वे कार्यक्रम से कुछ पहले ही जाकर ध्वनि व्यवस्था चेक कर लें.
मगर वे नहीं मानी, और भारी बंदोबस्त में वे वहां गयीं. वहां उन्होने पोडियम के नीचे अपने साथ लाया हुआ छोटा सा मॊनिटर रखा, और आउटपुट को चेक किया. साथ ही इतने बडे क्रिकेट स्टेडियम में कडी धूप में दूर दूर तक लगे भोंगे ( यही तो कहा जाता था!!) भी चेक किये. दो भोंगों में गलती थी और बदलने वाले बात पर तो ध्वनि व्यवस्थापक नें कहा कि ये भोंगे तो इंदिरा गांधे तक को लगाये गये थे, तो वे्पहले तो एकदम ना्राज़ हो गयी,मगर बाद में खिलखिला कर हंस पडी,और बाकी हम सभी भी हंस पडे!!बाद में वें बोली, मुझसे एक आम आदमी की कुछ अपेक्षायें है, अच्छे गाने की, और खराब ध्वनि व्यवस्था के कारण उनके विस्श्वास ,आनंद और मेरी मेहनत पर पानी फ़िर जाता.
उस दिन के अनुभव नें मुझे बहुत कुछ सिखाया, अपने खुद के कार्यक्रम के लिये और बाद में बडे कलाकारों के लिये जिनका मेरा वास्ता बाद में तब पडा जब मैं लता मंगेशकर जी के नाम पर स्थापित पुरस्कार के आयोजन समिति का एक सदस्य म.प्र. सरकार द्वारा नामजद किया गया.तब से हर साल इस खा़कसार को यह फ़क्र हासिल हुआ कि हर किसी बडे कलाकार या संगीतकार के इंदौर आने से लेकर स्टेज के कार्यक्रम की ध्वनि व्यवस्था तक की ज़िम्मेदारी तकनीकी तौर पर सम्हाली.(एक कार्यक्रम में महेन्द्र कपूर के साथ आये मुख्य तबला वादक सुरेंद्र पा जी ने मुझे माईक चेक करते हुए गुनगुनाते हुए सुना तो वे महेंद्र कपूर से बोले कि यहां इंदौर के तो माईकवाले भी बहुत सुरीले हैं तो उन्होने हंसते हुए उनकी गलत फ़हमी दूर की, कि नहीं ये तो आयोजक ही है)
इसलिये जब मैं भी अपने स्टेज की मांद से निकल कर रिकोर्डिंग की मांद में घुसा हूं तो मुझे भी नानी याद आ रही है, जिसका जिक्र अगली बार......
एक और प्लेयर...
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