Tuesday, September 23, 2008
तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे.. चश्मे बद्दूर...
संगीत और भाषा में एक बात समान है, दोनों के स्वरूप बदलते रहते है. जहां जहां आदमी है वहां भाषा में जगह बदलते ही चलन और शैली बदल जाती है, और संगीत में भी यही बात है.
हिंदी फ़िल्मों के गीतों में भी यही बात लागू होती है, जहां भाषा और संगीत का एक अदभुत संगम दिखाई पडता है, और विविध प्रकार के बोल/शब्द विभिन्न अंदाज़ या शैली के रागों या सुरों के सामंजस्य से एक रंगबिरंगी कलाचित्र या मेहकता हुआ गुलदस्ता बना देते है.
आज कल दृष्य और श्राव्य माध्यम में प्रतिमा का महत्व ज़्यादा है बनिस्बत प्रतिभा के या उस गीत के भाव पक्ष या सुर लालित्य के.मगर सन १९५० के बाद के दशकों के फ़िल्मी गानों को देखने और सुनने का माध्यम मिलता था केवल फ़िल्म (जो एक या दो बार ही देखी जाती थी,और कई फ़िल्में गानों के repeat value के कारण लोकप्रिय हुई) या फ़िर आम आदमी को नसीब था रेडिओ पर बार बार सिर्फ़ सुन पाने का मौका.(रेडियोग्राम भी कुछ धनी लोगों तक ही सीमित था.)
इसीलिये गीत में उसके शब्द, भाव, सुर संयोजन आदि की महत्ता अधिक थी, और इसीलिये वे गीत शाश्वत हुए.यही बात है की मेलोडी कभी पुरानी नही होती. जैसे बालक की मुस्कान, भक्तिभाव से भरी भक्त की निगाहें, या किसी फ़ूल पर पडी सुबह की ओस हमेशा शाश्वत है, वैसे ही ये गीत.
फ़िल्मी गीतों के इस सुवर्णकाल में जहां कंटेंट का महत्व अधिक था, हमें नसीब हुए संगीतकार जैसे अनिल विश्वास, नौशाद, रोशन , सचिन देव बर्मन, सलिलदा, और शंकर जयकिशन. साथ ही हम रूबरू हुए ऐसे गीतकारों से, जिन्होने बडे ही सादगी से, हल्के फ़ुल्के बोलों के ज़रिये भावपूर्ण गीत दिये जो बरसों के बाद भी आज हमारे स्मृति में बाबस्ता है,जैसे- शैलेन्द्र , साहिर, शकील बदायुनी आदि, और हसरत जयपूरी.
जयपुर के इकबाल हुस्सैन ने राधा नाम की एक लडकी के प्रेम प्रसंग में असफ़ल होने पर बंबई की राह पकडी. अपने नाना फ़िदा हुसैन ’फ़िदा’,जो कवि नीरज की तरह शायरी पेश करते थे, की शागिर्दी में उर्दु अदब में उन्होने कदम रखा तो अपना तखल्लुस रखा हसरत जयपुरी और कभी बेस्ट कंडक्टर तो कभी सुपर सिनेमा में बुकिंग क्लर्क, तो कभी ऑपेरा हाउस के बाहर फ़ूटपाथ पर खिलौने या कपबसी बेचते हुए उन्होने अपना फ़िल्मी करियर शुरु किया.
वहीं कॅन्टीन में शंकर जयकिशन को और पृथ्वीराज कपूर को शायरी सुनाई और राज कपूर के बरसात से आगाज़ किया अपना फ़िल्मी गीतों का वह सुहाना सफ़र जिसने हमें ३५० से अधिक फ़िल्मों में २००० से भी ज़्यादा गीत दिये. जिया बेकरार है, यह सबसे पहला गीत,जिसे शंकर नें स्वरबद्ध किया, और पहला युगल गीत छोड गये बालम जिसकी धुन जयकिशन ने बनाई.
शंकर जयकिशन , राज कपूर की उनकी इस बेमिसाल जोडी में साथ थे उनके ही जैसे एक और प्रतिभावान और छायावादी कवि शैलेन्द्र!! और बनने लगे , गढ़ने लगे वे अनेक कालजयी गीत जिन्हे आज भी मन के किसी कोने में हमने सजाये रखे है.मीठे, मोहक, सीधी साधी हिंदी और उर्दु ज़ुबान में कसीदाकारी किये हुए वो गीत - जैसे की हम आपस में गुफ़्तगु ही कर रहे हों.
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