Friday, September 26, 2008

देव आनंद - An epitome of YOUTH !!

सदाबहार अभिनेता , देव आनंद !!

एक व्यक्तिगत अनुभव.

८५ वर्ष के हुए, और चिरयौवन सेहत के धनी आज भी उतनी ही एनर्जी और उमंग के साथ फ़िल्में बनाने में लगे हुए है.

मेरा देव आनंद के साथ एक अजीब संबंध है.

हमारा परिवार एक संयुक्त परिवार था, और जब से समझने लगा ,तब से घर में देव आनंद के Fans भरे हुए थे. मेरे ताऊजी के मेरे दोनो बडे भिया लोग सुबह से देर रात तक देव आनंद के बारे में ही बाते करते थे, यहां तक बडी चाची भी .जब कॊलेज गया तो मेरा सबसे अज़ीज़ मित्र हुआ अरुण जो पागलपन और उन्माद की हद तक देव जी को चाहता था.

बचपन में जब हमारे शहर इन्दौर में प्रेम पुजारी की शूटिंग हुई तब उनसे मिला था. An epitome of youth !!

फ़िर एक बार कुछ सालों पहले मैं और मेरा मित्र अरुण बंबई गये तो आज के ही दिन हम देव साहब के घर पहुंच गये, Just took Chance.उन्ही दिनों , उनकी कोई फ़िल्म भी रिलीज़ हुई थी .आश्चर्य हुआ यह जान कर की देव साहब घर पर ही थे और कुछ मेहमान आये हुए थे.ज़ाहिर है ,दरबान ने कहा-साहब नही मिलेंगे.

मैं Lions Club International का सदस्य हूं. ऐसे ही सोचा और कह डाला -हम लायन्स क्लब से है. बस , कुछ देर बाद पूछ कर आया और खुल जा सिमसिम --

पता चला कि कोई पार्टी वार्टी नही थी देव साहब अपनी नयी फ़िल्म टाईम्स स्क्वायर के लिये कुछ अमेरिकन film crew से फ़िल्म के बारे में ही विचार विमर्श कर रहे थे.वह भी जन्म दिन के दिन!!

तो यह मेरे लिये एक सबक था जो आज तक ज़हन में बाबस्ता है - कडा परिश्रम और मेहनत का ही फ़ल है कामयाबी.WORK IS WORSHIP...

कुछ देर के लिये उनसे माफ़ी मांगते हुए देव साहब मुझ से मुखातिब हुए और फ़िर चला आधे घंटे का एक निजी बातचीत या Informal Interview कह लें,जिसमें हुई देव सहाब की १९४६ से लेकर अब तक की फ़िल्मों पर चर्चा . फ़िल्म निर्माण, अभिनय ,संगीत की हर विधा पर उनका प्रभुत्व देख समझ मै हैरान था .

मुझे यह फ़क्र हासिल हुआ था की कहीं मैने उनकी १९५० के पहले की फ़िल्म ’ खेल’ देखी थी (घिसी पिटी, मॆटिनी में).उन्हे याद था.यही नही , उन्होने और मेहरबान होकर दूसरे दिन भी मेहबूब स्टुडियो में उनकी एक और फ़िल्म की शूटिंग पर आमंत्रित किया.वहां भी गये, और तब से आज तक उन यादों को दिल की गहराई में इस्तरी कर , घडी कर सहेज कर रखा है.

उनके साथ हुई बातचीत के ब्योरे का यहां महत्व नही, महत्वपूर्ण है उनके जैसे मेहनती और दिलकश युवा इंसान से मिलना.

(चित्र नेट से साभार )

देव आनन्द की फ़िल्मी संगीत यात्रा में जिन गायकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उनमें मुख्य है - मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार. वैसे उनके कुछ गीत तलत मेहमूद नें , हेमन्त कुमार नें और मन्ना डे ने भी गाये थे. जिसके बारे में एक अलग पोस्ट लिखूंगा.कुछ मजबूरियां है सेहत के मुताल्लिक, तो आप सहृदय हो मुआफ़ करेंगे.

चलिये आज उनके यह गीत सुनते है, जिन्हे मूलतः रफ़ी जी और किशोर दा नें गाया था.....(An Amature's karaoke )आज जब रेकॊर्डिंग की इतनी कमाल की तकनीकें मौजूद हैं ,जैसे कट पेस्ट, पिच करेक्शन , या टेम्पो करेक्शन आदि, तो यह कई साल पहले का प्रयास है. यकीन मानिये, आज सभी सुविधायें मौजूद है, मगर वह यादें और उसकी जुगाली कहां से लाऊंगा?

इसीलिये इन गीतों को सुनाना यहां ज़रूरी नही समझता. मगर क्या करें . दिल है के मानता नहीं...

अगर उचित समझें तो आगे बढें ,आप से नम्र निवेदन..

खोया खोया चांद, खुला आसमां, आंखों में सारी रात जायेगी...


फूलों के रंग से , दिल की कलम से...

वो जब याद आये..

आज २६ सेप्टेंबर है.

आज के दिन हम फ़िल्मों से जुडी दो विशिष्ट व्यक्तियों के बारे में आगे कुछ लिखेंगे.

देव आनंद ...



जिनका आज जन्म दिवस है. भगवान से उनके दीर्घ आयु के लिये प्रार्थना ........










और



हेमन्त कुमार



जिनकी आज पुण्य तिथी है. भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे.

उनपर अलग अलग लेख का इन्तेज़ार करें..







दिलीप कुमार

अभी अभी पता चला है कि जनाब दिलीप कुमार को अस्पताल में भरती किया गया है.

हम सभी उनके जल्दी अच्छे होने के खुदा से दुआ करते हैं...

सभी चित्र नेट से साभार

Tuesday, September 23, 2008

तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे.. चश्मे बद्दूर...


संगीत और भाषा में एक बात समान है, दोनों के स्वरूप बदलते रहते है. जहां जहां आदमी है वहां भाषा में जगह बदलते ही चलन और शैली बदल जाती है, और संगीत में भी यही बात है.

हिंदी फ़िल्मों के गीतों में भी यही बात लागू होती है, जहां भाषा और संगीत का एक अदभुत संगम दिखाई पडता है, और विविध प्रकार के बोल/शब्द विभिन्न अंदाज़ या शैली के रागों या सुरों के सामंजस्य से एक रंगबिरंगी कलाचित्र या मेहकता हुआ गुलदस्ता बना देते है.

आज कल दृष्य और श्राव्य माध्यम में प्रतिमा का महत्व ज़्यादा है बनिस्बत प्रतिभा के या उस गीत के भाव पक्ष या सुर लालित्य के.मगर सन १९५० के बाद के दशकों के फ़िल्मी गानों को देखने और सुनने का माध्यम मिलता था केवल फ़िल्म (जो एक या दो बार ही देखी जाती थी,और कई फ़िल्में गानों के repeat value के कारण लोकप्रिय हुई) या फ़िर आम आदमी को नसीब था रेडिओ पर बार बार सिर्फ़ सुन पाने का मौका.(रेडियोग्राम भी कुछ धनी लोगों तक ही सीमित था.)

इसीलिये गीत में उसके शब्द, भाव, सुर संयोजन आदि की महत्ता अधिक थी, और इसीलिये वे गीत शाश्वत हुए.यही बात है की मेलोडी कभी पुरानी नही होती. जैसे बालक की मुस्कान, भक्तिभाव से भरी भक्त की निगाहें, या किसी फ़ूल पर पडी सुबह की ओस हमेशा शाश्वत है, वैसे ही ये गीत.

फ़िल्मी गीतों के इस सुवर्णकाल में जहां कंटेंट का महत्व अधिक था, हमें नसीब हुए संगीतकार जैसे अनिल विश्वास, नौशाद, रोशन , सचिन देव बर्मन, सलिलदा, और शंकर जयकिशन. साथ ही हम रूबरू हुए ऐसे गीतकारों से, जिन्होने बडे ही सादगी से, हल्के फ़ुल्के बोलों के ज़रिये भावपूर्ण गीत दिये जो बरसों के बाद भी आज हमारे स्मृति में बाबस्ता है,जैसे- शैलेन्द्र , साहिर, शकील बदायुनी आदि, और हसरत जयपूरी.

जयपुर के इकबाल हुस्सैन ने राधा नाम की एक लडकी के प्रेम प्रसंग में असफ़ल होने पर बंबई की राह पकडी. अपने नाना फ़िदा हुसैन ’फ़िदा’,जो कवि नीरज की तरह शायरी पेश करते थे, की शागिर्दी में उर्दु अदब में उन्होने कदम रखा तो अपना तखल्लुस रखा हसरत जयपुरी और कभी बेस्ट कंडक्टर तो कभी सुपर सिनेमा में बुकिंग क्लर्क, तो कभी ऑपेरा हाउस के बाहर फ़ूटपाथ पर खिलौने या कपबसी बेचते हुए उन्होने अपना फ़िल्मी करियर शुरु किया.

वहीं कॅन्टीन में शंकर जयकिशन को और पृथ्वीराज कपूर को शायरी सुनाई और राज कपूर के बरसात से आगाज़ किया अपना फ़िल्मी गीतों का वह सुहाना सफ़र जिसने हमें ३५० से अधिक फ़िल्मों में २००० से भी ज़्यादा गीत दिये. जिया बेकरार है, यह सबसे पहला गीत,जिसे शंकर नें स्वरबद्ध किया, और पहला युगल गीत छोड गये बालम जिसकी धुन जयकिशन ने बनाई.

शंकर जयकिशन , राज कपूर की उनकी इस बेमिसाल जोडी में साथ थे उनके ही जैसे एक और प्रतिभावान और छायावादी कवि शैलेन्द्र!! और बनने लगे , गढ़ने लगे वे अनेक कालजयी गीत जिन्हे आज भी मन के किसी कोने में हमने सजाये रखे है.मीठे, मोहक, सीधी साधी हिंदी और उर्दु ज़ुबान में कसीदाकारी किये हुए वो गीत - जैसे की हम आपस में गुफ़्तगु ही कर रहे हों.

Friday, September 19, 2008

चश्मे बद्दूर..

हसरत जयपुरी

परसों थी सत्रह तारीख.17 सप्टेम्बर.

करीब नौ साल पहले १७ तारीख सन १९९९ को प्रसिद्ध उर्दू शायर/कवि जनाब हसरत जयपुरी इन्तेकाल फ़रमा गये, और हिंदी फ़िल्मों के गीत संगीत के इतिहास में अपना नाम सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ करा गये.

उनके गीतों और जीवनी पर कुछ लिखने की तमन्ना थी , और हफ़्ते भर पहले से तैयारी भी चल रही थी.

मगर अचानक किसी कारणों से फ़िर लेट हो गये. इस बार एक दुर्घटना में पीठ और बायें हाथ पर पट्टा चढ गया.इसलिये क्षमा. अगर संभव हुआ तो कल ज़रूर कोशिश करूंगा, अगर इज़ाज़त मिली तो.

अल्लाताला ने उन्हे ज़न्नत तो ज़रूर बक्षी होगी, वे भी तो मुरीद होंगे उनके गीतों के...

हम भी उन्हे और उनके सभी गानों को याद कर अपनी श्रद्धांजली ज़रूर दें.

Monday, September 15, 2008

मुकेश और आतंकवाद !!!


मुकेश और आतंकवाद !!!

आप चौंक गये होंगे, एक अनहोनी सी बात, दूर दूर तक का कोई नाता नहीं.

मगर अभी मैं जिस हादसे से गुज़रा और उससे निकल पाया, वह भी एक बताने वाला वाकया.अपनी संगीत बिरादरी के साथ बांटने जैसी.

आप से कहा था कि आशा भोंसले के उपर कुछ लिखूंगा तो नही लिख पाया. आप भी कहते होंगे, गज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया...मेरे व्यवसाय की वजह से मुझे यकायक कूच करना पडता है.इन्जिनीयरिंग के जो प्रोजेक्ट चल रहे है, उनका तकाज़ा है.

अभी किसी काम के सिलसिले में मुझे एक बेहद अल्प प्रवास पर दोहा और अबु धाबी जाना पडा. दोहा (कतर) के एयरपोर्ट के काम की वजह से, लौटते समय अबु धाबी में विमान बदलनें के लिये उतरना पडा, तो कस्टम चेकिंग की औपचारिकता चल रही थी.

हमारा जब चेकिंग चल रहा था , तो एक अरब अफ़सर मेरे पास आकर मुझे जबरन अंदर ले जाने लगा. मैनें पूछा यह क्यों? तो पता चला कि कुछ आतंकवादीयों की तलाश हो रही थी, और शायद मेरे नाक नक्श और डील डौल की वजह से मुझे भी हिरासत में ले लिया गया.

अंदर कुछ 7-8 व्यक्ति और थे हिरासत में, और सघन पूछ्ताछ चलने लगी. सबके सामान को खोल कर जांचा जाने लगा.

मेरे पास तो क्या था, कुछ ज़रूरी व्यक्तिगत सामान, और हमेशा की तरह मेरा लॆपटॊप एवम कुछ सी डी , अपने प्रोजेक्ट की और कुछ गानों की- मुकेश और मन्ना दा.

जब कुछ नही मिला तो उन्होने अपना मोर्चा सी डी की तरफ़ खोला. कहा की बता दो, अभी भी मौका है , या तो कोई एटोमिक विषय पर कुछ गलत जानकारी हो या फ़िर पोर्नोग्राफ़ी की फ़िल्में. मैने बेझिझक कहा, कुछ नही है, ये तो गानों की सीडीयां है, मुकेश और मन्ना डे पर. संयोग से , मुकेश की एक किताब भी निकल आयी, जो मै अभी पढ रहा था. वह बोला,ये तो सभी कहते है, बाहर कुछ लिखा होता है, अंदर कुछ.

यह सब देख कर उसने अपने वरिष्ठ अफ़सर को बुलाकर यह सब दिखाया.उसके nameplate पर ओमर अब्दुल्ला नाम पढ पाया मैं . उसने बडे रूखे अंदाज़ में पूछा- What Mukesh ?

मैने समझाया- कुछ मुकेश के बारे में तारीफ़ के पुल बांधे, और किताब दिखाई. उसने सीडी चेक करने का आदेश दिया.

मेरा blood pressure बढने लगा, अगले विमान से निकलना जो था . उनसे बिनती की, मगर वे टस से मस नही हुए.

संयोग से सबसे पहले उनके हाथ में लगी कुछ साल पहले रिकॊर्ड की गई मुकेश के गीत पर मेरे आवाज़ के गानों की सीडी, और पहला गीत था - सारंगा तेरी याद में.

वह सिनीयर अफ़सर बैठ गया, बडे गौर से सुनने लगा.मैने कहा- अगली सीडी लगाऊं? उसने कहा- No, continue this.

मैं गरीब ,आशा की कुछ किरण के इंतेज़ार में रुक गया. आज संगीत की सेवा का फ़ल शायद मिल जाये यह दुआ करने लगा.

फ़िर आया गीत- ये मेरा दीवानापन है..

वह भी सुना पूरा. अब मैं आश्वस्त सा हो चला था कि मुकेश या इन मेलोडी भरे गीतों पर मेरा मर मिटना मेरा दीवानापन नही है शायद. इधर समय बीत रहा था. किसी ने कहा - आंखों की पुतली का टेस्ट भी लेना बाकी है अभी. पर ओमर अब्दुल्ला था जो बेगानी शादी मे दिवाना हुए जा रहा था.

अगले गीत - सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं को सुनने के बाद वह चौंक कर उठा,समय ज़्यादा हो गया था शायद और ज्युनियर के कान में कुछ फ़ुसफ़ुसा कर निकल गया. कुछ शब्द मेरे कानों में पडे - मुकेश .. बंदा..

मैं अगले दिव्य की प्रतिक्षा में अपने आप को मज़बूत करने लगा.मगर उस ज्युनियर अफ़सर नें बडे शालीनता से कहा- You may go now!!

मैं चौंक पडा, भगवान को बार बार शुक्रिया कहा और उस अफ़सर को भी , उस फ़रिश्ते ओमर अब्दुल्ला को भी. पूछ ही बैठा - यह क्या चमत्कार है?

तो वह बोला- He said यह मुकेश का बंदा है, यह मुज़रिम(दहशतगर्द) नही हो सकता !!!इसे छोड दो....

मैं चकित था, मेरी आंखों में अश्रु उतर आये थे, कितनी बडी बात कह गया वह बंदा, और कितने बडे उपकार किये मुकेशजी नें मुझ पर!! पलकें झपका कर मै आंसू सुखाने के असफ़ल प्रयास में लग गया.

मेरी वह सभी सीडीयां प्यार से ’जप्त’ कर लीं गयीं, और मुझे छोड दिया गया. खुदा का शुक्र था कि मेरे पास लॆपटॊप में थे वे गाने.

बाद में पता चला कि जनाब ओमर अब्दुल्ला साहबनें हैदराबाद से एल.एल.बी किया था और मुकेश के दिवानों में वे भी शुमार थे!!!

आगे कुछ भी लिखने की , कहने की गुंजाईश ही नही है. मेरे मन को आपने पढ ही लिया होगा. आप के मन में उठती बातें आप लिख सकें तो मुझ पर करम और मुकेश जी पर आपके प्रेम की बानगी..

सारंगा तेरी याद में.. मुकेश ( मूल गीत नहीं )



कहने कि ज़रूरत नहीं की विमान में बैठ कर मैं यह गाने लगा..

सुहाना सफ़र ये मौसम हसीं...


Saturday, September 6, 2008

एकलव्य - सुर ना सजे, क्या गाऊं मैं


गुरु पर्व
(वो जब याद आये, बहोत याद आये)

शिक्षक दिवस पर कईयों नें तो अपने अपने माड साब को याद किया होगा.अपने अपने तईं, कुछ मन से, कुछ जतन से जो यादें संजोई रखी होगी उसकी जुगाली भी की होगी.

व्यवसाय के फ़ेर में भटकने पर मजबूर दिलीप का ये दिल अंदर से कसमसा रहा है, कि कल क्यों नही कुछ लिखा. खैर, आज ही सही. हाले दिल का बयां, दिन के गुज़रने के बाद ही हो सकता है ना?अपना ब्लॊग बाद में ही सही.

तो आज आप लोग थोडा समय मेरे मन के अंतरंग को भी दे, कुछ नितांत व्यक्तिगत , स्वगत..कल से फ़िर अपने मकाम पर वापिस.

आज यहां संगीत की बात करें तो याद आते है मेरे वो गुरुजन , जिनसे मै चाहते हुए भी सीख नही पाया-

भोपाल में उस्ताद सलामत अली खां साहब, जिन्होने मुझे शास्त्रीय संगीत सिखाने का जिम्मा लिया. करीब ६ महिने सिर्फ़ सुर ही लगवाते रहे, मगर परिक्षा में डब्बा गोल होने पर अब्बा हुज़ूर नें फ़ौरन गाने पर पाबंदी लगा दी.शिक्षक दिवस पर उन्हे याद कर ,खुद आंसू बहा के उनसे मुआफ़ी मांग लेता हूं. आज कहां है वे?

इधर इंजिनीयर बनने के बाद जब एम.बी.ए. के लिये इंदौर आया तो एक राखी बहन मिली, कल्पना जो क्लासिकल संगीत की शिक्षा ले रही थी अपने गुरु और पिता श्री मामासहाब मुजुमदार जी से.(कुमार गंधर्व के मित्र).घर पर आना जाना, सुरों की खुशबू से महकती फ़िज़ा, बघार भी लगे तो पंचम और निशाद से.. मगर फ़िर वही कहानी. मामासहाब नें भी कई बार कहा. मगर अपनी ही धुन में रहे.

उन्हे भी कल याद किया.

फ़िर अनायास ही मुड गये सुगम संगीत की ओर. गाने तो बचपन से सुनते ही रहते थे, सभी के गाने, और इसीलिये ये सभी मेरे गुरु है उन्हे भी नमन..

मन्ना डे, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत मेहमूद, हेमंत कुमार ..

इन फ़िल्मी संगीत के मूर्धन्य गायकों ने जो पंचामृत का खजाना रख छोडा है, इसे लूट रहा हूं. अनायास ही एकलव्य की भूमिका में अपने आप को पाता हूं.यहीं से तो कानसेन बने हैं, और तानसेन बनने की ख्वाईश नही..

गज़ल की दुनिया में भी सुनने को मिला मेहंदी हसन और गु़लाम अली को..उनके लिये उनकी लंबी आयु के लिये भी दुआ की.

फ़िर अपने आध्यात्मिक गुरु भी याद आये- नानासाहेब तराणेकर महाराज, और इस्लाम की रूहानी तालीम देने वाले बाबा सत्तार जी.. और मेरी मां भी .. नमन...

नाट्य शास्त्र की अल्प तालीम के लिये विजया मेहता, और चित्रकारी के लिये सच्चिदानंद नागदेवे याद आये..

उच्च संस्कार, सादे रहन सहन और वस्तुनिष्ठ विचारों के लिये और अपने अंदर समाहित इस लेखक के प्रणेता जन्मदाता महामहोपाध्याय डॊ. प्र.ना.कवठेकर को भी व्यक्तिगत रूप से साष्टांग प्रणाम किया.

अंत में whole thing is that कि मन में जो भाव उमड रहे है,उसकी अभिव्यक्ति के लिये मन्ना दा का एक गीत यहां सुनवा रहा हुं, पूर्णतः विचारों के समीप.उसे स्वीकार किजीये.. यह मूल गीत नही है.

सुर ना सजे, क्या गाऊं मैं ..



सुर की सुराही तो रीती ही रह गई.

परसों आशाजी पर कुछ.
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