Monday, December 1, 2008

बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया...


कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया,
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया....


आज अभी तक दिल ग़मगीन है, दो तीन दिनों पहले के घावों की टीस अभी तक मन से रिस रही है. जैसे जैसे और मुम्बई की घटनायें सामने आ रही है,उन अपनों के बारे में पता चल रहा है,जो पिछले दिनों में इन आतंकवाद के दानव की भेंट चढ गये.उनके साथ बिताये पलों की, क्षणों की याद जो खिलते हुए फूलों के मसलने की दास्तान बयां कर रहीं है.वे नजदीकी अपने , जो रब से ये भी पूछ पाने की स्थिती में अभी नहीं है, कि उनके साथ ही ऐसा क्यूं हुआ, जब काल नें अपने क्रूर हाथों से उनकी बगिया की महकती फ़ुलवारी को उजाड़ दिया.

किन किन की अफ़सुर्दा-दिली बयां करूं, किस किस का दर्द भरा अफ़साना सुनाऊं और जब वे बार बार सामने याद आते है, तो मन उन जाने पहचाने चेहरों की याद भुला नहीं पाता है, जो अक्सर मुम्बई प्रवास में मिलते रहते हैं, या अब भारी मन से कहें ............थे.

अब वे कभी नहीं मिलेंगे.

किसीने अपने ब्लोग पर खूब लिखा है(सौरभ कुदेशिया-http://satat-vichar-manthan.blogspot.com/2008/11/blog-post_29.html) कि मेरे परिवार के १३० लोग मरे है,मौत हो गई है मेरे घर में.

पता नहीं क्यूं ये सवालात जेहन में टकरा रहे हैं कि ये कब तक? आज एक गाना ना जाने क्यूं लबों पर बार बार आ रहा है.

चलो वह गीत आपके को भी सुना देता हूं- हवा में ठंडक बढ गयी है, फिर भी उद्वेलित विचारों की तपन , आंच दिल को जला रही है. सूखे टहनीयों के जलने से चटखने की आवाज़ें बढ गयी है.

इस गीत को बिना साजो सामान के , बिना किसी भूमिका के सुना रहा हूं. वाओलीन ,हार्मोनियम, तबला आदि की आवाज़ कमज़ोर पड़ गयी है, बंदूकों के , गोलीयों की आवाज़ के सामने.सिर्फ़ मैं, मेरी तनहाई, और सर पर पंखे की गिरघिर.. जो हृदय में शूल उत्पन्न कर रही हैं- आंसूंओं का सैलाब थमने और थामने का जतन चल रहा है कि गीत को भी दो तीन बार में रेकॊर्ड करना पडा़.

मर्द हूं तो शायद ये स्वीकार करने मे शरम आये कि ..

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया-

जो है सो है.

5 comments:

Smart Indian said...

"बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया..."
बहुत ही दुःख की बात है.

Sanjeev said...

कुछ यह भी कह रहे होंगे कि ऐ मुम्बई...
बहुत आरजू थी गली की तेरी...
कि यां से लहू में नहा के चले।

Unknown said...

आ हा हा: क्या बात कही है दीलीप जी आपने. आप जैसे लोग इंजीनियरिंग छोड़ कर राजनीति में आने चाहिये.हम सब दर असल में बात कर के अपने काम में लग जाते हैं.आपके लेख में जैसा दर्द दीख रहा है लगता कवी प्रदीप वह गीत ऐ मेरे वतन के लोगो सुन लिया.....वतन प्रेम की ये बयार बहाते रहिये यू ही.

Anonymous said...

उर्दू -हिन्दी का जो गंगो-जमन आपकी जुबान में बहता है वह अदभुत है.लगता है आपने बाकयादा उर्दू की तालिम ली है.आपके लेखन को हजारों सलाम हमारे.

सायरा हुसेन

Karla Garrison said...

I enjoyeed reading your post

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