Tuesday, March 16, 2010

साहिर की अंतरंग की पीडा़ का क्रंदन- जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है..




साहिर लुधियानवी


कडी़ २

पिछली पोस्ट पर आपकी टिप्पणियों के लिये शुक्रिया अदा करता हूं, क्योंकि वह पोस्ट काफ़ी समय बाद लिखी गयी थी,और लगा था कि आप मुझे भूल गये होंगे. (ऐसे ये हक है आपको, मेरे बात और है, मैने तो मुहब्बत की है).

मेरे मित्र OLD MONK नें फ़रमाया कि उन्हे व्यक्तिगत कारणों से आज क्यूं हमसे पर्दा है कव्वाली ज़्यादा माफ़िक लगी औरतों के लिये. तो उनसे गुज़ारिश है कि वे समय निकालकर अपने विचारों से इस बात की पुष्टि ज़रूर करेंगे ताकि उस अलग से एक पोस्ट पर डाला जा सके.वैसे ये बेहतरीन कव्वाली दिलीप के दिल के भी करीब है.

आज हम एक दूसरे गीत के बारे में बात करना चाहेंगे जिसका ज़िक्र पिछली पोस्ट में भी किया था---

जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है...





डॊ, अनुराग जी नें अपनी टिप्पणी में सही लिखा है कि यह रचना भारत की उस समय की वर्तमान परिस्थिति को बखूबी परिलक्षित करती थी ,और पं नेहरू की भी आंख की किरकिरी थी, जिसके बारे में साहिर नें अपनी तीखी कलम से सही खाका खींचा था.

वैसे फ़िल्म प्यासा में आप हम नें देखा, सुना और उसके बेहतर चित्रीकरण , केमरा संचालन , प्रकाश संयोजन का कमाल देखा (दादा साहेब फ़ालके पुरस्कार २००९ के विजेता फ़ोटोग्राफ़र श्री मूर्ती की कलाकारी के बदौलत). लेकिन इमानदारी से कहूं तो गुरुदत्त के कौशलपूर्ण निर्देशन और भावपूर्ण अभिनय की साथ मिलने से बेहतर हुए एक क्लासिक फ़िल्म की इस क्लासिक रचना का असली श्रेय साहिर को दिया जाये या गुरुदात को ये मैं तय नहीं कर पाऊंगा. ये आप ही तय किजिये.

अधिकतर ,प्यासा के आसपास फ़िल्मी दुनिया में यह चलन शुरु हो चुका था कि पहले एक अच्छी, रसीली, कर्णप्रिय तर्ज़ बना ली जाती थी और उसके अनुरूप गीतकार से फ़िल्म की सिच्युएशन के हिसाब से गीत लिखवा लिया जाता था.एस डी बर्मन साहब को कमोबेश इसका श्रेय दिया जा सकता है, और प्यासा में भी कुछ गीतों के संदर्भ में यही हुआ भी था.

मगर आपको ये जानकार कौतुहूल होगा और आश्चर्य कि प्यासा फ़िल्म का जब इंतेखा़ब किया गया था तो नायक विजय एक चित्रकार था, शायर नहीं.फ़िल्म की नायिका (माला सिन्हा) एक अमीरज़ादी थी जो चित्रकार के पेंटिंग्स की प्रदर्शनी करा कर उसे इस्तेमाल करती थी , सोसाईटी में अपने वजूद और वका़र का लोहा मनवाने के लिये.गुलाबो का तो कहीं पता ही नहीं था!!

फ़िल्म के लेखक अब्रार अल्वी जिनका अभी अभी इंतेकाल हुआ है, इस फ़िल्म के लेखक थे, और गुरुदत्त के फ़िल्म कंपनी में मुलाजिम भी. मगर जब गुरुदत्तजी नें साहिर नें लिखी हुई गज़लों की किताब परछाईयां पढी तो वे इस कदर दिवाने हुए उसमें लिखे गीतों को अपनी फ़िल्म प्यासा में शामिल करने के लिये बेचैन हो गये. यहां तक कि उन्होने नायक विजय के पात्र ही चित्रकार से शायर में बदल डाला!!






इस गज़ल संग्रह में से गीतों को लेने का मतलब था सचिन दा के लिये एक बडी चुनौती, क्योंकि भले ही मोटे तौर पर शब्दों को मीटर में लिखा गया होगा, मगर भावाभिव्यक्ति और नज़रिये को सही और पैने तौर पर रखने के लिये कहीं कहीं शायरी को तवज्जो दी गयी तरन्नुम की जगह.

वैसे सर जो तेरा चकराये/हो लाख मुसीबत रस्ते पर/हम आपकी आंखों में.. आदि गीत धुन बनवाने के बाद लिखे गये.मगर बाकी गीतों का इतिहास अलग है.

इसलिये आप देखिये एक गाना था - तंग आ चुके हैं कशमकशे ज़िंदगी से हम - जिसे मुशायरे में पढने की वजह से सिर्फ़ गुनगुना कर गवाया गया रफ़ी साहब से.( बाद में यही गीत आशा भोंसले नें फ़िल्म लाईट हाऊस के लिये एन दत्ता के संगीत निर्देशन में गाया था). आप सुनियेगा इस गीत को तो आप वाकई रफ़ी साहब के काय हो जायेंगे, कि बिना किसी सुर या ताल के कितना मधुर और मेलोडी की चासनी में दर्द को डुबा कर गाया है रफ़ी साहब नें.

दूसरा गीत है जाने वो कैसे लोग थे जिनसे... जो परछाईयां में से ही लिया गया, जिसके धुन बाद में बनाई गयी.गुरुदत्त और साहिर अड गये थे इस गाने को रफ़ी जी से गवांने के लिये , मगर मानना पडे़गा सचिन दा की संगीत की सोच और पकड़ की, कि उन्होने इस गीत को हेमंत दा से ही गवाया. यही बात बाद में गुरुदत्त/साहिर/सचिनदा के बीच की कशमकश और खाई की सबब बनीं(कडी ४ या ५ में )

और सबसे महत्व पूर्ण गीत था जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है?

क्या आप मानेंगे कि इस गीत की लय, शब्दों का मेनेजमेंट, एकदम अलग नहीं है? पायल की छन छन पर घुंगरू की आवाज़, तबले की धन धन पर तबले की आवाज़,खांसी की ठन ठन पर खांसी की और सिक्कों की झंकार पर साऊंड बाईटस के द्वारा साहिर की मनचाही नाटकीयता रचायी गयी.

अल्पना जी नें भी अपनी टिप्पणी में सही लिखा है कि साहिर की संवेदनशीलता ,साफ़गोई और तीखे चुभन लिये शब्दों के पीछे उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभव ही ज़िम्मेदार थे.

ज़रा ध्यान दें...

ये फ़ूलों के गजरे , ये पींको के छीटें,
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख़ फ़िकरे,
ये ढ़लके बदन और ये बीमार चेहरे
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है? कहां है, कहां है , कहां है?

यकीन मानिये, जब साहिर नें ये बोल लिखे थे तो उसके सामने कोई सिच्युएशन नहीं थी. सिर्फ़ एक कविमन, या शायर के ज़ज़बातों की , पेथोस की अभिव्यक्ति थी या मन की पीडा का क्रंदन था.गुरुदत्त भी तो थे एक मासूम, ज़ज़बाती और संवेदनशील मन के मालिक.इसी वजह से ये क्रंदन सीधे उनके दिल के अंदर उतर गया.उन्हे ये लगने लगा कि साहिर के अंतरंग की इस पीडा़, इस झटपटाहट को चित्र रूप देकर रीयल लाईफ़ से रील लाईफ़ में लाकर उसे डिफ़ाईन किया जाये , सिनेमा के दर्शकों के लिये परिभाषित किया जाये.शायद इसी तरह से , इस तरह की रचना को प्यासा में डाल कर इस फ़िल्म को काव्यात्मक ऊंचाई पर ले जाया जा सके.


इसलिये उन्होंने अब्रार अल्वी को समन किया और कहा कि कुछ भी हो जाये, कुछ ऐसी सिच्युएशन पैदा करो ताकि इस फ़िल्म में रचना प्रभावी तरीके से फ़िल्माई जा सके.

तो देखिये साहिर द्वारा लिखे गये इन अमर अश’आर के लिये अब्रार अल्वी नें कैसी सिच्युएशन लिखी और महान गुरुदत्त नें अपनी कलात्मक और क्रियेटिव कौशल से उसके साथ कैसा न्याय किया.और सचिनदा की धुन पर रफ़ी साहब की दर्द में सोखी हुई पुरनूर आवाज़! कंबख्त , क्या कोंबिनेशन है जनाब!



क्या इससे बेहतर कोई और सिच्युएशन या पिक्चराएज़ेशन का इंतेखाब किया जा सकता है?

(अगली कडी में कैसे गुरुदत्त को इस गाने के लिये सिच्युएशन मिली .... कडी ३ में , बस इंतेज़ार करें, क्योंकि बडी पोस्ट से परहेज कर रहा हूं)

25 comments:

शरद कोकास said...

बहुत विस्तार से बहुत मेहनत से बहुत अच्छा विश्लेषण किया है आपने ।

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर ढंग से आप ने इस फ़िल्म के बारे बताया, ओर मेरे लिये यह नयी जानकारी थी, वेसे यह फ़िल्म ओर इस के गीत मुझे बहुत अच्छॆ लगते है, यानि मेरी पसंद की फ़िलमो मै यह भी एक है

Abhishek Ojha said...

बहुत अच्छी जानकारी, और गीत के बारे में क्या कहें... आपने सब कुछ तो कह ही दिया है.

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन आलेख...


नव संवत्सर 2067 व नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

साहिर सा'ब , गुरुदत्त जी ने कमाल कर दिया है वाकई ...
दिलीप भाई गुडी पडवा और नवरात्र पर मंगल कामनाएं
काश के दुनिया से ऐसे गम सदा के लिए दूर हो जाएँ
स्नेह,
लावण्या

अमिताभ मीत said...

बहुत बढ़िया पोस्ट. हज़ारों लाखों लोगों की तरह मैं भी साहिर का दीवाना हूँ. बल्कि मुझे तो मजाज़, फैज़ और साहिर नए दौर के सब से बेहतरीन शायर हैं ...

Alpana Verma said...

बहुत ही मेहनत से और रिसर्च करके लिखा लेख है.
रोचक जानकारियां मिलीं.
'तंग आ चुके हैं कशमकश ' रफ़ी साहब की आवाज़ में यू tube पर सुना है.आप का कहना सही है बेहद कशिश है बिना संगीत के भी उस गीत में.
**प्यासा में गुरुदत्त शायद अगर चित्रकार भी होते तब भी इतनी ही अपील होती फिल्म में.
'जिन्हें नाज़ है हिंद पर'में साहिर की कलम का जादू और रफ़ी साहब की आवाज़ सब आज भी उतना ही प्रभावशाली है.
'जाने वो कैसे लोग थे' गीत सुन कर तो लगता है जैसे हेमंत जी के अलावा और कोई इस गीत को उनसे बेहतर नहीं गा सकता था.
अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी.

निर्मला कपिला said...

साहिर और गुरूदत्त का दिवाना कौन नही होगा! बहुत रोचक और विस्त्रित जानकारी के लिये धन्यवाद। आपकी पसंद की कायल हूँ। नव संवत्सर 2067 व नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं

रज़िया "राज़" said...

बहोत ही खुबसुरती से पेश किया गया एक नायाब तराना।

shama said...

Wah! Bahut achhee jankariyan mileen...mai khud Gurudatt kee kayal hun....

rashmi ravija said...

बहुत ही विस्तारपूर्वक आपने इतनी सारी जानकारी दी...इन अविस्मर्णीय फिल्मों और गीतों के पीछे की कहानी जानना हमेशा ही अच्छा लगता है...

डॉ .अनुराग said...

एक ओर दिलचस्प बात ये है के तय हुआ के दिलीप कुमार में हीरो का रोल निभायेगे .....गुरुदत्त सेट पर घंटो इंतज़ार करते रहे ....आखिर थक कर उन्होंने रोल किया .....बाद में दिलीप का कहना था वे अपनी इस इमेज के डर से ओर करेक्टर के असल जिंदगी पर हावी होने से घबराते थे .इसलिए मना किया

ताऊ रामपुरिया said...

एक इतिहास संजोकर रख दिया इस पोस्ट मे आपने. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

सागर said...

आज पहली बार आपके दरवाजे पर आया और मोहपाश में फंस गया... डेरा जमा लूँ ?

सागर said...

आपने आइस क्रीम दिखाई हम आ गए :)

Alpana Verma said...

ye hai us geet ka link--
rafi sahab ka gaya --bina sangeet--tang aa chuke hain--

http://www.youtube.com/watch?v=SqqpIR39Y_I

रंजू भाटिया said...

बहुत बढ़िया लगी आपकी यह पोस्ट ..साहिर की बात बहुत अलग थी सही है

Asha Joglekar said...

गीतों के बारे में आप जितने गहराी से चर्चा करते हैं उसका कोई सानी नही । य़ह गीत तो वैसे आज भी सही है । जिस पर नाज किया जाये ऐसा चरित्र अब कहां देखने को मिलता है ।
गुडी पाडव्या च्या तुम्हाला पण खूप शुभेच्छा । नव वर्ष
सुखाचे, आनंदाचे अन भरभराटी चे जावो .

Mayur Malhar said...

सोचता हूँ मोहब्बत से किनारा कर लूँ
दिल को बेगाना-ए तरगीब ओ तमन्ना कर लूँ
साहिरजी के यह पंक्तिया उनके 'सोचता हूँ.' एल्बम से हैं. साहिरजी
जैसे शायर कम ही हुए हैं. कहाँ प्यासा के कशमकश भरे गीत और कहाँ वक़्त का
ए मेरी ज़ोहराज़बीं. कितनी विविधता हैं इनके गीतों में. प्यासा के सारे गीत शानदार हैं.

पूनम श्रीवास्तव said...

pahali baar aap ke blog par aai hun bahut hi achha laga aapko padh kar dhnyvad.
poonam

शोभना चौरे said...

vistar se jankari ke liye abhar.itne purane geeto ka itna achha vishleshan kar unhe aur amar bana diya .
abhar

हरकीरत ' हीर' said...

तंग आ चुके हैं कशमकशे ज़िंदगी से हम - ..ओह ये मेरा पसंदीदा गीत है .....फिल्म का नाम पता नहीं था बहुत ढूँढा .....आपकी आवाज़ में सुन लूँ तो सुकून आ जाये ......

"यकीन मानिये, जब साहिर नें ये बोल लिखे थे तो उसके सामने कोई सिच्युएशन नहीं थी. सिर्फ़ एक कविमन, या शायर के ज़ज़बातों की , पेथोस की अभिव्यक्ति थी या मन की पीडा का क्रंदन था....."

देखती हूँ आपको किस तरह शायर के मन के भीतर उतर भावों को पढने की महारत हासिल है ...!!

ओह ....अल्पना जी ने तो लिंक भी दे दिया ....अभी सुनती हूँ.......!!

Smart Indian said...

धन्यवाद, दिलीप!

Asha Joglekar said...

सुंदर आलेख, गीत और जानकारी । गाना सुन कर कुछ कचोट सा गया अंदर तक ।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

प्यासा हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर है।
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गुफा में रहते हैं आज भी इंसान।
ए0एम0यू0 तक पहुंची ब्लॉगिंग की धमक।

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