Wednesday, October 8, 2008

संगीत का आशावाद...(Optimism in Music) बनाम कानसेन/तानसेन

जोग लिखी संजय पटेल की के चिठ्ठे पर अभी अभी एक बेहद रोचक किंतु शिक्षाप्रद लेख पढ़ कर अभी अभी आया हूं(दोबारा).

श्रोता की खसलत कार्यक्रम का सत्यानाश कर देती है !

श्री संजय पटेल नें इस एक ही लेख में ’कानसेन’ और ’तानसेन’ को मुखातिब हो बड़ी ही सच्चाई और खुलूस से जो बात कही वह कहीं भी पढने को नही मिली, कम से कम मुझे तो.

आप इस लिन्क पर जा स्वयं पढ़े और फ़िर लौट के आयें यहां, थोड़ी चर्चा और करनी हो तो, क्योंकि बात बड़ी समझदारी की है. आपमें से कईयों ने तो वहां जाकर यह पोस्ट पढ़ भी लिया होगा .मैनें तो अपने आप से बिस्मिल्लाह किया है,सुधरने की इस प्रक्रिया में.
"http://joglikhisanjaypatelki.blogspot.com"

अब विस्तार से. थोडा़ समय लूंगा, माफ़ करियेगा.

उन कानसेनों के लिये जो अपने आप को बड़ा तानसेन समझते है - जो इस आत्ममुग्धता के वलय में ही रहते है,और ये निर्णय लेते हैं कि चूंकि वे अच्छे (?) गायक या वादक या कला के किसी भी माध्यम में दखल रखते हैं, इसलिये उन्हे यह अधिकार पहुंच जाता है, कि वे संगीत के अच्छे डॊक्टर हो गये है. हो भी सकते है, उनमें से कई होंगे भी , मगर तब तो उन्हे यह बात और जान लेना चाहिये कि कलाकार नें बड़ी मेहनत से अपना जो हुनर पेश किया है, उसके सकारात्मक पहलू में जा कर आप कुछ अच्छा ले सकते है, उससे कुछ पा सकते है तो क्या हर्ज़ है.मगर दुख की बात ये है, कि वह कानसेन (श्रोता) अपने साथ अपने तानसेन को भी ले जाता है,जिसका भूत उसके कान और सर पर चढ़ कर बोलता है. (कर्ण पिशाच्च ?!!).

मगर ऐसे सरस्वती पुत्रों को शायद यह अभिशाप ही है, जो मैनें अपनी संगीतयात्रा के दौरान अनुभव किया, कि इस मानसिकता के पीछे कारण होता है उनकी वह डाह या मत्सर जो इन टिप्पणीयों मे प्रतिध्वनित होता है कि भला इसकी कमीज़ मेरे कमीज़ से सफ़ेद क्यों ? कोई भी माई का लाल किसी भी गायक/गायिका की नकल शत प्रतिशत नहीं कर सकता. उनका जलाल आना तो संभव ही नही. मगर जैसा की संजय भाई के इस लेख पर की गयी एक टिप्पणी में यह बात बड़े गंभीरता से कही गयी है, कि किसी भी सूरत में लाईव्ह मेहफ़िल से बेहतर श्रवणानंद कहीं और नहीं मिल सकता. टेप या सी ड़ी में भी नहीं ,या उसी कार्यक्रम को रिकॊर्ड़ भी कर लें तो भी. क्योंकि वहां, श्रोता का कलाकार से सीधा आत्मिक संबंध जुड़ जाता है.साथ में माहौल, और श्रोता सत्संग का संयोग भी.

तभी जाकर संजय भाई के इस लेख की प्रासंगिकता और अधोरेखित होती है कि,

ईमानदार श्रोता वह है जो रहमदिल होकर कलाकार की तपस्या का मान करे और सह्र्दय होकर उसकी कला को दाद देकर उसे नवाज़े; उसका हौसला बढ़ाए.



अब बात करें उन कानसेनों की जो स्वयं तो कला के क्षेत्र के मात्र प्रबंधन या पद की वजह से जुड़े होते है,जो कला के किसी भी क्षेत्र से वास्ता नहीं रखते , मगर स्वयं को महान समीक्षक कहलाने में नही अघाते.ये उन टिप्पणीकारों की तरह है, जिन्होने कभी हाथ में बल्ला नहीं पकड़ा, कभी स्टेडियम में धूप में जाकर तपे नहीं मगर, घर में टी व्ही के सामने बैठ कर कहते है, भैया ये सचिन को इस तरह से खेलना था. वहां सचिन की जगह अगर भाईसाहब होते तो क्या गुल खिलाते उसका ज़िक्र यहां नहीं !

ऐसा नहीं की सभी ऐसे हों . इनमें कई ऐसे भी होते है, जो बेहद अच्छे श्रोता और पारखी होते है, संगीत की काफ़ी बारिकीयां उन्हे पकड़ में आती भी हैं. उनके पास संगीत से, माहौल से जुडे़ रहने से और गुणी, नामचीन कलाकारों को सुनने का अनुभव होने से यह पात्रता और इज़्ज़त हासिल हो जाती है. मगर उन्हे भी यह हक़ हासिल नहीं होता कि वे कलाकार के प्रस्तुतिकरण को हिकारत से या उनके पूर्वग्रह ,पूर्वधारणा से आकलन करें क्योकि संजय भाई नें यह भी तो लिखा है- हर दिन भट्टी जमें यह किसी भी बावर्ची (cook)के लिये संभव नहीं.

मैं तो आगे बढ कर यह वेदना भी व्यक्त करूंगा की अगर आप निर्णायक भी हैं तो क्या आपको उन कलाकारों का मखौ़ल उडा़ने का हक पहुंच जाता है? उनकी प्रतिभा या प्रस्तुति में अगर कोई ख़ामी है भी तो इसकी जगह उन्हे उचित मार्गदर्शन देकर मनोबल बढा नही सकते ? क्या आप नये इंडियन आईड़ल के गायक गायिकाओं के चयन प्रक्रिया को देख रहें है? सभी जजेस गुणी है, अपने अपने क्षेत्र के शीर्ष पर भी है. मगर उनकी प्रतिस्पर्धियों की इस तरह अप्रतिष्ठापूर्ण (Derogatory) हंसी उड़ा कर क्या अपने आप को एक अच्छा इंसान साबित कर रहें है?

एक और किस्म के श्रोता की जमात से आपको मिलवाता हूं . मेरे वे साथीगण ज़रूर समझ जायेंगे इसकी पीड़ा , जो गायक भी है.इन फ़रमाइशी श्रोताओं को हमेशा हर स्थान पर , हर मौके पर गाने की फ़रमाइश करने का रोग है.किसी भी महफ़िल में ये अचानक उग आते है, और किसी भी मेहमान को (अगर गायक हो तो) तपाक से गाना सुनाने की फ़रमाईश कर ड़ालते है.अब उस बेचारे की परेशानी तो ज़रा समझें.उसका बिना किसी सुर या ताल की संगत बिना गाना सुना सकने में हिचकिचाना लाज़मी है, (अगर वह थोड़ा बहुत भी गाना स्टेज पर गाता आया हो).संगत की अनुपस्थिती के वाजिब कारण से उसके नानुकूर करने पर ये फ़रमाइशी लाल तो पीछे ही पड़ जाते है,और दीगर भीड़ को भी साध लेते है.अरे, भाई साहब , आप तो गा ही दिजीये, यहां कौनसा स्टेज कार्यक्रम चल रहा है.अब वो नही गाता है तो ये कहते है क्या भाईसाहब, आप भी भाव खाने लगे. अरे मेरे कहने पर तो बड़े बड़े गायक गा चुके हैं, आपको तो घमंड़ हो गया है.यदि वह गा देता है, और मजमा जमता नही है तो मुंह बना कर कहते है - अभी कमजोर है, फ़लां फ़लां के सामने तो कुछ भी नही..पता नही ये लोग किसी पार्टी में अगर तेंडुलकर को भी मिलेंगे तो कहेंगे, ज़रा कवर ड्राईव मारकर तो बताईये!!

इसीलिये संजय भाई नें जिस मुद्दे पर बारीकी़ से और बेबाक़ी से रौशनी ड़ाली है, हमें उससे सबक लेना पड़ेगा .पहले अपने को, बाद में अपने इर्दगिर्द संगीतप्रेमीयों को अच्छे श्रोता से जो अपेक्षित है उसकी समझ दें.

और जो संगीतप्रेमी नहीं है, उन औरन्गज़बों से तो कुछ भी अपेक्षित नहीं किया जा सकता मगर उनसे भी भिड़ना तो पडेगा ही. अभी कुछ सालों पहले रफ़ी जी की पुण्यतिथी पर लायंस क्लब में एक कलाकार को गवाने का प्रस्ताव जब मैंने रखा था तो एक पदाधिकारी नें यह कहा था कि किसी और को ही क्यों, खुद रफ़ी जी को ही बुला लो. मैं उस समय तो चुप कर गया, मगर अब तक राह देख रहा हूं कि वे खुद उपर जाकर कब रफ़ी साहब को आमंत्रित करते हैं!!

अब उस चिठ्ठे की अगली महत्वपूर्ण बात पर गौर करें. आपका थोड़ा वक़्त और लूंगा.



जनाब मेहंदी हसन साहब के साथ गुज़रे अनुभव से हर संगीत के साधक का सर श्रद्धा से झुक जायेगा.यही नम्रता और अपने फ़न की तरफ़ मेहनत और मुसस्सल ईमानदारी का जज़बा हम सभी संगीत प्रेमी और विद्यार्थीयों को एक पाठ पढा़ जायेगा.वाह , क्या बात है!

संजय भाई को यह सौभाग्य प्राप्त है, कि अपने संगीत के शौक और संस्कृतिकर्मी होने की वजह से इन्दौर या पूरे मध्यप्रदेश में आये करीब करीब हर बड़े संगीतकार, गायक, गायिका, फ़िल्मी हस्तीयां, और संगीत की क्षेत्र में जुड़े हर कामयाब व गुमनाम साधक को उन्होनें बड़े करीब से जाना है, पहचाना है. बतौर एंकर पर्सन वाणी पर उनका प्रभुत्व तो है ही, मगर उनका शब्द लालित्य उनके मिजाज़ की तरह ही सुरीला है.इसीलिये उनसे यह आग्रह भी है, कि हम श्रोताओं के इस खा़स समूह को वो इतनी इज़्ज़त बक्षें और ऐसे ही कुछ अंतरंग और सारगर्भित अनुभव से हमें और भी नवाज़ें, ताकि नई पीढी़ को भी इन मूल्यों से रू-ब-रू करवाया जा सके.

बात मैंने भी ज़रा लंबी ही कर दी. मगर क्या करूं , जब संजय भाई ने लेख में उन पहलूओं को जब छूआ तो उस खसलत को मैंने भी महसूस किया.उपर से पिछले इतवार को कुछ ऐसा ही वाकया या अनुभव मेरे साथ भी दर पेश आया तो मैं भी लिख पडा़.(वह कल..)



चलो एक बार फिर से अच्छे श्रोता बन जाये हम दोनों..

मन्ना दा के किसी महफ़िल में तबलची की खस्लत!! हंसियेगा नही, वह भी कलाकार है.

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