Thursday, January 29, 2009
चैन से हमको कभी, आपने जीने ना दिया... ओ.पी.नय्यर ..
रिधम किंग - ओ.पी. नैय्यर ,
कडी़ - १ -
कल उनकी पुण्य तिथी थी, २८ जनवरी को. अभी अभी दो साल ही तो हुए उन्हे हमसे बिछडे़.
फ़िल्मी संगीत की सुरीली दुनिया में कई संगीतकार हुए, जिन्होने अपनी अपनी प्रतिभा के बल पर हम संगीत प्रेमीयों को दिये नायाब खज़ानों की शक्ल में अलग अलग रागों में, emotions और संवेदना लिये हुए ढाई तीन मिनीट के गीत. जिनमें आप पाते है उस गाने का थीम या बेसिक खयाल, उसकी फ़िल्म में पूर्वपीठिका या वर्तमान स्वरूप, ज़ज़बात, मूड्स,मुख्त़सर से भावपूर्ण बोल जो गीतकार या शायर के जीनीयस मन की गहराई से निकले हैं, नवरसों को अपनी गिरफ़्त में लिये स्वरावली, गायक या गायिका का मेलोडी से भरपूर सुरीला अंदाज़, और सबसे महत्वपूर्ण उस संगीतकार के अपने SIGNATURE!!!
निसंदेह इतने सारे संगीतकारों में अपना अपना एक जुदा स्वर संयोजन होता है, जो अच्छे सुनकार बखूबी पहचान लेते है.ऐसी संगीतकारो की फ़ेरहिस्त में ओंकार प्रसाद नैय्यर का नाम शीर्ष पर है.
आपने सुना ही होगा उनकी रचनाओं में एक स्थाई भाव है हर गीत की रिदम. शास्त्रीय संगीत की कोई तालीम नही होने के बावजूद, उनकी पकड़ चलत वाले रिदम के गानों पर कितनी थी ये बताना नही पडेगा.इसीलिये उन्हे फ़िल्म इंडस्ट्री में रिदम किंग कहा जाता है.
पंजाब की नदियों के धारों सी अठखेलियां करती हुई ढो़लक की खींचती खींचती थाप,
(सुभानल्ला हसीं चेहरा, लेके पहला पहला प्यार, आईये मेहरबान,वो हसीन दर्द दे दो जिसे मैं गले लगा लूं...)
या तांगे में बैठ कर घोडों की टापों की लयकारी ,
(पिया पिया पिया मोरा जिया पुकारे, मांग के साथ तुम्हारा, ज़रा हौले हौले चलो मेरे साजना..)
या पाश्चात्य बीट्स से तली हुई हौले हौले आंच पर सीकी हुई ताल
(जाईये आप कहां जायेंगे,बंदा परवर थाम लो जिगर, मैं प्यार का राही हूं,ए दिल है मुश्किल जीना यहां....)
आपको नैय्यर साहब के हर गीत में मिल जायेगी. साथ में सारंगी की मींड भरी फ़ुहार, या क्लेरोनेट और म्य़ुट ट्रम्पेट की जुगलबंदी या सितार और फ़्ल्युट की बिजलियां एक जगह हो जायें तो नैय्यर की जादूगरी का कमाल आकार ले्ता था और हिस्ट्री बन जाती थी.(दीवाना हुआ बादल..)
क्या आपको सुनकर आश्चर्य नही होगा, कि सुबह की ओस की बूंदों के स्वर लिये गीत - आपके हसीन रूख पर में जहां पाश्चात्य संयोजन के लिये पियानो का उपयोग किया गया है, इंटरल्युड और अंतरे के संगम पर पृष्ठभूमि में कहीं पीछे आपको सारंगी का हलका हलका कंटिन्युटी नोट मिलता है, जो कमाल का है!!! ( ज़रा कान लगा कर सुनिये )
फ़्ल्युट का स्थाई स्वर तो है ही!!!
रफ़ी साह्ब के हसीन गलें से निकले इस नायाब मधुर गीत में आपको हर जगह बला की कशिश और शोखियां मिलेंगी और शबाब की बिजलीयों का अंडर करंट स्वरों की सुकून भरी तरन्नुम में आप यूं नहायेंगे जैसे कि सुबह सुबह किसी कुनकुने झरने से स्नान कर के आ रहे हों...
आज इस कडी़ में मैं एक अजीब सा संयोग बताना चाहूंगा जो दो साल पहले १६ जनवरी को उनकी जन्मतिथी पर घटा था.
मैं उस दिन मुंबई में था काम के सिलसिले में, और साथ ही मेरे बडे़ भाई साहब सुरेंद्र भैया के लडके अंकित को हिंदुजा अस्पताल में भरती किया गया था ब्रेन सर्जरी के लिये.सर्जरी के दूसरे दिन सुबह मैं और मेरे भैय्या अस्पताल के बाहर के किसी अच्छे रेस्टोरेंट में नाश्ता करने गये.
साथ ही के टेबल पर दो ६० के लगभग की उम्र के व्यक्ति बैठे थे और चर्चा का विषय था - ऒ पी नैय्यर . उन्होने बातों ही बातों में बताया कि उस दिन नैय्यर साहब का जन्म दिन था और वे बाद में उनसे मिलने उनके घर जा रहे थे.(वे हर साल जाते थे).
मैंने उत्सुकतावश कहा कि मैं भी जाना चाहूंगा, अगर उन्हे ऐतराज़ ना हो. उन्होने हर्ष से स्वीकार किया और हम निकले उनके नये ठिकाने थाना में , जहां वे विरार के बाद रहने आये थे.
दिल की धड़कनों को जब्त करते हुए जब हम उस घर की सीढी़ से उपर चढने लगा तो फ़िज़ा में संगीत की स्वर अणु बिखरे होने सा आभास मुझे होने लगा. ( य़े मेरा दिवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर, कोई ना पहचाने तो है ये उसकी नज़रों का कसूर)
मैं रास्ते भर में लोकल में और फ़िर रिक्शा में उनके गीतों को गुनगुनाता आ रहा था, और नैय्यरमय हो गया था तब तक.
लेकिन खुदा को ये मंज़ूर नहीं था कि मेरा उनसे मिलने का सपना सच हो.वहां, जिनके घर में सबटेनेंट बन कर वो रह रहे थे उस युवा महिला में हमसे कहा कि वे अब किसीसे भी नहीं मिलते, और खासकर उनके जन्म दिन पर. इसलिये वे तारापोर के आदिवासी इलाके में सुबह से ही निकल गये है, जहां वे एक होमियोपेथी का क्लिनीक सा चलाते थे.
बडे ही मायूसी से उनके दर से हम निकल पडे़. जाते जाते उनके कमरे की खुली खिडकी में से उस रूम को देखा- कहीं कोई संगीत का साज़ या फ़िल्मी दुनिया से जुडी कोई यादगार ट्रोफ़ी या चित्र नदारद थे, सिर्फ़ टेबल पर पडी थी उनकी एक टोपी - जैसे के ज्वेल थीफ़ में देव आनंद नें पहनी थी.
उस टोपी को खामोशी भरा सलाम करते मैं सीढी उतर गया - ये गाते गाते -
चैन से हमको कभी, आपने जीने ना दिया...
ज़हर भी चाहा अगर पीना तो पीनी ना दिया....
बस दो हफ़्तों बाद अचानक ये खबर से सामना हुआ-
प्रख्यात संगीतकार ओ.का निधन............
Sunday, January 18, 2009
मेरी कहानी भूलने वाले, तेरा जहां आबाद रहे.., नौशाद और रफ़ी - अद्वितीय जुगलबंदी
कड़ी नं. २
नौशाद और रफ़ी
नौशाद और रफ़ी जी के अद्वितीय जुगलबंदी का जलवा जो मेला फ़िल्म के गीत से दुनिया के नोटीस में आया वह दुलारी फ़िल्म के गाने - सुहानी रात ढ़ल गई , ना जाने तुम कब आओगे? के बाद और परवान चढा़ और मोहम्मद रफ़ी का नाम हर फ़िल्मी गीत सुनने वाले की ज़ुबान पर चढ़ गया.
मैंने पिछली कडी़ में लिखा था कि जब सहगल के साथ रफ़ी जी नें गाया तो हर गायक की तरह रफ़ी जी पर भी उनकी गायन शैली का प्रभाव पडा़. या यूं कहें, उस समय का गाने का तौर तरीका या स्टाईल ही सहगल की शैली पर आधारित था.मगर रफ़ी साहब के गले का मूल Timbre या स्वर स्वरूप मीठास लिये साफ़ सुथरा था.उन्हे सहगल के धीर गंभीर खरज की आवाज़ जैसा बनाने के लिये बडा़ प्रयत्न करना पडता था. ये नौशाद ही थे जिनने रफ़ी की रेंज और तार सप्तक में(याने ऊपर के ऒक्टेव में)पूरी एनर्जी लेवल से गा पाने की क्षमता का आकलन किया और उसका उपयोग एक अलग शैली विकसित कर हम जैसे संगीत प्रेमीयों पर अहसान किया. बाद में इसी तरह लता जी नें भी नूरजहां या सुरैया की शैली से बाहर निकल कर स्वयं की साफ़ और मीठास भरी गायक शैली की पहचान बनाई. मैं यहां ये नहीं कहना चाहूंगा कि सहगल या नूरजहां की शैली में कोई खराबी या गलती नहीं थी, मगर फ़िल्मों की पेस या चाल की तरह गानों में भी लय, स्पीड बढी़, और उस नये वातावरण में रफ़ी की आवाज़ नें उस गॆप को बखूबी भरा.
इस बात पर नौशाद जी नें ये संस्मरण बताया था , कि रफ़ी जी भी खरज या लोवर ऒक्टेव में ही गीत गाते थे तो फ़िल्म दीदार के गानों की रिकोडिन्ग के दिनों में नौशाद नें रफ़ी से जब ये कहा की तुम्हारा आवाज़ खरज में यूं म्लान लगता है, जैसे की गला दबा रखा है. ज़रा खुल के गाओ, और गांभीर्य का पुट जरा हलका करो, ताकि जवां और अपरिपक्व नायक के नये चरित्र का प्रोजेक्शन हो सके.
रफ़ीजी को बात जंच गई.मगर उन्होनें नौशाद साहब से ही कहा कि आप ही कोई ऐसी धुन बनायें तो मैं उसे गाने की कोशिश कर सकूंगा.
तो उस कालजयी गाने की धुन नें जन्म लिया -
मेरी कहानी भूलने वाले, तेरा जहां आबाद रहे..
जब ये धुन नौशाद नें रफ़ी को सुनाई, तो पहली बार तो वे सुन कर एकदम अवाक ही रह गये, क्योंकि उससे पहले दिल्लगी, अनमोल घडी़ , मेला आदि फ़िल्मों की धुनों से ये तर्ज़ एकदम अफ़लातून ही थी.फ़िर भी रफ़ी ने ये चेलेंज सर आंखों पर लेकर रात दिन मेहनत की. कई बार नौशाद जी को फ़िर पूछा कि यहां समझ नही आ रहा है, कृपया फ़िर से बतायें. उस नई शैली के गीत को इस तरह कई बार मांजा गया, क्योंकि उस समय नौशाद नें वहां वहां थोडा़ मुरकी में या स्वरों के उतार चढाव में बदलाव किया जिससे रफ़ी जी के गले की तरलता की , लचीलेपन के अनोखे गुण से गीत के माधुर्य में मेलोडी़ में अद्भुत रसोत्पादन हो सके.साथ साथ वे रफ़ी जी के आत्मविश्वास को भी बढा़वा देते रहे.
आखिर एक दिन आया और रफ़ी जी नें कहा मैं तैयार हूं और आनन फ़ानन में दो तीन ट्रायल में ही गाना रेकोर्ड़ कर डाला!!
संयोग से इस फ़िल्म के नायक युसुफ़ दिलीप कुमार , निर्देशक नितिन बोस भी इस ध्वनिमुद्रण के समय एच एम वी के फ़्लोरा फ़ाउंटन के स्टुडियो में हाज़िर थे. जब रफ़ी रिकोर्डिंग खत्म कर रूम से बाहर आये तो दोनों नें रफ़ी जी को कस के गले लगा लिया, और कहने लगे कि ये गाना हिट होने से कोई भी नहीं रोक सकेगा.
उन दिनों गाना फ़िल्म के लिये ध्वनि मुद्रित तो होता ही था जो फ़िल्म के ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक के हिसाब से बनाया जाता था, जिसमें तीन स्टॆन्झा होते थे .मगर साथ में 78 rpm की डिस्क जिसे हम रिकोर्ड कहते थे,के लिये भी अलग ट्रॆक रिकोर्ड होता था, क्योंकि सीमित जगह की वजह से अमूमन दो ही स्टॆंन्झा उसमें आ पाते थे. इसीलिये आप को मालूम ही होगा कि रेडियो पर या अधिक जगह पर वही संस्करण बाज़ार में सुना जाता था. बाद में जब लॊंन्ग प्लेयिंग रिकोर्ड का उद्भव हुआ तो वहां हम लोगों के लिये ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक उपलब्ध होनें लगा.
तो उस समय उर्जावान गानें की आपाधापी में रिकोर्डिस्ट जी एन जोशी बोले, कि अभी समय है, अगर रफ़ी जी थक नहीं गये हों तो दूसरा वर्शन भी आज ही कर लें? रफ़ी जी नें तपाक से हां भर ली, और दूसरा वर्शन भी आनन फ़ानन में मुद्रित हो गया. तो जोशी जी जिन्होने इससे पहले कई गायकों को रिकोर्ड किया था ,नौशाद साहब से बोले- नौशादसहाब, ये नौजवान गायक तो निराला ही है, कोहिनूर से भी ज़्यादा चमक पैदा करेगा, इंडस्ट्री में खूब कामयाबी हासिल करेगा. नौशाद बोले- इंशाल्लाह !!!
चलो , सुनते है- मेरी कहानी ..
आपने सुना और देखा- स्थाई में रफ़ी जी खरज में पंचम तक और अंतरे में तार सप्तक में भी पंचम तक चले जाते है !! क्या बात है, किस अजब , गज़ब रेंज का मुजहिरा किया है जनाब . मगर ये भी मानना पडेगा कि अभिनय के सम्राट दिलीप कुमार इस गाने के उत्तुंग स्वरों को अभिनय के साथ मिलान नहीं कर पाये...(क्या आप सहमत है?)
(चलो आगे बढें या तीसरी कडी ? नही मेरे फ़र्मा रवा..आगे चलिये!)
और फ़िर क्या था, ऐसे खुली आवाज़ वाले गानों का चलन बढने लगा और उस शैली का विकास हुआ जिसमें खुले स्वर के साथ True Notes का उपयोग कलात्मक मुरकियों और संवेदनशील भावना से भीगे स्वरों का अभिर्भाव हिंदी फ़िल्मों के हुआ , जो अब तक चलता आ रहा है. (बाद में किशोर कुमार नें True notes के साथ साथ False notes की सुरमई संमिश्रण की शैली विकसित की जिसका वृहद रूप आज के गायकों की गायन शैली में दिखता है- इसका जिक्र बाद में जब हम किशोर और रफ़ी के स्वरों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, अगले किसी पोस्ट में)
रफ़ी जी नौशाद साहब नें की हौसला अफ़ज़ाई को कभी भूल नही पाये, और उनके स्वभाव में भी ये बर्ताव रच बस गया, जो बाद में कई स्थान पर हमें देखने को मिला. नौ्शाद साहब हमेशा उनके गॊड फ़ादर रहे.जब रफ़ी जी की बिटिया की शादी का न्योता देनें रफ़ी नौशाद जी के यहां पहुंचे तो कहा आपको आना है, निकाह का इंतेज़ाम और पार्टी ताजमहल होटल पर रखी है, तो नौशाद जी नें उन्हे कहा - कि अपनी बिटिया नें अपना बचपन अपने घर में गुज़ारा है, जहां लाखों यादें और भावनांयें उस वास्तु के साथ बाबस्ता हैं , तो मेरा सुझाव है कि आप शादी तो अपने घर से ही करिये, भले ही वह छोटी जगह है.वही हुआ , शादी उनके घर में (रफ़ी विला) ही हुई.
बकौल नौशाद के - एक साल बाद, जब रफ़ी नाम का ये सूरज अर्श पर स्थापित हो गया था, तो बैजु बावरा फ़िल्म के एक गानें के बारे में एक विशेष प्रभावित करने वाला संस्मरण सुनिये.
इस फ़िल्म में छोटा बैजु और उसके पिताजी रास्ते पर से साचो तेरो नाम नाम गाते गाते तानसेन की हवेली के सामने से जाने का प्रसंग था.इस गीत के लिये बैजु बावरा के पिता की आवाज़ के लिये मैने रफ़ी का चयन किया, और बैजु की बालक आवाज़ के लिये एक गुणी और तैयार बच्चे का चयन किया, जिसका इस तरह का प्ले बॆक देने का पहला ही अवसर था.ज़ाहिर है, वह रफ़ी जी के सामने कभी बिचकने या डरने लगा तो कभी घबराकर अटकने लगा. तो रफ़ी जी नें उस प्रतिभावान बालक को प्रेम से पुचकार कर गले से लयाया और उसका आत्मविश्वास जागृत किया.ये भी कहा कि बेटा घबराने की कोई बात नहीं है, तुम जब तक बोलोगे या संतुष्ट होगे , हम लोग गाते रहेंगे. बडी मेहनत के बाद वह गीत तैय्यार हुआ और बेहद अच्छा बना.
पता है वह बालक कौन था- आज का प्रसिद्ध गायक, और संगीतकर हृदयनाथ मंगेशकर...!!!
जानकारी - साभार स्वयं नौशाद..
रफ़ी जी पर कडी़ और आगे भी- सी रामचन्द्र, महेंद्र कपूर , चित्रगुप्त , ओ पी नय्यर , जिन्हे हम इस जनवरी में याद कर रहे हैं जन्म दिन या बरसी पर, उनके साथ रफ़ी के गीतों को और उनके साथ यादों की जुगाली करेंगे - हम लोग...
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Monday, January 12, 2009
पं. कुमार गंधर्व- एक सुर गंधर्व, शास्त्रीय संगीत के हिमालय
सुर गंधर्व- पं. कुमार गंधर्व,
कुमार गंधर्व भारतीय शास्त्रीय संगीत के सुरपटल पर एक शीर्ष चमकता शुक्र तारा.
अभी आज ही उनकी पुण्य तिथी थी.( १२ जनवरी १९९२)
सभी जानते ही हैं , कि मेरे शहर को ये फ़क्र हासिल है कि भारत रत्न लता मंगेशकर की ये जन्मस्थली है, और उस्ताद आमिर खां,उस्ताद रजब अली खां ,चित्रकार एफ़ एम हुस्सैन और बेंद्रे , मूर्तिकार फ़डके आदि महान हस्तीयों कि कर्म भूमी भी रही है. वैसे ही कुमार गंधर्व जी का उत्तुंग व्यक्तित्व भी इसी मालव अंचल में अपने परवान चढा,जो अपने आपमें एक स्कूल है.(वे मेरे शहर इंदौर से ३५ किमी पर बसे एक कस्बानुमा शहर देवास के निवासी थे).
मैं स्वयं को इतना का़बिल नहीं समझता कि कुमार जैसी संगीत की बड़ी हस्ती के बारे में या उनके प्रयोगात्मक संगीतयात्रा के बारे में कुछ भी कह सकूं. यूं तो बचपन से ही उनके गायकी से रुबरू होनें का मौका मिलता रहा था, संगीतसभाओं में और व्यक्तिगत रूप से भी.
मगर कभी भी उनके करीब जाकर उनसे सिर ऊठा कर बात करने या कुछ भी पूछने का साहस कभी नही उठा पाया, क्योंकि उनके लोकगीतों के प्रयोगों और गले की जादुगरी को समझने की कूवत आज तक नहीं आ पायी है मुझमें.भविष्य में
कभी इस काबिल हुआ तो ज़रूर हाज़िरे खिदमत हूंगा.
मैं तो बस उनके साथ के बिताये कुछ मधुर क्षणों की यादें जो अभी तक बाबस्ता है मन के किसी साफ़ सुथरे कोनें में ,जो आपके साथ शेयर करनें की गुस्ताखि़ कर रहा हूं.
सबसे पहले जब मैं उन्हे मिला तो मुझ बावले को पता ही नहीं था कि वे कितनी महान हस्ती थी. मेरी सुर बहन कल्पना के स्वयंसिद्ध गायक संगीतकार श्री मामा साहब मुजुमदार के यहां मैं उनसे मिला. पुराने करीबी मित्र होने के कारण कुमार जी भी अक्सर वहां आते रहते थे, और वे दोनों रागों और बंदिशों पर घण्टों चर्चा में डूबे रहते थे.मेरे पिताजी से भी उनके काफ़ी घनिष्ट मित्र संबंध थे, और मामा साहब ने, मेरे बारे में भी सहज कह दिया कि मैं भी गाता हूं.
कुमार जी तपाक से पूछ बैठे - कौन कौन राग पूरे कर लिये हैं.उन्हे लगा कि मैं मामा साह्ब का गण्डा बंध शिष्य हूं.मैं बडे़ ही खिन्न मुद्रा में बोल उठा कि मैं शास्त्रीय संगीत नहीं गाता,मगर फ़िल्मी गाने गाता हूं.तो उस स्वर महर्षी नें मेरे पीठ पर हाथ रख कर कहा, कि वे मेरे पिताजी से बात करेंगे कि मुझे भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा सिखायें.
बाद में कई सालों बाद उनके निधन से कुछ दो तीन साल पहले हम फिर आमने सामने हो गये.देर रात किसी शादी के रिसेप्शन से लौटते हुए मैं पार्किंग से अपनी कार निकाल कर निकल ही रहा था तो कुमारजी भी उसी शादी के समारोह से निकल कर सड़क पर कुछ खोजते हुए मिले.
वास्तव में वे किसी मित्र या पहचान वाले की कार में देवास से आये थे, और लौटते हुए उन्हे याद ही नही रहा कि वह कौन सी कार थी, जिससे उन्हे ड्राईव्हर छोड़ गया था.
खैर बडी़ परेशानी और खोज बीन के बाद भी वह कार नहीं मिली तो मैनें सकुचाते हुए उनसे मेरे कार में चलने की विनती की, क्योंकि ये अलभ्य लाभ मेरे भाग्य में देवों द्वारा ही तो प्रदान किया गया था. वे भी प्राथमिक संकोच के बाद मान गये, और फ़िर क्या था,मै उन्हे लेकर देवास निकल पडा.
जैसे ही वे जब मेरी मारुती में बैठे, मुझे तो होश नहीं था कि मेरे गाडी़ में टेप रिकॊर्डर में लता जी फ़िल्मी गानों की केसेट लगी थी. बम्बई आगरा रोड पर आते ही मुझे होश आया और मैने माफ़ी मांगते हुए टेप बंद करने का जतन करने लगा.लेकिन तुरंत ही कुमारजी नें मुझे रोक दिया और कहा- कोई बात नही, लता गा रही है.कितना अच्छा गा रही है, तो सुनते है, अतः चलने दो.
फ़िर क्या था, मैं तो गद गद हो गया.लगा टू लेन की जगह सड़क एट लेन हो गयी है. मारुती की जगह मैं किसी एयर कंडिशंड रोल्सराईस में बठा हुआ हूं. शबे मालवा की रात में, चौदहवी के चांद के किरणों की फ़ैली हुई आभा की दूधिया रोशनी में चुप से खोये से कुमार गंधर्व जी, और लता जैसी स्वर किन्नरी की आवाज़ में वह गीत- नैना बरसे रिमझिम - मदन मोहन की जादुई बन्दिश के संमोहन में गूंथा हुआ... और मेरी आंखों के कोने में उमड पड़ रहीं बूंदों का सैलाब, जिसे खुली खिड़की से आते हुए सर्र सर्र हवा से सुखानें का जतन कर रहा मैं... ..
स्वर्ग यहीं है, यहीं है, यहीं है....
सुहाने सपनों के पार, धडकते दिल की इल्तेजा लिये हुए ये बेशकिमती क्षण मेरे यादों की खिडकी पर अब भी दस्तक दें रहे है.उनके निवास स्थान भानुकुल पर छोडते हुए उन्होनें कहा कि संगीत फ़िल्मी हो या लोक धुन हो या कबीर वाणी, या आर्ट का कोई भी फ़ॊर्म हो, जो उस भगवान से मिला दे, वही ग्राह्य है. लता का गाना सुनते हैं तो यूं लगता है, जैसे गंगोत्री पर बैठ कर गंगा आचमन कर रहे हों.
श्रेष्ठ व्यक्ति का श्रेष्ठत्व इसी सरलता में प्रतिध्वनित होता है.
साथ ही में एक और जुडी़ हुई याद फिर शेयर करूंगा.
बरसों बाद अभी अभी तीन चार साल पहले की बात.स्व. मामा साह्ब मुजुमदार की वार्षिक पुण्य तिथी पर बहन कल्पना हर साल के तरह शास्त्रीय संगीत का ये आयोजन किया था, जिसमें देश के एक बडे़ कलाकार को प्रस्तुति के लिये बुलाया गया था ( नाम नहीं बता पाऊंगा). कार्यक्रम के बाद मेरे मित्र और कल्पना के पति श्री उमेश नें आग्रह किया कि उन्हे होटल छोड आऊं क्योंकि उन्हे व्यवस्था समेटनी थी.समय वही आधी रात.
तो मैं , वे प्रसिद्ध कलाकार, जब गाडी में बैठे तो उनके साथ उनका स्थानीय तबलची और एक नवयुवक भी बैठा, जिसे समारोह में लोग बहुत आदर दे रहे थे. पता चला कि वह कुमार जी का पौत्र है. सहज ही मैंने भी उसे आदर पूर्वक कार में बिठाया, जो उनके साथ ही होटल जाना चाह रहा था.
फ़िर वही बात हुई. संयोग से लताजी की केसेट लगी हुई थी.
मगर पता है क्या हुआ? कुमार जी के उस पौत्र नें बडी ही अशालीनता से मुझे लगभग ऒर्डर ही दे दिया- भाई ये क्या लगा रखा है. बंद करो ये बकवास. मैं चौंक कर कुछ सोच पाता ,साथ बैठे उस बडे कलाकार नें जो अच्छे कार्यक्रम के बाद तारी हुए आलम की मस्ती में ही था ( किसी और मस्ती में नही)- उसका समर्थन करते हुए बडी बे अदबी से मुझे कहा, ये क्या फ़िल्मी संगीत लगा रखा है. बंद करो.
मैं आपको बता दूं, मैं जब एक सिपाही की भूमिका में रहता हूं तो एक अनुशासन के दायरे में लेफ़्ट राईट करता हुआ हुक्म बजा लाता हूं. मगर जब कोई मेरे देश पर ,मेरे आराध्यदेवता पर यूं मानसिक हमला करे तो मेरा सिपाही विद्रोह कर देता है.
मैंनें अचानक ब्रेक लगा कर गाडी रोकी, और उन दोनों संगीत भक्तों (?) से शालीनता के फ़ेंसिंग पर बैठ कर कहा- मैं कोई ड्राईव्हर नहीं हूं. लता मंगेशकर के गानें तो बजेंगे ही.आप हमारे मेहमान है.आपको नहीं सुनना है तो मैं आपको किसी और गाडी़ में बिठा देता हूं.
अब उन दोनों की जो अवस्था हुई उसे हमारे मालवा में कहते हैं- तबियत हरी हो गई!!!
खैर छोड़ तो मैं आया ही, मगर मुझे वो यादों के बक्से में रखी हुई रात के बात याद आयी, बडे वटवृक्ष की भांति ’पर्सोना’रखने वाले कुमारजी का लता जी के प्रति निर्मल और अंहकार रहित आदर याद आया, और फिर याद आया ऐसे कलाकारों का बर्ताव, जो बांस की तरह ऊंचे या लंबे तो भले ही हो गये हों , मगर छांव देने की पात्रता नहीं अर्जित कर पाये.
ठीक कहा है किसी ने..
कोहनी तक उगे हुए लोग, बरगद की ऊंचाई नापने चले हैं.
चलो अब ये गीत सुन लेते हैं.रफ़ी जी पर चल रहे शृंखला को इसी हफ़्ते फ़िर अपने एट लेन वाली सडक पर, सुरों की रोल्स राईस में... वादा...
नैना बरसे रिम झिम रिम झिम..
Friday, January 2, 2009
ना जाने तुम कब आओगे- रफ़ी और नौशाद - Musical Legends
कडी़ - १
पिछली बार मैंने आप से वादा किया था कि रफ़ी साहब के साथ भारतीय फ़िल्म जगत के एक महानतम संगीतकार जनाब नौशाद अली के बारे में कुछ लिखूंगा.
वैसे आप लोग तो मेरे वादों से तंग आ गये होंगे. मुझे याद है, मैने ’दिलीप के दिल से ’ की संगीत ब्लॊग यात्रा शुरु की थी तो बाकायदा रफ़ी साहब के लिये एक Structured , योजनाबद्ध लेखमाला शुरु की थी. आपमें से कई लोगों के लिये अब भी शायद उसे पढना अच्छा लगे.
मगर , भावुकता और प्रेमवश और साथ ही में तिथियों के लिहाज से अलग अलग विषयों पर लिखना शुरु किया.कभी समय अभाव रहा तो अधिकांश ब्लॊग समय से लेट ही लिख पाया.वैसे मैंने सोचा था कि समय पर सभी लिखेंगे, अगर मैंने बाद में भी लिखा तो क्या, ठीक तो लिखना ही पडेगा.
तो देखा आपने, मैने पहले भी रफ़ी जी पर ७ पोस्ट लिख डा़ले है, और एक पोस्ट थी रफ़ी और नौशाद का अज़ीम शाहकार - मधुबन में राधिका नाचे रे...
(http://dilipkawathekar.blogspot.com/2008/08/blog-post_14.html)
अभी पिछले हफ़्ते २४ दिसेंबर को रफ़ी साहब का और २५ दिसेंबर को नौशाद जी का जन्म दिन था. तो ये पोस्ट उन दोनों के नाम समर्पित है.आगे भी वही पुरानी प्लानिंग के हिसाब से चल देंगे, सिर्फ़ एक उस पोस्ट को लिख कर जिसका वादा किया था - एस.डी.बर्मन,गुरुदत्त, प्यासा,हेमंत कुमार ,साहिर, रफ़ी सबसे जुडा एक संस्मरण.( फ़िर वादा..वादा तेरा वादा..)
रफ़ी और नौशाद ये दोनो नाम एक दूसरे के पूरक रहे हैं इसमें कोई शक नही. रफ़ी साहब नें तो इतने सारे संगीतकारों के साथ काम किया, मगर नौशाद नें रफ़ी के अलावा बाकी गायकों के साथ अनुपात से कम ही काम किया.इसके बारे में नौशाद नें हमेशा कबूल किया था कि उनकी धुनों को सबसे बेहतर सिर्फ़ रफ़ी ही गा सकते थे.
अब देखिये ना. सन १९४४ में किसीने रफ़ी जी को नौशाद जी के वालिद से मिलवाया और उन्होने नौशाद जी के लिये एक शिफ़ारशी खत लिख कर दिया. नौशाद नें उसका मान रखते हुए रफ़ीजी को एक कोरस गीत में सबसे पहले चांस दिया -
पहले आप (१९४४)जिसमें उनके सह गायक थे दुर्रानी, श्याम कुमार, अल्लाउद्दिन, मोतीराम आदि.गाने के बोल थे -
" हिन्दोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा, हिंदु मुस्लिम दोनों की आंखों का तारा " .
चूंकि उन दिनों माईक एक ही हुआ करता था, सभी गायक उसे घेर के खडे हुए. सैनिकों पर फ़िल्माये इस गीत के मार्चिंग रिदम के लिये सभी गायकों को आर्मी के बूट पहनाये गये और ओरिजिनल ध्वनी रिकोर्ड की गयी.१९ वर्ष के रफ़ी के पैरों में छाले पड गये थे. मगर वो था उनके करियर का आगाज़, और वे थे एक उदियमान कलाकार,क्या बोल पाते?
मगर यहां एक बात जो कम लोगों को मालूम होगी बताना चाहूंगा, जिससे, रफ़ी जी के निर्मल और गर्व रहित चरित्र का दर्शन होता है.वह उस समय की बात है, जब वे फ़िल्मी संगीत के सर्वश्रेष्ठ और मशहूर पार्श्वगायक हो गये थे, और लगभग ६०% से ज़्यादा के अनुपात में उन्हे गीत गाने को कहा जाता था.
लगभग सन १९६४-६५ की बात थी, जब संगीतकार मदन मोहन फ़िल्म हकीकत के लिये एक भावुक प्रसंग का समर गीत रिकॊर्ड कर रहे थे जिसमें रफ़ी जी के साथ मन्ना डे,तलत महमूद और भूपेन्द्र भी सह गायक थे.
होके मजबूर मुझे , उसने भुलाया होगा...
उस समय तो निस्संदेह रफ़ी साहब का नाम ऊंचाईयों पर था.मगर परेशानी फ़िर भी वही थी, एक ही माईक. उस पर संयोग ये कि बाकी सभी गायक उनसे कद में थोडे लंबे ही थे. तो परेशानी ये दर पेश आयी कि माइक को किसके हिसाब से एड्जस्ट किया जाये? अब रफ़ी साहब के हिसाब से एड्जस्ट करते हैं तो बाकीयों को परेशानी, और रफ़ी जी से कहने का सवाल ही नही पैदा होता था ऐसा उनका स्टेटस था उन दिनों.
मगर सरल और निश्छल मन के रफ़ी साहब ने खुद ही ये सुझाव दिया कि वे बाकी सभी के हिसाब से हाईट फ़िक्स कर दें, और वे किसी तरह से किसी स्टूल पर चढ कर गा लेंगे. तो साहब, आनन फ़ानन में स्टूल ढूंढा गया, मगर एक मिला भी तो थोडा छोटा पडा, जिससे रफ़ी साहब माईक से फिर भी नीचे ही रह गये. फ़िर भी रफ़ी साहब नें पूरे रिहल्सल में और फ़ाईनल टेक तक उस स्टूल पर चढ कर गाना रिकॊर्ड करवाया. और कमाल देखिये उनकी आवाज़ के थ्रो या एनर्जी लेवल का कि उनके स्वरों में और गले की जादुगरी की गहराई में कोई कमी नहीं आयी.(उन दिनों इतनी सारी तकनीकी मदत नही मिला करती थी)
(प्रस्तुत चित्र उसी गानें की रिकोर्डिंग का है )
अभी कुछ सालों पहले, जब भूपेन्द्र नें लता मंगेशकर पुरस्कार समारोह मे बतौर कलाकार एक कार्यक्रम देनें इन्दौर आये थे, तब इस बात की पुष्टि स्वयम उन्होने की और कहा कि उनमें बडे़ कलाकार होने का कोई भी दंभ नहीं था. निसंदेह , उस समय के उपस्थित सभी गायकों में वे सबसे शीर्ष पर थे, मगर मन्ना दा,और तलत मेहमूद को पूरी श्रद्धा और इज़्ज़त देते थे और यही ज़ज़बा इन मूर्धन्य कलाकारों के व्यवहार में झलकता था.उस दिन ये दोनों भी काफ़ी असहज से थे ये देख कर कि इतना बडा कलाकार उनकी वजह से स्टूल पर खडा हो कर गाने में नहीं हिचकिचा रहा है.
(इस गीत पर कभी और लिखूंगा - स्वर पक्ष और संस्मरण पर- फ़िर एक वादा- !!!!)
आप सभी ये बात तो जानते ही होंगे कि रफ़ी, किशोर दा, हेमंत दा, मुकेश, लता सभी सेहगल साहब के दिवाने थे, और दिल के अंदर एक सपना पाल के रखा था सहगल के साथ गानें का, मगर संयोग ये रहा कि सिर्फ़ रफ़ी जी का ही ये सपना पूरा हो पाया ,जब नौशाद जी नें ही दुबारा रफ़ी को मौका दिया सहगल के साथ गानें में फ़िल्म शहाजहान में ( १९४६) जब मजरूह द्वारा लिखे गये गीत " रूही रूही रूही, मेरे सपनों की रानी " में उन्हे दो लाईन गाने का मौका मिला.
मगर असल में रफ़ीजी को वास्तव में एक असली पार्श्वगायक बनने का जब उन्हे नौशाद साहब नें ही फ़िर मौका दिया फ़िल्म अनमोल घडी में (१९४६)- तेरा खिलौना टूटा बालक जिसमें रफ़ी जी नें गायकी के साथ अदायगी का भी एक नया रंग भरा पार्श्वगायन की विधा में, और फिर शुरु हुआ एक नया युग.
आप मेरी बात से सहमत होंगे कि इसके पहले के सुपर गायक सहगल जब गाते थे तो वे केवल अपने ही गाने पर पार्श्व गायन करते थे जो फ़िल्म के उनके चरित्र पर सूट करती ही थी. मगर जब बाद में पार्श्व गायन का ज़माना आगे आने लगा तो ज़रूरत पडनें लगी ऐसे गायकों की जो अलग अलग अभिनेताओं के अलग अलग चरित्र से ना केवल मेल खाये, गीत सुनते हुए श्रोता के मन में गायक और अभिनेता एकरूप हो जायें. रफ़ी साहब नें अपने अलग अंदाज़ से फ़िल्म इंडस्ट्री का चलन और फ़िल्मी गीतों का स्वरूप ही बदल गया, जिसे बाद में अन्य मूर्धन्य गायकों नें भी अपनाया और हमें इतनी अच्छी अच्छी कालजयी संगीत रचनाओं से धन्य धन्य कर दिया.
मगर नौशाद साहब को रफ़ी जी को खोजने और बनाने का श्रेय ज़रूर जाता है, और ये वे ही तो थे जिन्होने ये पाया कि रफ़ी साहब की आवाज़ में ना केवल मधुरता थी, या दमदार थ्रो था, मगर उनकी आवाज़ में गज़ब की रेंज थी, ऊंचाई थी. उनकी आवाज़ की कशिश और दर्द की रवानी तो थी ही ,मगर उनके गले में जो जादुई हरकतें थी,जो तानें और आलाप का नियंत्रित मेनिफ़ेस्टेशन था, वो तो कुछ और ही बंदिश या धुन मांगता था. नौशाद जी नें ये चेलेंज स्वीकार किया और हमें ऐसी धुनें दीं, जो उनके उन दिनों की कम्पोझिशन से अलग थी- फ़िल्म मेला (१९४८) - ये ज़िन्दगी के मेले .
फ़िर क्या था , सन १९४९ से एक से एक मधुर गीतों की झडी लग गयी- दुलारी, अंदाज़, चांदनी रात, दिल्लगी & So On....नौशाद ही वे संगीतकार थे, जिन्होने भारतीय संगीत की मेलोडी को गीतों में ढा़ला, शास्त्रीय रागों और लोकगीतों के अनमोल खज़ानों को आम आदमी के दिलों के भीतर उंडेल कर रख दिया, जिसके लिये हम उनके बडे ही शुक्रगुज़ार है.उनकी एक एक धुन मानों स्वरोंकी कशीदाकारी किये हुए पैरहन है.
आज ही विविध भारती पर नश्र किये गये एक कार्यक्रम में खुद लता जी ने क्या खूब कहा - कि पहले हमारे संगीतकार जो गीत रचते थे उनमें गायक या गायिका का गाना प्रधान होता था, और रिलीफ़ देने, या स्वरों के अम्बियेन्स को और खुलाने के लिये ऒर्केस्ट्रा हुआ करता था. आजकल तो ऒर्केस्ट्रा प्रधान और सर्वोपरी हो गया है, और गायक को रिलीफ़ के लिये डाला जाता है. नौशाद साहब उस स्कूल के संगीतकार थे.
एक और दिलचस्प बात.फ़िल्म अंदाज़ में नौशाद जी नें पहली बार लताजी के साथ एक ड्युएट गवाया रफ़ी जी के साथ- यूं तो आसपास में .. .क्या आपने नोट किया? इसे राज कपूर पर फ़िल्माया गया और दिलीप कुमार के लिये मुकेश जी नें गाया.( मैने ये फ़िल्म नही देखी है, मगर सुना है.आप कंफ़र्म करें तो बेहतर होगा)
बाद में यही कॊंबिनेशन उलटा ही मशहूर हुआ ये आप सभी जानते है.
चलो , ये कडी़ यहीं विराम चाहती है, अगले अंक में नौशाद और रफ़ी जी के अनेक खुशनुमा और हृदयस्पर्शी संस्मरण ले आऊंगा, अगर इज़ाज़त हुई तो.
यहां उस गीत का एक अंश सुनवा रहा हूं , जो रफ़ी साहब का प्रथम गीत था.
करीब ८ साल पहले इंदौर में रफ़ी साहब पर दिये गये एक कार्यक्रम- रफ़ी के अनेक भाव रंग मे प्रस्तुत करने के लिये मेरे आग्रह पर श्री संजय पटेल नें ये गीत मेरे लिये लाने की ज़ेहमत उठाई थी - श्री सुमन भाई चौरसिया के रिकॊर्ड भंडार में से - तो उस की विडिओ से निकाल कर यहां पेश कर रहा हूं.जीवन की सबसे बडी़ दुखद बात ये रही कि मेरे गायकी का इतना बडा लंबा सफ़र मैने वैसे तो मधुबन में राधिका नाचे गीत से सात साल की उम्र में किया, मगर बाद में संयोग से या दुर्भाग्य से, रफ़ी और नौशाद का एक भी गीत चाहते हुए भी स्टेज पर नही गा सका. ( सुहानी रात ढल चुकी- शायद एक बार गाया था)
तो सुनिये ’ हिंदोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा....’
पिछली बार मैंने आप से वादा किया था कि रफ़ी साहब के साथ भारतीय फ़िल्म जगत के एक महानतम संगीतकार जनाब नौशाद अली के बारे में कुछ लिखूंगा.
वैसे आप लोग तो मेरे वादों से तंग आ गये होंगे. मुझे याद है, मैने ’दिलीप के दिल से ’ की संगीत ब्लॊग यात्रा शुरु की थी तो बाकायदा रफ़ी साहब के लिये एक Structured , योजनाबद्ध लेखमाला शुरु की थी. आपमें से कई लोगों के लिये अब भी शायद उसे पढना अच्छा लगे.
मगर , भावुकता और प्रेमवश और साथ ही में तिथियों के लिहाज से अलग अलग विषयों पर लिखना शुरु किया.कभी समय अभाव रहा तो अधिकांश ब्लॊग समय से लेट ही लिख पाया.वैसे मैंने सोचा था कि समय पर सभी लिखेंगे, अगर मैंने बाद में भी लिखा तो क्या, ठीक तो लिखना ही पडेगा.
तो देखा आपने, मैने पहले भी रफ़ी जी पर ७ पोस्ट लिख डा़ले है, और एक पोस्ट थी रफ़ी और नौशाद का अज़ीम शाहकार - मधुबन में राधिका नाचे रे...
(http://dilipkawathekar.blogspot.com/2008/08/blog-post_14.html)
अभी पिछले हफ़्ते २४ दिसेंबर को रफ़ी साहब का और २५ दिसेंबर को नौशाद जी का जन्म दिन था. तो ये पोस्ट उन दोनों के नाम समर्पित है.आगे भी वही पुरानी प्लानिंग के हिसाब से चल देंगे, सिर्फ़ एक उस पोस्ट को लिख कर जिसका वादा किया था - एस.डी.बर्मन,गुरुदत्त, प्यासा,हेमंत कुमार ,साहिर, रफ़ी सबसे जुडा एक संस्मरण.( फ़िर वादा..वादा तेरा वादा..)
रफ़ी और नौशाद ये दोनो नाम एक दूसरे के पूरक रहे हैं इसमें कोई शक नही. रफ़ी साहब नें तो इतने सारे संगीतकारों के साथ काम किया, मगर नौशाद नें रफ़ी के अलावा बाकी गायकों के साथ अनुपात से कम ही काम किया.इसके बारे में नौशाद नें हमेशा कबूल किया था कि उनकी धुनों को सबसे बेहतर सिर्फ़ रफ़ी ही गा सकते थे.
अब देखिये ना. सन १९४४ में किसीने रफ़ी जी को नौशाद जी के वालिद से मिलवाया और उन्होने नौशाद जी के लिये एक शिफ़ारशी खत लिख कर दिया. नौशाद नें उसका मान रखते हुए रफ़ीजी को एक कोरस गीत में सबसे पहले चांस दिया -
पहले आप (१९४४)जिसमें उनके सह गायक थे दुर्रानी, श्याम कुमार, अल्लाउद्दिन, मोतीराम आदि.गाने के बोल थे -
" हिन्दोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा, हिंदु मुस्लिम दोनों की आंखों का तारा " .
चूंकि उन दिनों माईक एक ही हुआ करता था, सभी गायक उसे घेर के खडे हुए. सैनिकों पर फ़िल्माये इस गीत के मार्चिंग रिदम के लिये सभी गायकों को आर्मी के बूट पहनाये गये और ओरिजिनल ध्वनी रिकोर्ड की गयी.१९ वर्ष के रफ़ी के पैरों में छाले पड गये थे. मगर वो था उनके करियर का आगाज़, और वे थे एक उदियमान कलाकार,क्या बोल पाते?
मगर यहां एक बात जो कम लोगों को मालूम होगी बताना चाहूंगा, जिससे, रफ़ी जी के निर्मल और गर्व रहित चरित्र का दर्शन होता है.वह उस समय की बात है, जब वे फ़िल्मी संगीत के सर्वश्रेष्ठ और मशहूर पार्श्वगायक हो गये थे, और लगभग ६०% से ज़्यादा के अनुपात में उन्हे गीत गाने को कहा जाता था.
लगभग सन १९६४-६५ की बात थी, जब संगीतकार मदन मोहन फ़िल्म हकीकत के लिये एक भावुक प्रसंग का समर गीत रिकॊर्ड कर रहे थे जिसमें रफ़ी जी के साथ मन्ना डे,तलत महमूद और भूपेन्द्र भी सह गायक थे.
होके मजबूर मुझे , उसने भुलाया होगा...
उस समय तो निस्संदेह रफ़ी साहब का नाम ऊंचाईयों पर था.मगर परेशानी फ़िर भी वही थी, एक ही माईक. उस पर संयोग ये कि बाकी सभी गायक उनसे कद में थोडे लंबे ही थे. तो परेशानी ये दर पेश आयी कि माइक को किसके हिसाब से एड्जस्ट किया जाये? अब रफ़ी साहब के हिसाब से एड्जस्ट करते हैं तो बाकीयों को परेशानी, और रफ़ी जी से कहने का सवाल ही नही पैदा होता था ऐसा उनका स्टेटस था उन दिनों.
मगर सरल और निश्छल मन के रफ़ी साहब ने खुद ही ये सुझाव दिया कि वे बाकी सभी के हिसाब से हाईट फ़िक्स कर दें, और वे किसी तरह से किसी स्टूल पर चढ कर गा लेंगे. तो साहब, आनन फ़ानन में स्टूल ढूंढा गया, मगर एक मिला भी तो थोडा छोटा पडा, जिससे रफ़ी साहब माईक से फिर भी नीचे ही रह गये. फ़िर भी रफ़ी साहब नें पूरे रिहल्सल में और फ़ाईनल टेक तक उस स्टूल पर चढ कर गाना रिकॊर्ड करवाया. और कमाल देखिये उनकी आवाज़ के थ्रो या एनर्जी लेवल का कि उनके स्वरों में और गले की जादुगरी की गहराई में कोई कमी नहीं आयी.(उन दिनों इतनी सारी तकनीकी मदत नही मिला करती थी)
(प्रस्तुत चित्र उसी गानें की रिकोर्डिंग का है )
अभी कुछ सालों पहले, जब भूपेन्द्र नें लता मंगेशकर पुरस्कार समारोह मे बतौर कलाकार एक कार्यक्रम देनें इन्दौर आये थे, तब इस बात की पुष्टि स्वयम उन्होने की और कहा कि उनमें बडे़ कलाकार होने का कोई भी दंभ नहीं था. निसंदेह , उस समय के उपस्थित सभी गायकों में वे सबसे शीर्ष पर थे, मगर मन्ना दा,और तलत मेहमूद को पूरी श्रद्धा और इज़्ज़त देते थे और यही ज़ज़बा इन मूर्धन्य कलाकारों के व्यवहार में झलकता था.उस दिन ये दोनों भी काफ़ी असहज से थे ये देख कर कि इतना बडा कलाकार उनकी वजह से स्टूल पर खडा हो कर गाने में नहीं हिचकिचा रहा है.
(इस गीत पर कभी और लिखूंगा - स्वर पक्ष और संस्मरण पर- फ़िर एक वादा- !!!!)
आप सभी ये बात तो जानते ही होंगे कि रफ़ी, किशोर दा, हेमंत दा, मुकेश, लता सभी सेहगल साहब के दिवाने थे, और दिल के अंदर एक सपना पाल के रखा था सहगल के साथ गानें का, मगर संयोग ये रहा कि सिर्फ़ रफ़ी जी का ही ये सपना पूरा हो पाया ,जब नौशाद जी नें ही दुबारा रफ़ी को मौका दिया सहगल के साथ गानें में फ़िल्म शहाजहान में ( १९४६) जब मजरूह द्वारा लिखे गये गीत " रूही रूही रूही, मेरे सपनों की रानी " में उन्हे दो लाईन गाने का मौका मिला.
मगर असल में रफ़ीजी को वास्तव में एक असली पार्श्वगायक बनने का जब उन्हे नौशाद साहब नें ही फ़िर मौका दिया फ़िल्म अनमोल घडी में (१९४६)- तेरा खिलौना टूटा बालक जिसमें रफ़ी जी नें गायकी के साथ अदायगी का भी एक नया रंग भरा पार्श्वगायन की विधा में, और फिर शुरु हुआ एक नया युग.
आप मेरी बात से सहमत होंगे कि इसके पहले के सुपर गायक सहगल जब गाते थे तो वे केवल अपने ही गाने पर पार्श्व गायन करते थे जो फ़िल्म के उनके चरित्र पर सूट करती ही थी. मगर जब बाद में पार्श्व गायन का ज़माना आगे आने लगा तो ज़रूरत पडनें लगी ऐसे गायकों की जो अलग अलग अभिनेताओं के अलग अलग चरित्र से ना केवल मेल खाये, गीत सुनते हुए श्रोता के मन में गायक और अभिनेता एकरूप हो जायें. रफ़ी साहब नें अपने अलग अंदाज़ से फ़िल्म इंडस्ट्री का चलन और फ़िल्मी गीतों का स्वरूप ही बदल गया, जिसे बाद में अन्य मूर्धन्य गायकों नें भी अपनाया और हमें इतनी अच्छी अच्छी कालजयी संगीत रचनाओं से धन्य धन्य कर दिया.
मगर नौशाद साहब को रफ़ी जी को खोजने और बनाने का श्रेय ज़रूर जाता है, और ये वे ही तो थे जिन्होने ये पाया कि रफ़ी साहब की आवाज़ में ना केवल मधुरता थी, या दमदार थ्रो था, मगर उनकी आवाज़ में गज़ब की रेंज थी, ऊंचाई थी. उनकी आवाज़ की कशिश और दर्द की रवानी तो थी ही ,मगर उनके गले में जो जादुई हरकतें थी,जो तानें और आलाप का नियंत्रित मेनिफ़ेस्टेशन था, वो तो कुछ और ही बंदिश या धुन मांगता था. नौशाद जी नें ये चेलेंज स्वीकार किया और हमें ऐसी धुनें दीं, जो उनके उन दिनों की कम्पोझिशन से अलग थी- फ़िल्म मेला (१९४८) - ये ज़िन्दगी के मेले .
फ़िर क्या था , सन १९४९ से एक से एक मधुर गीतों की झडी लग गयी- दुलारी, अंदाज़, चांदनी रात, दिल्लगी & So On....नौशाद ही वे संगीतकार थे, जिन्होने भारतीय संगीत की मेलोडी को गीतों में ढा़ला, शास्त्रीय रागों और लोकगीतों के अनमोल खज़ानों को आम आदमी के दिलों के भीतर उंडेल कर रख दिया, जिसके लिये हम उनके बडे ही शुक्रगुज़ार है.उनकी एक एक धुन मानों स्वरोंकी कशीदाकारी किये हुए पैरहन है.
आज ही विविध भारती पर नश्र किये गये एक कार्यक्रम में खुद लता जी ने क्या खूब कहा - कि पहले हमारे संगीतकार जो गीत रचते थे उनमें गायक या गायिका का गाना प्रधान होता था, और रिलीफ़ देने, या स्वरों के अम्बियेन्स को और खुलाने के लिये ऒर्केस्ट्रा हुआ करता था. आजकल तो ऒर्केस्ट्रा प्रधान और सर्वोपरी हो गया है, और गायक को रिलीफ़ के लिये डाला जाता है. नौशाद साहब उस स्कूल के संगीतकार थे.
एक और दिलचस्प बात.फ़िल्म अंदाज़ में नौशाद जी नें पहली बार लताजी के साथ एक ड्युएट गवाया रफ़ी जी के साथ- यूं तो आसपास में .. .क्या आपने नोट किया? इसे राज कपूर पर फ़िल्माया गया और दिलीप कुमार के लिये मुकेश जी नें गाया.( मैने ये फ़िल्म नही देखी है, मगर सुना है.आप कंफ़र्म करें तो बेहतर होगा)
बाद में यही कॊंबिनेशन उलटा ही मशहूर हुआ ये आप सभी जानते है.
चलो , ये कडी़ यहीं विराम चाहती है, अगले अंक में नौशाद और रफ़ी जी के अनेक खुशनुमा और हृदयस्पर्शी संस्मरण ले आऊंगा, अगर इज़ाज़त हुई तो.
यहां उस गीत का एक अंश सुनवा रहा हूं , जो रफ़ी साहब का प्रथम गीत था.
करीब ८ साल पहले इंदौर में रफ़ी साहब पर दिये गये एक कार्यक्रम- रफ़ी के अनेक भाव रंग मे प्रस्तुत करने के लिये मेरे आग्रह पर श्री संजय पटेल नें ये गीत मेरे लिये लाने की ज़ेहमत उठाई थी - श्री सुमन भाई चौरसिया के रिकॊर्ड भंडार में से - तो उस की विडिओ से निकाल कर यहां पेश कर रहा हूं.जीवन की सबसे बडी़ दुखद बात ये रही कि मेरे गायकी का इतना बडा लंबा सफ़र मैने वैसे तो मधुबन में राधिका नाचे गीत से सात साल की उम्र में किया, मगर बाद में संयोग से या दुर्भाग्य से, रफ़ी और नौशाद का एक भी गीत चाहते हुए भी स्टेज पर नही गा सका. ( सुहानी रात ढल चुकी- शायद एक बार गाया था)
तो सुनिये ’ हिंदोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा....’
नये वर्ष २००९ की शुभकामना
मेरे संगीत के सुरीले सफ़र के हमसफ़र मित्रों,
आप का यह नया वर्ष २००९ और सुरीला हो. विविध रंगों और रागों की सरगम आपके सुबहों , दिनों , शामों और रातों को जगमगाये रखे, यही शुभकामना.
आपसे भी ये गुज़ारिश , प्रार्थना कि आपके प्रेम और स्नेह की फ़ुआरें मुझ पर करम फ़रमायें और इसी तरह आपके लिये लिखने की प्रेरणा मिलती रहे,सृजनात्मक और रचनात्मक लेखन एवं मेलोडी भरे चिट्ठे लिखने के लिये समय निकाल सकूं ,इसके आशिर्वाद की प्रार्थना.
रफ़ी साहब की अगली कडी़ में रफ़ी और नौशाद पर अगली कडी़ आजकल में ही पायेंगे..
और हां, एक अच्छी और सुखद खबर. अपनी श्रोता बिरादरी का जाजम फिर बिछ गया है, कृपया पधारें..लुत्फ़ उठायें..
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