कडी़ - १
पिछली बार मैंने आप से वादा किया था कि रफ़ी साहब के साथ भारतीय फ़िल्म जगत के एक महानतम संगीतकार जनाब नौशाद अली के बारे में कुछ लिखूंगा.
वैसे आप लोग तो मेरे वादों से तंग आ गये होंगे. मुझे याद है, मैने ’दिलीप के दिल से ’ की संगीत ब्लॊग यात्रा शुरु की थी तो बाकायदा रफ़ी साहब के लिये एक Structured , योजनाबद्ध लेखमाला शुरु की थी. आपमें से कई लोगों के लिये अब भी शायद उसे पढना अच्छा लगे.
मगर , भावुकता और प्रेमवश और साथ ही में तिथियों के लिहाज से अलग अलग विषयों पर लिखना शुरु किया.कभी समय अभाव रहा तो अधिकांश ब्लॊग समय से लेट ही लिख पाया.वैसे मैंने सोचा था कि समय पर सभी लिखेंगे, अगर मैंने बाद में भी लिखा तो क्या, ठीक तो लिखना ही पडेगा.
तो देखा आपने, मैने पहले भी रफ़ी जी पर ७ पोस्ट लिख डा़ले है, और एक पोस्ट थी रफ़ी और नौशाद का अज़ीम शाहकार - मधुबन में राधिका नाचे रे...
(http://dilipkawathekar.blogspot.com/2008/08/blog-post_14.html)
अभी पिछले हफ़्ते २४ दिसेंबर को रफ़ी साहब का और २५ दिसेंबर को नौशाद जी का जन्म दिन था. तो ये पोस्ट उन दोनों के नाम समर्पित है.आगे भी वही पुरानी प्लानिंग के हिसाब से चल देंगे, सिर्फ़ एक उस पोस्ट को लिख कर जिसका वादा किया था - एस.डी.बर्मन,गुरुदत्त, प्यासा,हेमंत कुमार ,साहिर, रफ़ी सबसे जुडा एक संस्मरण.( फ़िर वादा..वादा तेरा वादा..)
रफ़ी और नौशाद ये दोनो नाम एक दूसरे के पूरक रहे हैं इसमें कोई शक नही. रफ़ी साहब नें तो इतने सारे संगीतकारों के साथ काम किया, मगर नौशाद नें रफ़ी के अलावा बाकी गायकों के साथ अनुपात से कम ही काम किया.इसके बारे में नौशाद नें हमेशा कबूल किया था कि उनकी धुनों को सबसे बेहतर सिर्फ़ रफ़ी ही गा सकते थे.
अब देखिये ना. सन १९४४ में किसीने रफ़ी जी को नौशाद जी के वालिद से मिलवाया और उन्होने नौशाद जी के लिये एक शिफ़ारशी खत लिख कर दिया. नौशाद नें उसका मान रखते हुए रफ़ीजी को एक कोरस गीत में सबसे पहले चांस दिया -
पहले आप (१९४४)जिसमें उनके सह गायक थे दुर्रानी, श्याम कुमार, अल्लाउद्दिन, मोतीराम आदि.गाने के बोल थे -
" हिन्दोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा, हिंदु मुस्लिम दोनों की आंखों का तारा " .
चूंकि उन दिनों माईक एक ही हुआ करता था, सभी गायक उसे घेर के खडे हुए. सैनिकों पर फ़िल्माये इस गीत के मार्चिंग रिदम के लिये सभी गायकों को आर्मी के बूट पहनाये गये और ओरिजिनल ध्वनी रिकोर्ड की गयी.१९ वर्ष के रफ़ी के पैरों में छाले पड गये थे. मगर वो था उनके करियर का आगाज़, और वे थे एक उदियमान कलाकार,क्या बोल पाते?
मगर यहां एक बात जो कम लोगों को मालूम होगी बताना चाहूंगा, जिससे, रफ़ी जी के निर्मल और गर्व रहित चरित्र का दर्शन होता है.वह उस समय की बात है, जब वे फ़िल्मी संगीत के सर्वश्रेष्ठ और मशहूर पार्श्वगायक हो गये थे, और लगभग ६०% से ज़्यादा के अनुपात में उन्हे गीत गाने को कहा जाता था.
लगभग सन १९६४-६५ की बात थी, जब संगीतकार मदन मोहन फ़िल्म हकीकत के लिये एक भावुक प्रसंग का समर गीत रिकॊर्ड कर रहे थे जिसमें रफ़ी जी के साथ मन्ना डे,तलत महमूद और भूपेन्द्र भी सह गायक थे.
होके मजबूर मुझे , उसने भुलाया होगा...
उस समय तो निस्संदेह रफ़ी साहब का नाम ऊंचाईयों पर था.मगर परेशानी फ़िर भी वही थी, एक ही माईक. उस पर संयोग ये कि बाकी सभी गायक उनसे कद में थोडे लंबे ही थे. तो परेशानी ये दर पेश आयी कि माइक को किसके हिसाब से एड्जस्ट किया जाये? अब रफ़ी साहब के हिसाब से एड्जस्ट करते हैं तो बाकीयों को परेशानी, और रफ़ी जी से कहने का सवाल ही नही पैदा होता था ऐसा उनका स्टेटस था उन दिनों.
मगर सरल और निश्छल मन के रफ़ी साहब ने खुद ही ये सुझाव दिया कि वे बाकी सभी के हिसाब से हाईट फ़िक्स कर दें, और वे किसी तरह से किसी स्टूल पर चढ कर गा लेंगे. तो साहब, आनन फ़ानन में स्टूल ढूंढा गया, मगर एक मिला भी तो थोडा छोटा पडा, जिससे रफ़ी साहब माईक से फिर भी नीचे ही रह गये. फ़िर भी रफ़ी साहब नें पूरे रिहल्सल में और फ़ाईनल टेक तक उस स्टूल पर चढ कर गाना रिकॊर्ड करवाया. और कमाल देखिये उनकी आवाज़ के थ्रो या एनर्जी लेवल का कि उनके स्वरों में और गले की जादुगरी की गहराई में कोई कमी नहीं आयी.(उन दिनों इतनी सारी तकनीकी मदत नही मिला करती थी)
(प्रस्तुत चित्र उसी गानें की रिकोर्डिंग का है )
अभी कुछ सालों पहले, जब भूपेन्द्र नें लता मंगेशकर पुरस्कार समारोह मे बतौर कलाकार एक कार्यक्रम देनें इन्दौर आये थे, तब इस बात की पुष्टि स्वयम उन्होने की और कहा कि उनमें बडे़ कलाकार होने का कोई भी दंभ नहीं था. निसंदेह , उस समय के उपस्थित सभी गायकों में वे सबसे शीर्ष पर थे, मगर मन्ना दा,और तलत मेहमूद को पूरी श्रद्धा और इज़्ज़त देते थे और यही ज़ज़बा इन मूर्धन्य कलाकारों के व्यवहार में झलकता था.उस दिन ये दोनों भी काफ़ी असहज से थे ये देख कर कि इतना बडा कलाकार उनकी वजह से स्टूल पर खडा हो कर गाने में नहीं हिचकिचा रहा है.
(इस गीत पर कभी और लिखूंगा - स्वर पक्ष और संस्मरण पर- फ़िर एक वादा- !!!!)
आप सभी ये बात तो जानते ही होंगे कि रफ़ी, किशोर दा, हेमंत दा, मुकेश, लता सभी सेहगल साहब के दिवाने थे, और दिल के अंदर एक सपना पाल के रखा था सहगल के साथ गानें का, मगर संयोग ये रहा कि सिर्फ़ रफ़ी जी का ही ये सपना पूरा हो पाया ,जब नौशाद जी नें ही दुबारा रफ़ी को मौका दिया सहगल के साथ गानें में फ़िल्म शहाजहान में ( १९४६) जब मजरूह द्वारा लिखे गये गीत " रूही रूही रूही, मेरे सपनों की रानी " में उन्हे दो लाईन गाने का मौका मिला.
मगर असल में रफ़ीजी को वास्तव में एक असली पार्श्वगायक बनने का जब उन्हे नौशाद साहब नें ही फ़िर मौका दिया फ़िल्म अनमोल घडी में (१९४६)- तेरा खिलौना टूटा बालक जिसमें रफ़ी जी नें गायकी के साथ अदायगी का भी एक नया रंग भरा पार्श्वगायन की विधा में, और फिर शुरु हुआ एक नया युग.
आप मेरी बात से सहमत होंगे कि इसके पहले के सुपर गायक सहगल जब गाते थे तो वे केवल अपने ही गाने पर पार्श्व गायन करते थे जो फ़िल्म के उनके चरित्र पर सूट करती ही थी. मगर जब बाद में पार्श्व गायन का ज़माना आगे आने लगा तो ज़रूरत पडनें लगी ऐसे गायकों की जो अलग अलग अभिनेताओं के अलग अलग चरित्र से ना केवल मेल खाये, गीत सुनते हुए श्रोता के मन में गायक और अभिनेता एकरूप हो जायें. रफ़ी साहब नें अपने अलग अंदाज़ से फ़िल्म इंडस्ट्री का चलन और फ़िल्मी गीतों का स्वरूप ही बदल गया, जिसे बाद में अन्य मूर्धन्य गायकों नें भी अपनाया और हमें इतनी अच्छी अच्छी कालजयी संगीत रचनाओं से धन्य धन्य कर दिया.
मगर नौशाद साहब को रफ़ी जी को खोजने और बनाने का श्रेय ज़रूर जाता है, और ये वे ही तो थे जिन्होने ये पाया कि रफ़ी साहब की आवाज़ में ना केवल मधुरता थी, या दमदार थ्रो था, मगर उनकी आवाज़ में गज़ब की रेंज थी, ऊंचाई थी. उनकी आवाज़ की कशिश और दर्द की रवानी तो थी ही ,मगर उनके गले में जो जादुई हरकतें थी,जो तानें और आलाप का नियंत्रित मेनिफ़ेस्टेशन था, वो तो कुछ और ही बंदिश या धुन मांगता था. नौशाद जी नें ये चेलेंज स्वीकार किया और हमें ऐसी धुनें दीं, जो उनके उन दिनों की कम्पोझिशन से अलग थी- फ़िल्म मेला (१९४८) - ये ज़िन्दगी के मेले .
फ़िर क्या था , सन १९४९ से एक से एक मधुर गीतों की झडी लग गयी- दुलारी, अंदाज़, चांदनी रात, दिल्लगी & So On....नौशाद ही वे संगीतकार थे, जिन्होने भारतीय संगीत की मेलोडी को गीतों में ढा़ला, शास्त्रीय रागों और लोकगीतों के अनमोल खज़ानों को आम आदमी के दिलों के भीतर उंडेल कर रख दिया, जिसके लिये हम उनके बडे ही शुक्रगुज़ार है.उनकी एक एक धुन मानों स्वरोंकी कशीदाकारी किये हुए पैरहन है.
आज ही विविध भारती पर नश्र किये गये एक कार्यक्रम में खुद लता जी ने क्या खूब कहा - कि पहले हमारे संगीतकार जो गीत रचते थे उनमें गायक या गायिका का गाना प्रधान होता था, और रिलीफ़ देने, या स्वरों के अम्बियेन्स को और खुलाने के लिये ऒर्केस्ट्रा हुआ करता था. आजकल तो ऒर्केस्ट्रा प्रधान और सर्वोपरी हो गया है, और गायक को रिलीफ़ के लिये डाला जाता है. नौशाद साहब उस स्कूल के संगीतकार थे.
एक और दिलचस्प बात.फ़िल्म अंदाज़ में नौशाद जी नें पहली बार लताजी के साथ एक ड्युएट गवाया रफ़ी जी के साथ- यूं तो आसपास में .. .क्या आपने नोट किया? इसे राज कपूर पर फ़िल्माया गया और दिलीप कुमार के लिये मुकेश जी नें गाया.( मैने ये फ़िल्म नही देखी है, मगर सुना है.आप कंफ़र्म करें तो बेहतर होगा)
बाद में यही कॊंबिनेशन उलटा ही मशहूर हुआ ये आप सभी जानते है.
चलो , ये कडी़ यहीं विराम चाहती है, अगले अंक में नौशाद और रफ़ी जी के अनेक खुशनुमा और हृदयस्पर्शी संस्मरण ले आऊंगा, अगर इज़ाज़त हुई तो.
यहां उस गीत का एक अंश सुनवा रहा हूं , जो रफ़ी साहब का प्रथम गीत था.
करीब ८ साल पहले इंदौर में रफ़ी साहब पर दिये गये एक कार्यक्रम- रफ़ी के अनेक भाव रंग मे प्रस्तुत करने के लिये मेरे आग्रह पर श्री संजय पटेल नें ये गीत मेरे लिये लाने की ज़ेहमत उठाई थी - श्री सुमन भाई चौरसिया के रिकॊर्ड भंडार में से - तो उस की विडिओ से निकाल कर यहां पेश कर रहा हूं.जीवन की सबसे बडी़ दुखद बात ये रही कि मेरे गायकी का इतना बडा लंबा सफ़र मैने वैसे तो मधुबन में राधिका नाचे गीत से सात साल की उम्र में किया, मगर बाद में संयोग से या दुर्भाग्य से, रफ़ी और नौशाद का एक भी गीत चाहते हुए भी स्टेज पर नही गा सका. ( सुहानी रात ढल चुकी- शायद एक बार गाया था)
तो सुनिये ’ हिंदोस्तां के हम है, हिन्दोस्तां हमारा....’
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13 comments:
हिन्दी सिनेमा के दो महान स्तंभों का ऐसा शानदार परिचय देने के लिए साभार .....उनके जीवन के कुछ अनछूए पहलू भी सामने लाये
रफीजी और नोशद पर अपने आप को उस्ताद समझने वाले कई लेखको के जाले निक्ल जाएगे आपके इस पोस्त से.बोलचाल की लैगवेज में कहे तो आपने फ़ोड डाला....
rafi,naushad,and last but the least dileep jindabad
karandikar
सर,
बाकि तो सब ठीक हे
अब नए साल में
आपकी आवाज वाला नया
ब्लोग ’दिलीप के गले से शुरू होना मागता.
शुक्रिया मित्रों.
ऐसे तो मैं अपनी गाने की पारी खेल चुका था, मगर दिलीप के गले से या दिलीप के सुरों से भी शुरु करने में हर्ज़ नही है.उसका सुरूर भी अलग है.
मुझे दुनिया वालों शराबी ना समझो,
मैं पीता नही हूं पिलायी गयी है...
shandar. aaj ka lekh yaad rahega.
रफी की गायकी से रूहानी मुलाकात करवाती आपकी ये शानदार पोस्ट ...मजे आ गये...सफर जारी रहे इंशाअल्ला.
मेहरून्निसा आलम
I fully endorse the idea of starting "Dilip Ke Dil/Sur Se" platform. I invite views,suggestions,ideas to make this a concrete, workable and enduring reality.
We all need to put our heads together and come out with an action plan, preferably in the next two weeks. We can plan to launch this by the Republic Day eve.
So friends, start shooting yr queries and views.
I dont think dileepjee needs any homework for starting dil ke sur as he seems to be a imborn artiste.his emergence on the blog scenario has shut the 'dukandari' of my so called music blogs who used to promote themselves. need not name them. some of national repute boradcasters,presenters,journialists used to treat themselselves the most knowledgable writers on blog.sorry our dileepjee has been a don bradman of music fraternity.dileepjee you dont need any muhurt shot for the launch of dileep ke sur....all the best
sunil karandikar
Dileep ji bhot si jankari miliरफीजी और नोशद पर Anurag ji ne sahi kha .....उनके जीवन के कुछ अनछूए पहलू भी सामने aaye hain... bhot bhot bdhai...
रफी और नौशाद दोनों ही भारतीय फ़िल्म संगीत के चमकते हुए सितारे हैं. आपकी पोस्ट इस से उनके बारे में नयी बातें जानकर अच्छा लगा.
धूल चटा दी आपने रफी और नोशाद सा पर लिखने वालो को. ऐसा नया एंगल आजकल पढने को नहीं मिलता.वही दुनिया के रखवाले और तू मेरे आसापस हे दोस्त.दिलीप के सुरे की बेसब्री से इंतझारी हे दिलिप भाई.आपने ये लेख ३१ जुले को लीखा होता तो धमाल होजाता सर,कोयी बात नहि.देर आयद दुरूस्त
mukul sharma
had been to your blog for the very first time and enjoyed.I am too in an dy-heart indoreeyan.
again and again I have read this post of rafijee.it is sad that such unhidden facts have not been revealed by other of these two legands of indian film music. I personally feel(someone may not agree) that yours is most updated and innovative blog on music. I would love to come again and again 'dil se'
murlidhar krishna
रफ़ी और नौशाद का कोम्बिनेशन तो डे्डली कोम्बीनेशन है। अगर आप ने न जाने तुम कब आओगे , मधुबन में राधिका नाची रे, होके मजबूर हमें गा के सुनवाया होता तो हम और झूम लिये होते…वैसे इतनी अलग पहचान करवाने के लिए शुक्रिया
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