Wednesday, December 24, 2008

वो जब याद आये बहोत याद आये..हमारे लाडले गायक - मोहम्मद रफ़ी


वो जब याद आये बहोत याद आये,
ग़में ज़िंदगी के अंधेरे में हमने,
चरागे़ मोहोब्बत , जलाये बुझाये...

मोहम्मद रफ़ी..A Legend !!!

एक बेहतरीन गायक, सच्चा कलाकार,मगर उससे भी बेहतर एक कोमल हृदय का मालिक, दिलदार, और सच्चा इन्सान..

आज अगर वे जीवित होते तो पता नहीं क्या होता, मगर वे हमारे दिलों पर ज़रूर राज़ कर रहे होते. वैसे भी आज यही स्थिती है, बस दुख ये है कि वे हमारे साथ नहीं.

इसीलिये, आज के इस पावन दिवस पर हम उस ईश्वर , अल्लाहताला को ज़रूर धन्यवाद देंगे, जिसने, सन १९२४ में इस दुनिया में ये देवदूत भेजा, जिसने अपनी सुरीली ,सुमधुर और मन के अंतरंग को छू जाने वाली आवाज़ से इतने सालों से हम सुनकारों के दिलों में दिली सुकून जगाया.

क्या ठीक कहा है..

दर्दे दिल, दर्दे जिग़र, दिल में जगाया आपने......

रफ़ी जी की जन्म कुंडली

रफ़ी जी की जन्म कुंडली अभी कल ही पुणें में मुझे मिली, तो आपके लिये यहां दे रहा हूं. जिनका भी ज्योतिष का अभ्यास हो उन्हे शायद ये बडी़ सौगात होगी.अगर कोई इसका विश्लेषण कर सके और मुझे दे सके तो यहां पोस्ट कर सकूंगा.

जन्म दिवस - २४ दिसेंबर १९२४
समय - सुबह ३.३० बजे
स्थान - कोटला सुल्तानसिंह , अमृतसर, पंजाब.



रफ़ी जी पर लिख पाना और उनकी उत्तुंग करिश्माई व्यक्तित्व को शब्दों में ढा़ल पाना मेरे जैसे मर्त्य मानव के बस में नहीं.मगर इस चश्मे बद्दूर आवाज़ के साथ इतने साल जागा, सोया, गुनगुनाया,स्टेज पर गाया, खुद अनुभव किया. उनकी चिर युवा आवाज़ के स्वर सामर्थ्य की,मिठास की ,गोलाई की बेइन्तेहां नापी नही जा सकने वाली गुणवत्ता और गहराई को दूर से ही देख सकने की अपनी मजबूरी की यथार्थता सभी याद आ गयी. एव्हरेस्ट की चोटी मैनें जब नेपाल में चल रहे प्रोजेक्ट में देखी थी तो इच्छा तो हुई की उस चोटी को फ़तेह करूं. मगर कोशिश भी करूं तो संभव नहीं था. वैसे ही रफ़ी जी के गीत को गाते हुए मेहसूस हुआ. वे भारतीय फ़िल्म संगीत जगत के एव्हरेस्ट थे.

ये वह आवाज़ थी जो हमें अपनी खुद की आवाज़ लगती है.

तभी तो खुद रफ़ी जी नें क्या सही कहा है..

तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे,
जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे
संग संग तुम भी गुनगुनाओगे..

उन नज़ारों की याद आयेगी
जब खयालों में मुझको लाओगे...


उनकी आवाज़ को तो Timbre या ध्वनिरूप ही यूं था कि हर नायक के चरित्र को गहराई तक अद्ययन कर पूरी तन्मयता से
अपनी आवाज़ में ढाल लेते थे. दिलीप कुमार और शम्मी कपूर की एक दूसरे से मीलों दूर व्यक्तित्व को बखूबी निभाया. जॊनी वाकर और देव आनंद दो अलग अलग ध्रुवों को एक गले में आत्मसात किया वे थे रफ़ी जी.इसीको तो हम परकाया प्रवेश की सिद्धी कह सकते हैं.

याद किजिये देव साहब के लिये दिल का भंवर करे पुकार और बाद में राजेश खन्ना के लिये गुन गुना रहे हैं भंवरे..अमिताभ के लिये ही कहां जॊन जानी जनार्दन और कहां तेरी बिंदिया रे...

जहां शम्मी कपूर के लिये मस्ती भरी उंचे सुरों में गाया हुआ आसमान से आया फ़रिश्ता गाया या आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा ,तो तब भी expressive और musical रहे और एहसान तेरा होगा मुझ पर या मेरी मुहब्बत जवां रहेगी में भी अहेसासात की सीमा पार कर गये.

दिलरुबा दिल पे तू, ये सितम किये जा में या अकेले अकेले कहां जा रहे हो मेम उनका फ़ुसफ़ुसाना ,मांग के साथ तुम्हारा में दिलीप कुमार के लिये गीत के अंत में टांगेवाले का चिल्लाना, काम की बात बता दी अरे कामेडी गाना गाके में जॊनी वाकर के ढंग से हंसना, ’लाल लाल गाल ” में रॊक एन रोल के लिये तूफ़ानी चिल्लाना वह भी सुर में, योडलिंग का गाना आग्रा रोड का सब याद आ रहा है.

एक बार हुवा यूं कि किसी फ़िल्म में राजेंद्र कुमार को लिया जाना था और फ़िल्म के चार गीत भी रेकॊर्ड कर लिये गये थे.मगर उन दिनों ज्युबिली कुमार के पास इतना काम था, और किसी फ़िल्म की शूटिंग के लिये परदेस से आने में उनको ज़रा विलंब हुआ. इसलिये इस फ़िल्म के मिर्माता नें इतना रुकना उचित नहीं समझा और राजेंद्र कुमार की जगह जॊय मुखर्जी को नायक के लिये साईन कर लिया.

हर नायक की छबि, व्यक्तित्व और ढंग को उतरने वाले रफ़ी साहब को जब ये पता चला तो वे उस निर्माता के पास गये और कहा, कि चूंकि जॊय मुखर्जी को लिया है, सभी गीतों को फ़िर से रेकॊर्ड करना चाहिये.जॊय मुखर्जी की स्टाईल शम्मी कपूर से मिलती जुलती थी .संयोग से निर्माता और संगीतकार को ये बात बहुत ही उचित लगी और इसलिये उन सभी गीतों की फ़िर से रिकॊर्डिन्ग की गयी, और उन गीतों नें और फ़िल्म नें सिल्वर ज्युबिली मनाई.

जब इस का मेहनताना रफ़ी जी को निर्माता देने लगे तो उन्होने मना कर दिया. पता है उन्होने क्या कहा?

गाना मेरा पेशा है. मगर मेरे लिये पैसा नहीं पेशा अधिक महत्वपूर्ण है.

चलिये आज इतना ही सही. आज बाकी शाम उनके गीत सुनने में गुज़ारने की तमन्ना है, अगर आप इज़ाज़त दें तो.
अगले दो तीन पोस्ट में भी रफ़ी जी रहेंगे ये वादा. जो दिल में ही नहीं समा पा रहे है, वे तीन चार पोस्ट्स में क्या समायेंगे. फ़िर भी भावुक मन है.भक्तिभाव है, तो इस विराट स्वरूप के अंतर्दर्शन कर के मैं आप दोनों धन्य हों तो क्या हर्ज़ है?

हुई शाम उनका खयाल आ गया...


Friday, December 12, 2008

माने ना मेरा दिल दिवाना ,हाय रे...हाय रे संयोग..

आज ११ दिसेम्बर है.

तो हुआ करे.

नही जनाब. आज मेरे दो दोस्तों की शादी की सालगिरह है, और इसलिये इंदौर के एक प्रतिष्ठित तारांकित हॊटेल सयाजी में जब इनमें से एक मित्र नें आज शाम को शादी की वर्षगांठ पर पार्टी दी तो, दूसरा मित्र भी संयोग से वहीं मिल गया. मुझे अकेला देखकर चौंक कर पूछ बैठा कि भाई साहब, आप अकेले, भाभी जी कहां हैं?

उसका चौंकना इसलिये लाज़मी था क्योंकि संयोग से आज मेरे शादी की भी सालगिरह है, और मेरी पत्नी नेहा अभी पूणें में नूपुर बिटिया के पास है,जो स्वास्थ्य लाभ कर रही है.शादी के बाद पहली बार हम दोनों इस बार साथ साथ नहीं हैं.

जाहिर है, हम सभी मित्रों के साथ ग़म गलत (?)करनें बैठ गये. मेरा तरीका जरा अलग है. चूंकि मैं हमेशा अपनी धुन में अपने नशें में रहता हूं , मुझे किसी और नशे की ज़रूरत नहीं पड़ी आज तक, और इसीलिये फ़्रेश लाईम सोडा़ के नशें में हमने अपनी पत्नी के विरह को सेलिब्रेट किया.दोस्तों को साथ देने के लिये अब तक इतना फ़्रेश लाईम सोडा़ पी चुका हूं कि देखते ही सुरूर आ जाता है.( पैसा भी नही लगता!!)

डिसेंबर महिना है, अभी भी रातें ठंडी़ नही हुई. वर्ना अब तक हमेशा इतनी थंड़ बढ़ जाती थी कि मेरी दूसरी बिटिया मानसी की नाक हमेशा बहती रहती थी, क्योंकि उसे अक्सर सर्दी लग जाती थी. वो आज बोली,पापा , आज पहली बार मेरे जन्मदिन पर मुझे सर्दी नहीं हुई है.

ओह,तो शायद मैंने बताया नहीं कि आज संयोग से उसका भी जन्मदिवस है, और वो मेरे साथ, और पत्नी नेहा ,नूपुर के साथ.अब कोई और संयोग नही है, निश्चिंत रहिये.

नही, अभी खत्म नही हुआ है ये संयोग. ज़रा दिल थामके बैठिये और सुनिये ..

ये जो मेरे मित्र मुझे मिले थे अभी, जिनकी शादी उसी साल हुई थी, मेरे शादी वाले दिन ही हुई थी. और ये मेरे मित्र बने कश्मीर में, जब संयोग से वे भी हनीमून पर श्रीनगर पहूंचे थे और हम एक ही फ़्लाईट से श्रीनगर उतरे.

इन्दौर वालों की ये खा़सियत है, कि कहीं भी बाहर मिल जायें तो एक दम घुल मिल जायेंगे,भले ही पहली बार मिलें हों.(इन्दौर में मिलें तो यही बात हो ये ज़रूरी नही!!). तो हमने बाकी दिन साथ ही घूमने देखने का प्लान किया.

एक बडा़ शोख़ वाकया याद आया जो आज भी हमने याद किया और बहुत हंसे भी,जो आपको नज़र कर रहा हूं. अब आप से क्या पर्दा( पर्दा नहीं जब कोई खुदा से, दोस्तों से पर्दा करना क्या जब ..)

एक शाम हम खिलनमर्ग में घुडसवारी के लिये गये, तो शाम लगभग हो चुकी थी और झुरमिटी अंधियारा सा होने जा रहा था. हमने चार घोडे तय किये और दोनो कपल घोडों पर बैठ ,हौले हौले हाथों में हाथ डाले क्षितिज की तरफ़ बढने लगे.

चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो..


अलग अलग.

जरा अलग अलग को रेखांकित किजिये,क्योंकि यहां भी संयोग ने गड़्बडी़ की थी.कहीं गाना भी चल रहा था- कोइ प्यार की देखे जादुगरी , गुलफ़ाम को मिल गयी सबज़परी...

अभी हम प्यार की जादुगरी देख ही रहे थे कि अचानक हमने पाया कि गुलफ़ाम को सब्ज़परी मिलने की बजाय दोनो गुलफ़ामों के घोडे एक साथ मिल कर किसी तीसरी राह पर चल पडे़ थे, और दोनों सब्ज़परीयों के घोडे़ पीछे ही रह गये. हमने लाख कोशिशें कीं , बडा ज़ोर भी लगाया मगर वो हो न सका जिसकी हमें जुस्तजू थी. घोडे़ थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे .

बस फ़िर क्या, मैं और मेरी तनहाई, और साथ में दूसरा गुल्फ़ाम तनहा सा, सहमा सा,क्योंकि घोडे़ वाले भी पीछे कहीं ओझल हो गये थे. फ़िर उस नशीली रात में , उस ठंड में मैनें उस मित्र से कहा कि ज़रा ठंड रख, क्योंकि ये कोई फ़िल्म नही है, जो कुंभ के मेले में हम लोग बिछड जायेंगे.कोइ जतन कर के इन चलते हुए घोडों से उतरने की तरकीब निकाली जाये. जब भी हम कोई कोशिश करते,घोडे़ स्पीड़ बढा देते!!

ये भी संयोग था कि दोनो घोडे साथ साथ ही चल रहे थे, जैसे कि जय और वीरु हों, नहीं तो ये भी अलग अलग हो जाते तो कहीं मुंह दिखाने को नहीं रह जाते ( दरसल रात के अंधेरे में मुंह ही नही दिख रहा था, और कौनो दू्जी बात नाही है रे बावरों !)

अब हमारे मराठीयों में तो घोडी चढ़ के तो दुल्हन नहीं लाते, हम तो बग्गी में लाये थे. इसलिये उसे कहा की मेरे पंजाब दे पुत्तर, तूने तो अभी अभी घोड़ी चढी थी, तो तु बता कैसे उतरे.

वो क्या बोलता, रुआंसां होते हुए बोला, चढने का तो एक्सपेरियेंस है, मगर उतरने का नहीं.अच्छा हुआ कि उसने ये नहीं कहा कि नाचने वाली घोडी का ए़क्सपेरिएंस है.

अब हमारी भगवान को याद करने की फ़ोर्मेलिटी करने की बारी थी.शायद उसे भी हमारे दया आ गयी होगी, बॆकग्राउंड में गाना तो नहीं बजा,कि मेरा तो जो भी कदम है, वो तेरी राह में है, के तू कहीं भी रहे तू मेरी निगाहों में है.
खरामा खरामा घोडे़ रुक गये , और पहली फ़ुर्सत में हम दोनो घुड़सवार से ज़मीनदोस्त हुए.हम बस्ती से दूर निकल आये थे, मगर इस बात का शुक्र मना रहे थे कि हमारी बेटर हाफ़ जोडी़ होटेल से दूर नहीं थीं, तो उनकी चिंता नहीं थी.

बस क्या था, हम दोनों जय और वीरु की तरह चलते चलते ये गीत याद करते करते, गुनगुनाते हुए होटल पहुचे कि-

तू कहां , ये बता, इस नशीली रात में ,
माने ना मेरा दिल दिवाना ,हाय रे...


होटल पहुंच कर सबसे पहले हमने अपने अपने डाग़ चेक किये और फिर पिल पडे़ उस घोडे़वाले पर जो हमारी राह देख रहा था.
उसकी भी हालत पतली थी, क्योंकि उसके घोड़े तो अभी भी गायब थे.

हमने तो सबसे पहले उससे जवाब तलब किया कि ऐसे कैसे घोड़े दे दिये तूने, कि हम अपनों से जुदा हो गये.

पता है उसने क्या कहा? हाय रे ,फिर वही संयोग..

मित्रों ,वे घोडे़ जय और वीरू नहीं थे, मगर वीरू और बसंती थे...


और इसलिये साथ साथ थे कि प्यार किया तो ड़रना क्या ?प्यार किया कोई चोरी नहीं की.आयी बात समझ में?

(बाद में होटल छोडने तक कोई ब्रेकिंग न्यूज़ नही मिली की दो हंसो के जोडे़ को बिछड़वाने वाली उस घोडा़ घोडी़ की जोडी़ का क्या हुआ. हमारा तो हनीमून खतम हुआ, मगर शायद उनका चल रहा होगा!!)

आज इस घटना को याद करते करते हम दोनो अपनी अपनी घोडी़ पर चढ़ कर, माफ़ किजिये कार में चढ कर घर को लौटे.

अब बस , सोचा आपसे क्या छिपाऊं, तो हाले दिल बयां कर दिया.

दिल क्यों चहका रे चहका आधी रात को, बेला महका रे महका आधी रात को,

मगर अकेलेपन के एहसास में ऐसे कई गीत दरवाज़े पर दस्तक देने लगे जैसे- अकेले है चले आओ.. रफ़ी साहब , मुकेश,तलत आदि ने मेरे इर्दगिर्द जमावडा़ कर लिया और मुझे सांत्वना देने लग गये.

वही गीत,जो पहले कभी रिकोर्ड किया था, आज यहां लगा देता हूं.

तू कहां , ये बता, इस नशीली रात में ..

लगाऊं या ना लगाऊं ? चलो लगा ही देते हैं... दिल ही तो है..

Monday, December 1, 2008

बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया...


कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया,
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया....


आज अभी तक दिल ग़मगीन है, दो तीन दिनों पहले के घावों की टीस अभी तक मन से रिस रही है. जैसे जैसे और मुम्बई की घटनायें सामने आ रही है,उन अपनों के बारे में पता चल रहा है,जो पिछले दिनों में इन आतंकवाद के दानव की भेंट चढ गये.उनके साथ बिताये पलों की, क्षणों की याद जो खिलते हुए फूलों के मसलने की दास्तान बयां कर रहीं है.वे नजदीकी अपने , जो रब से ये भी पूछ पाने की स्थिती में अभी नहीं है, कि उनके साथ ही ऐसा क्यूं हुआ, जब काल नें अपने क्रूर हाथों से उनकी बगिया की महकती फ़ुलवारी को उजाड़ दिया.

किन किन की अफ़सुर्दा-दिली बयां करूं, किस किस का दर्द भरा अफ़साना सुनाऊं और जब वे बार बार सामने याद आते है, तो मन उन जाने पहचाने चेहरों की याद भुला नहीं पाता है, जो अक्सर मुम्बई प्रवास में मिलते रहते हैं, या अब भारी मन से कहें ............थे.

अब वे कभी नहीं मिलेंगे.

किसीने अपने ब्लोग पर खूब लिखा है(सौरभ कुदेशिया-http://satat-vichar-manthan.blogspot.com/2008/11/blog-post_29.html) कि मेरे परिवार के १३० लोग मरे है,मौत हो गई है मेरे घर में.

पता नहीं क्यूं ये सवालात जेहन में टकरा रहे हैं कि ये कब तक? आज एक गाना ना जाने क्यूं लबों पर बार बार आ रहा है.

चलो वह गीत आपके को भी सुना देता हूं- हवा में ठंडक बढ गयी है, फिर भी उद्वेलित विचारों की तपन , आंच दिल को जला रही है. सूखे टहनीयों के जलने से चटखने की आवाज़ें बढ गयी है.

इस गीत को बिना साजो सामान के , बिना किसी भूमिका के सुना रहा हूं. वाओलीन ,हार्मोनियम, तबला आदि की आवाज़ कमज़ोर पड़ गयी है, बंदूकों के , गोलीयों की आवाज़ के सामने.सिर्फ़ मैं, मेरी तनहाई, और सर पर पंखे की गिरघिर.. जो हृदय में शूल उत्पन्न कर रही हैं- आंसूंओं का सैलाब थमने और थामने का जतन चल रहा है कि गीत को भी दो तीन बार में रेकॊर्ड करना पडा़.

मर्द हूं तो शायद ये स्वीकार करने मे शरम आये कि ..

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया-

जो है सो है.
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