Monday, February 23, 2009

अल्ला रक्खा रहमान के दिल से--- जय हो....शिवमणी.


इस बार फ़िर देर हो गयी, घर में शादी जो थी.मित्रों को भी यही समय मिला था.

बस सब निपट चुका है, चार किलो वजन भी बढ गया है, और आज महाशिवरात्री के रोज़ का उपवास बडा सुकून भरा लग रहा है.

आज की सबसे बडी खबर ये है कि ओस्कर में भारतीय विषय पर बनी फ़िल्मों में स्लमडोग को ८ पुरस्कार मिले, और पिंकी की स्माईल और दूगनी हो गयी पुरस्कार के बाद. साथ ही हमारे सभी भारतीयों की भी स्माईल सौ गुना हो गयी, क्योंकि ऐसा अवसर बिरला ही आता है. अब इस बात में मीन मेख निकालने की कतई ज़रूरत नहीं कि यह फ़िल्म तो भारतीय नहीं.

चलिये साहब, आपने सुना नहीं? पुरस्कार मिलते ही रहमान नें क्या सही कहा है कि उसे जब चुनना पडा तो उसने सुख को चुना, दुख को नहीं. हम सब खुश हो जायें वाकई में, और न्यूज़ मीडिया भी खुश हो ले कि उसे दिन भर या २४ घंटे की खबर मिल गयी है.

मेरी बिटिया मानसी नें जब ये सुना तो कहा कि रहमान नें इससे भी अच्छे गाने कंपोज़ किये है, मगर इस गानें को जब मिलना था तो मिल ही गया.मेरे एक मित्र, जो मेनेजमेंट कोलेज चलाते हैं , ने कहा कि इस गीत की धुन कुछ इस तरह से बन पडी़ है, कि सकारात्मक फ़ीलींग आती है,और मेरे यहां एक परिसंवाद में ये विषय रखा गया था.

मैने सच कहूं तो ये गीत अब तक पूरा नहीं सुना था , इसलिये जब सुना तो पाया कि उत्साह के वातावरण में बुने हुए इस गीत के स्वर संयोजन में एक सीढी की तरह सुर नीचे से ऊपर जाते है, और जय हो पर ब्लास्ट करते है.

जहां तक गुलज़ार के लिखे शब्दों का सवाल है, अमूमन आजकल के गीतों के शब्दों पर तो युवा पीढी़ ध्यान ही नहीं देती.उन्हे तो गीत की धुन , उससे ज्यादा उसका रिदम से मतलब रहता है, ज़्यादाहतर. इसलिये कई युवाओं से जब पूछा तो अधिकतम सभी कन्नी काट गये. मैंने जब सुना तो पाया कि शब्द भी मधुर और डेकोरेटिव है.

मैं इसलिये यहां सिर्फ़ शब्द दे रहा हूं क्योंकि गीत तो अब अगले दो दिन और चलेगा हर चेनल पर.

जय हो,जय हो, जय हो, जय हो ,

आजा आजा जिन्द शामियाने के तले
आज जरीवाले नीले आसमान के तले,
जय हो,जय हो,२
जय हो, जय हो ,

रत्ती रत्ती सच्ची मैने जान गवाईं है,
नच नच कोयलों पे रात बिताई है,
अंखियों कि नींद मैने फूंको से उडा दी,
नीले तारे से मैने उंगली जलायी है,

आजा आजा जिन्द शामियाने के तले
आज जरीवाले नीले आसमान के तले,
जय हो,जय हो,२
जय हो, जय हो ,

चख ले , हां चख ले, ये रात शहद है..चख ले
रख ले , हां दिल है, दिल आखरी हद है,...रख ले
काला काला काजल तेरा कोइ जादू है ना
काला काला काजल तेरा कोइ जादू है ना

आजा आजा जिन्द शामियाने के तले
आज जरीवाले नीले आसमान के तले,
जय हो,जय हो,२
जय हो, जय हो ,

कब से, हां कब से तु लब पे रुकी है...कह दे
कह दे, हां कह दे अब आंख झुकी है...कह दे
ऐसी ऐसी रोशन आंखे रोशन दोनो भी है है क्या

आजा आजा जिन्द शामियाने के तले
आज जरीवाले नीले आसमान के तले,
जय हो,जय हो,२
जय हो, जय हो ,


क्या ही संयोग हुआ कि कल रहमान और उसकी टीम ओस्कर के समारोह के लिये तैय्यारी कर रहे थे, रहमान के बेंड का एक महत्वपूर्ण कलाकार शिवमणी यहां इन्दौर में था किसी निजी शादी के कार्यक्रम में, जहां उसने अपने हुनर और फ़न का ऐसा जबरदस्त मुजाहिरा किया कि सभी मौजूद श्रोता झूम उठे. चम्मच, स्टील का बर्तन, सूटकेस, बिसलेरी की खाली क्रंच की हुई बोतलें, मटका, सायकिल की घंटियां,बच्चों के खिलौने, पानी का बडा खाली टेंक... और क्या क्या सामान लेकर ताल वृंद या परकशन समूह से रस उत्पत्ती की.

कार्यक्रम शुरु होने से पहले जब मैं लान में सजी गोल टेबल पर बैठने गया ही था तो एक टेबल पर शिवमणी को अकेले बैठे देख मेरी तो बांछे ही खिल गयी. मेरे जिस मित्र नें अपने यहां शादी के रिशेप्शन में शिवमणी को बुलाया था, और किसी कामन मित्र की वजह से उसने ये पेरफ़ार्मेंस देना कबूल किया था.

जाहिर है, मैं और मेरी पत्नी उससे बातें करने लगे. उसने यह बताया कि दर असल आज उसे अमेरिका में होना था रहमान के साथ ओस्कर में मगर चूंकि पहले से कमिट कर दिया था मित्र को , तो यहां आ गये.एक और बात बताई जो महत्वपूर्ण है, कि आज रात को उसे मंगलोर में शिव मंदिर में अपना कार्यक्रम देना था, जो पिछले इतने सालों से वे मुफ़्त में दे रहे है.

शिवमणी वाकई में एक प्रयोगधर्मी कलाकार है और अपने साथी रहमान की तरह ही जिनीयस है.वह बता रहा था कि किस तरह वे दोनों इलाया राजा के पास कीबोर्ड और ताल वाद्य के लिये गये थे और उन्होने अपनी पूरी संगीत साधना वहीं की. बाद में उन्होने एक बेंड भी बनाया जिसका नाम था - रूट्स, जिसमें वे जिंगल्स और बेकग्राऊंड संगीत रचा करते थे. बाद में रोजा के ऐतिहासिक प्रसिद्धी के बाद उनकी टीम नें पीछे मुड कर नहीं देखा. इसी टीम में है नवीन कुमार जिसने मुंबई , ताल और दिल से में अपनी बांसुरी से हमारे होश उडा दिये थे.बेस गिटार के पीटर्स का भी यही मानना है, कि अगर आपमें कल्पना शक्ति है, तो आप रहमान के साथ जुड सकते हैं, क्योंकि वह सुरों का जादुगर है, और नई धुन में कुछ नयापन डालता है. जहां बाकी के संगीतकार नया करने की बजाय, एक ही सांचे में धुनों को ढालते है, क्योंकि वह धुन कामयाब हुई थी, रहमान इससे डरता नहीं.

मैंने उसे कहा कि वह वाकई में जिनीयस है, तो वह बडे ही सादगी से बोला, हम सब जिनीयस होते है, फ़रक सिर्फ़ यही है कि हम अपने आप को ईवोल्व कितना बेहतर कर पाते हैं. रहमान भी इसी लिये उससे बेहतर जिनीयस है, कलाकार है, क्योंकि उसने भारतीय मेलोडी और पाश्चात्य सिम्फनी का बेहद ही खूबसूरत फ़्युज़न किया. आज गुलज़ार नें भी तो कहा ही है, कि रहमान नें गाने के प्रचलित फ़ारमेट में कभी अपने आप को नही बांधा, और इसलिये,उसकी रचना में स्थाई, इंटरल्युड, अंतरा आदि में स्ट्रक्चर की जगह झरने जैसी अठखेलियां करती हुई धुनें होती है, जो कहीं ऊपर उठती है, तो कहीं ज़मीं पर कलकल बहती है.स्वदेश फ़िल्म का आठ मिनीट का वह गीत हो जिसे तीन गायकों ने गाया, या युवा फ़िल्म का अलग रिदम का गीत, रंग दे बसंती का युवाओं पर फ़िल्माया गीत आदि आदि.

मैंने शिवमणी से ये ज़रूर कहा कि मुझे राहुल देव बर्मन में और रहमान में ये बात कामन लगती है, कि दोनो ने ही प्रयोगधर्मी होने के साथ ताल और लय पर अलग अलग काम किया है. राहुल तो स्वयं ही एक अच्छे रिदम मास्टर थे, मगर रहमान के अलग अलग रिदम के प्रयोग के पीछे ज़रूर शिवमणी ही है. वह मुस्कुराया , शरमाया, और फ़िर कह उठा- रहमान को जो चाहिये वह हासिल कर लेता है, अपने ग्रुप से. हम भी यूं ट्युन हो गये है, कि हमेशा कुछ अलग रचने के लिये लालायित रहते है.उसे अपने काम पर गर्व ज़रूर है, खुद पर नहीं, क्योंकि उसमें एक बात है जिससे उसकी क्रियेटिविटी में हमेशा इज़ाफ़ा होता रहता है, वो है - उसकी स्पिरिच्युअलिटी या आध्यात्म!! (तभी तोआज उसने सबके सामने ये कह दिया- मेरे पास मां है. )

जय हो के गीत के बनने की प्रक्रिया पर उसनें बताया, कि इसपर रहमान के पास दो तीन धुनें थी, और सभी बढिया थी.

चलो , शिवमणी नें जो पर्फ़ार्मेंस दिया उसकी रिकोर्डिंग यहां दे रहा हूं आप के लिये- आनंद उठाईये, और मस्त हो जाईये--

जय हो !!!!



साथ में उसके विडियो भी देख लें...



Wednesday, February 11, 2009

हीरे मोती जडे़ गहनों जैसे फ़िल्मी गीतों के बोल- NO EXPIRY DATE !! पं. नरेंद्र शर्मा- पुण्यतिथी-

चित्र- साभार सुश्री लावण्याजी

अभी अभी कहीं ये बहस चल रही थी कि फ़िल्मी गीतों में गीतकार का क्या योगदान होता है.
बेशक , हम जो भी गाने आज सुनते है, उनमें से अधिकांश में बोल तो सिर्फ़ सुरों को बांधने के लिये ही है. और तो और, जैसा कि स्वयं लताजी नें अभी अभी किसी इंटरव्यु में क्या सच कहा था - कि आजकल तो गाने रिदम की बेस पर ही बनते है, और सुर तो उस ताल को चाल को बांधने के लिये ही होते है.तो फ़िर शब्दों की तो बिसात ही क्या.तभी तो इन गानों को लंबी आयु नसीब नहीं होती,और इन गानों की ए़क्सपायरी डेट बहुत ही कम होती है.

मगर हम जब फ़िल्मी गीतों का वह गरिमामयी इतिहास देखते हैं तो पाते हैं कि चालीस पचास दशक में गाने में बोल, सुर और ताल ये सभी घटक समान तौर पर महत्वपूर्ण होते थे, जिसमें गीतों के भावपक्ष का , साहित्यिक गहराई, या अदबी वज़्न का गीत के पोप्युलर होने में संपूर्ण योगदान होता था.तभी तो उन दिनों के गाने अभी तक सुने जा रहे हैं और उनकी एक्सपायरी डेट कभी भी खत्म नहीं होती!!!

पंडित नरेंद्र शर्मा उसी कालखंड के गुणी गीतकार थे, जिन्होने विशुद्ध हिंदी शब्दों में अपने हर गीत गूंथे , जो आज तक हमारे जेहन में बाबस्ता है, स्थाई रूप से अंकित हैं.

आपको तो पता ही है, कि पचास के दशक के प्रारंभ में जो भी गानें लिखे जाते थे वे मुख्यतः अदबी उर्दु के लफ़्ज़ों से गढे जाते थे जिसमें भावनाओं और संवेदनाओं को, अहसासात को बखूबी सुरों में पिरोया जाता था, और बनते थे वे कालजयी गीत जिन्हे आज भी आप हम सुन ही रहे हैं. ( साहिर, मजरूह, कैफ़ी आज़मी, शकील आदि)साथ ही में,भोजपुरी , अवधी आदि क्षेत्रिय बोलीयों में भी कहीं कहीं गीत बनाये गये.

मगर मात्र शुद्ध साहित्यिक हिंदी शब्दों पर बनाये हुए गीतों के लिये हम याद करते है शैलेन्द्र, प्रदीप, भरत व्यास ,नीरज और पं. नरेंद्र शर्मा.

सन १९५१ में फ़िल्म अफ़सर में सचिनदा के संगीत निर्देशन में पांच गीत आपने लिखे थे-

नैन दीवाने, इक नहीं माने..
मनमोर हुआ मतवाला..
गुन गुन गुन बोले रे ..
परदेसी रे जाते जाते...
प्रीत का नाता जोड़ने वाले..

याद है वह लताजी का गाया गैर फ़िल्मी गीत- जो समर में हो गये अमर, मैं उनकी याद में..

या विविध भारती के उदघाटन पर मन्ना डे द्वारा गाया गीत, जिसे अनिल विश्वास नें संगीत्बद्ध किया था- नाच रे मयूरा...

फ़िल्म फिर भी का ये गीत जो बेहद प्रसिद्ध हुआ, और मुझे भी गाने के लिये प्रेरणा देता रहा वह है-

क्यूँ प्याला छलकता है :
क्यूँ दीपक जलता है
दोनों के मन में कहीं अनहोनी विकलता है
क्यूँ प्याला छलकता है पत्थर में फूल खिला
दिल को एक ख़्वाब मिला
क्यूँ टूट गए दोनों इसका ना जवाब मिला
दिल नींद से उठ उठ कर
क्यूँ आँखें मलता है.. हैं राख की रेखाएँ लिखती है चिंगारी
हैं कहते मौत जिसे जीने की तैयारी
जीवन फिर भी जीवनजीने को मचलता है॥

मगर पंडितजी के लिखे हुए दो गीतों का खास ज़िक्र करना चाहूंगा, जिसनें उन्हे और इन गीतों को अमर कर दिया है-
वे है ज्योति कलश छलके, और लौ लगाती गीत गाती.

लताजी स्वयं ये बात मन से कबूल करती हैं कि पंडितजी में उन्हे उनके पिता के दर्शन होते थे, तभी तो वे उन्हे पापा कह कर बुलाती थी.

सँगीत : स्व. श्री सुधीर फडके
स्वर: लता मँगेशकर
कविता: स्व.पँ.नरेन्द्र शर्मा
फिल्म: भाभी की चूडियाँ
नायिका: स्व. मीना कुमारी

सुधीर फडके द्वारा कई गीतों को मराठी में स्वरबद्ध किया गया है, मगर हिंदी में उन्होने ये एक अनमोल भेंट दी है .

तो चलें -सुरों की आमराई में बैठ कर मीनाकुमारी के जीवंत और ओस से पावन , कोमल भावाभिव्यक्ति से भरे अभिनय की लता मंगेशकर के अलौकिक , उतनी ही पावन आवाज़ में गाई गई इन संगीत रचनाओं की जुगलबंदी का आनंद आप और हम लें, और यहीं पिघल कर इस स्वर गंगा में एकरूप हो जायें.........

ज्योति कलश छलके ,ज्योति कलश छलके..
हुए गुलाबी , लाल सुनहले,रंग दल बादल के...
ज्योति कलश छलके...

घर आनंद वन उपवन उपवन,
करती ज्योति अमृत के सिंचन,
मंगल घट ढ़लके,२
ज्योति कलश छलके...

अंबर कुंकुम कण बरसाये ,
फ़ूल पखुरिया पर मुसकाये,
बिंदु तुही न जलके,२
ज्योति कलश छलके...

पाट पाट बिरवा हरियाला,
धरती का मुख हुआ उजाला,
सच सपने कल के,२
ज्योति कलश छलके...

उषा नें आंचल फ़ैलाया,
फ़ैली सुख की शीतल छाया,
नीचे आंचल के,२
ज्योति कलश छलके...

ज्योति यशोदा धरती गैय्या ,
नील गगन गोपाल कन्हैय्या ,
श्यामल छबि छलके,२
ज्योति कलश छलके...





दूसरा गीत है -
लौ लगाती गीत गाती,
दीप हूँ मैँ, प्रीत बाती
नयनोँ की कामना,
प्राणोँ की भावना.
पूजा की ज्योति बन कर,
चरणोँ मेँ मुस्कुराती
आशा की पाँखुरी,
श्वासोँ की बाँसुरी ,
थाली ह्र्दय की ले,
नित आरती सजाती
कुमकुम प्रसाद है,
प्रभू धन्यवाद है
हर घर में हर सुहागन,
मँगल रहे मनाती

देखा, छोटी बहर में क्या कमाल के बोल चुन चुन कर बिठायें है, जैसे कि किसी मिनीयेचर पेंटिन्ग में स्वर्ण और चांदी के रंगो से बारिक कलाकारी की गई हो!!


एक छोटी सी पहेली पूछ रहा हूं.

सन १९५७ ने पं. नरेन्द्र शर्मा नें एक नाम सुझाया था जो आज भी बेहद लोकप्रिय है?

Thursday, February 5, 2009

तू है मेरा प्रेम देवता, रफ़ी , मन्ना डे और नैय्यर

कडी़ - २
जब हम ओ पी नैय्यर के गानें सुनते हैं तो ये बात तो निर्विवाद सत्य है ही कि उनकी संगीत शैली, धुनों का Dynamics,सुरों के कोर्ड्स की विविधता, लय की मस्तानी चाल आदि अन्य संगीतकारों से एकदम हट के थी.साथ ही , हिंदुस्तानी तथा पाश्चात्य वाद्यों के माकूल उपयोग की विविधता भी आम चलन से अलग थी.

जैसे कि क्लेरिनेट के दो अलग अलग नोट्स या मोटी पतली आवाज़ का बांसुरी के साथ प्रयोग, सारंगी और सितार का फ़डकता पीस देकर मादकता की हद तक ले जाने का प्रयास, वातावरण की निर्मिती के लिये संतूर का आलाप के साथ ब्लेंडिंग, ढोलक और वन टू वन टू रिधम का अनूठा संगम, स्थाई/अंतरे और इंटरल्युड का गजब का मिक्सिंग, अपने आप में दीवाना बनाने के लिये काफ़ी था.

मगर साथ ही, उनकी शास्त्रीय रागदारी पर नियंत्रण भी हमें कई गीतों में नज़र आता है. हालांकि ऐसे गाने कम ही थे, और वे खुद ये बात कबूल करते थे कि उनकी शास्त्रीय संगीत की कोई विधिवत तालीम नहीं हुई थी.बावजूद इसके, उनकी गीतों में कहींभी कोई कमी नही रह जाती थी.

इसीलिये जब कल्पना फ़िल्म के लिये एक महत्वपूर्ण गाने का इंतेखा़ब किया गया तो कई जानकारों की भौंहें उठ गई थी कि देखें क्या गुल खिलाते है नय्यर साहब.त्रावणकोर बहनों के भरत नाट्यम की शानदार शास्त्रीय नृत्य शैली को दर्शाने के लिये इस गीत की ज़रूरत मेहसूस की गई -

तू है मेरा प्रेम देवता....

बिलाशक, रफ़ी जी तो नैय्यर साहब की पहली चाइस थे ही, क्योंकि आप देखेंगे कि फ़िल्म दो उस्ताद में राज कपूर के लिये भी वे मुकेश जी की जगह रफ़ी जी की आवाज़ के लिये अड़ गये थे (एरिरा राका राका का बाका,तू लडकी मैं लडका..).

तो साथ में दूसरे स्वर के लिये निसंदेह मन्ना दा का चयन तो होना ही था.तो फ़िर बनी वह कालजयी संगीत कृति इसको बनाने के लिये नैय्यर साहब नें भी बहुत मेहनत की.

बताते हैं कि रफ़ी साहब जब भी किसी गाने की रिकॊर्ड़ करने स्टुडियो पहूंचते थे तो तो अक्सर वे अपने पास एक इत्र के कुप्पी रखते थे और वहां मौजूद सभी व्यक्तियोंको खुशबू से तर बतर कर देते थे, गोया उनके मदहोश कर देने वाली आवाज़ से कोई कमी रह जाती हो.मगर उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.शायद इस गाने की गंभीरता को भी दोनों गायक बखूबी समझ रहे थे, तो इसीलिये काफ़ी रियाज़ के और तालीम के बाद ये गाना रिकॊर्ड किया गया.रिकोर्डिंग से पहले रफ़ी साहब साज़िंदों को कितना सन्मान देते थे वह इस बात से पता लगता था फ़ाईनल टेक से पहले वे स्वयं वाद्यवृंद समूह के पास जा कर सभी को बडी़ विनम्रता से कहते थे कि ज़रा सम्हाल लेना !!

ओ पी नय्यर की समस्या कुछ और भी थी. आवाज़ की गोलाई, रियाज़, सुरों पर पकड़ ,आदि सभी विधाओं में ये दोनो गायक कहीं भी एक दूसरे से कमतर नहीं थे. मगर उन दोनों की आवाज़ में जो अलग अलग कण था , अंदाज़े बयां या Timbre था उसके अनुरूप ही बंदिशें , ताने, या आलाप का सुर संयोजन होना ज़रूरी था, क्योंकि दोनों की पूर्ण क्षमता का और व्यक्तिगत खूबीयों का इज़हार प्रस्तुत गाने में होना लाज़मी था.

बखुदा , कितना मुश्किल , कठिण काम था जो नय्यर साहब नें आत्म विश्वास और हिम्मत से अंजाम दिया कि दोनों गायकों के सहित सभी उपस्थित जानकारों ने उनको खूब सराहा.

इस बात की कठिनता मैंने भी तब महसूस की जब पिछले दिनों जब मन्ना दा पर आधारित कार्यक्रम - दिल का हाल सुने दिल वाला - में मुझे इस गाने को पेश करने का मौका मिला. संयोग और सौभाग्य कहिये, इस कार्यक्रम में सिर्फ़ मैं ही गायक था, स्वाभाविक था कि दोनों गायकों के बोल मुझे ही गाने थे.

चलिये आज मैं एक आत्म अनूभूति या अंतरंग के अनुभव को ईमानदारी से आपके साथ बांटना चाहूंगा, जब मैंने इस गीत के लिये इन दोनो दिग्गज गायकों की गायन शैली को गहनता से समझने की कोशिश की.वैसे इन दोनों को अलग अलग गीतों के ज़रिये कई बार गाया था, मगर शास्त्रीय रंगों से तरबतर इस अनूठे मगर बेहद क्लिष्ट या कठिण इस गीत में दोनो के साथ न्याय करना मेरे जैसे की औकात के बाहर थी.


वैसे उन दिनों भारतीय फ़िल्म संगीत के आकाश पर जो सुरीले सितारे चमक रहे थे, उनकी आवाज़ में और अदायगी में फ़र्क हुआ करता था. मुकेश की नासिकोत्पन्न दर्द भरी आवाज़ से हेमंत कुमार की बेस लिये हुए हमिंग आवाज़ हो या किशोर कुमार की कडक और खनक लिये हुए आवाज़ से तलत मेहमूद की कोमल और लर्जिश भरी मखमली आवाज़ हो,एक पृथक पहचान लिये हुए ध्वनिरूप आपके मानस के सामने आ जाता है.मगर उस अनुपात में रफ़ी और मन्ना डे की आवाज़ में फ़र्क होने के बावजूद काफ़ी समानता भी थी.

इसलिये अपने सीमित स्वरविवेक से मैने ये पाया कि जहां मन्ना दा की धीर गंभीर आवाज़ में माधुर्य और स्वरों की गोलाई का और हरकतों का उनके अनोखी स्टाईल में उपयोग किया , वहां रफ़ी जी ने पाक निर्मल , जवां (Youthful) और सधी हुई मीठी सी आवाज़ में सीधे सच्चे तानों के सुर लगाये, और इस बात की बानगी दी कि गायकी की रेंज में और मेलोडी भरी अदायगी में शास्त्रीय रागों पर आधारित गीत भी कितनी आसानी से गाया जा सकता है.पर्दे पर दोनों नायिकाओं में से कोई भी जीता हो,मगर इस गाने में भारतीय फ़िल्म जगत के दो महानतम गायक संपूर्ण रूप से जीत के भागीदार बनें.

तो मेरे संगीत के सुरीले सफ़र के साथियों, जैसा कि आपका आग्रह था, कि मैं इस संगीत गोष्ठी में अपनी आवाज़ में भी कुछ प्रस्तुत करूं तो आपको मसर्रत हासिल होगी.तो दिलीप के दिल के साथ अब ये दिलीप के सुरों से ये गीत सुनाता हूं.

अब इस प ध नि सा के बाद के आंठवें सुर को पेश करते हुए बिस्मिल्लाह करता हूं. इस कार्यक्रम में मेरे साथ सूत्रधार हैं, मेरे अज़ीज़ और अज़ीम फ़नकार श्री संजय पटेल जिन्होने एंकर की विधा को नये आयाम दिये.

(गाने में एक बात आप नोट करें - चूंकि इससे पहले एकदम अलग पृष्ठभूमी का और स्टाईल का गीत - आओ ट्वीस्ट करें गाया था. इसलिये, इस शास्त्रीय स्वरों से भरपूर गीत के लिये स्वरों को मन में उतारने के लिये थोडा़ समय लिया. दूसरा, इस गीत की मुश्किल बंदिश की वजह से इसे मात्र एक अंतरा गा कर समाप्त करने की योजना थी, मगर ऐन समय पर गीत के उस सत्चिदानंद स्वर समाधी का हल्का सा एह्सास होने की वजह से गीत को पूरा गाया गया.

आंठवा सुर..



अगले कडीं में - ओ पी नय्यर, रफ़ी, और गुरुदत्त ...
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