Tuesday, October 28, 2008

इस दिवाली पर हार्दिक शुभकामनायें

मेरे ब्लॊग के अंतरंग मित्रों सुरीले साथियों,



आप सभी को इस दिवाली पर हार्दिक शुभकामनायें...

सुरमई अनुभूति और संवेदनशील धडकन के ताल पर आपके जीवन में सुखों की वर्षा हो.

और साथ ही भौतिक स्वरूप के सुख और समृद्धि की भी आप के और आपके परिवार में कभी कमी नहीं आये, ये जगत पिता ईश्वर से तहे दिल से प्रार्थना...


संगीत ही सभी दुखों को हर लेने का एक मात्र रामबाण इलाज है.सुरों का सानिध्य ही मन की वितुष्णा को निर्मल करने का सादा, और सीधा उपाय है.अहसासात की संवेदनशीलता ही दिल को , मन को ईश्वर के करीब ले जाती है.

सुखं हि दु:खान्यनुभूय शोभते,
घनांधकारेश्विव दीपदर्शनम्...


(मृच्छकटिकम् - शूद्रक)

घोर अंधकार में जिस प्रकार दीपक का प्रकाश सुशोभित होता है,
उसी प्रकार दुख का अनुभव कर लेने पर सुख का आगमन आनंदप्रद होता है.


आमीन..

Wednesday, October 15, 2008

किशोर कुमार के स्मृति में अनसुने पुराने गानों का कार्यक्रम

कड़ी - २

आपने वह गाना तो सुना ही होगा ,किशोर दा का.

वादा तेरा वादा , वादा तेरा वादा, वादे पे तेरे मारा गया , बंदा मैं सीधा साधा... , वादा तेरा वादा...

जी हां, मैंने आपसे वादा किया ज़रूर था , और आप भी ये गाना गा कर , एक सीधे साधे बंदे की तरह मुझे लानत तो नहीं भेज रहे होंगे, मगर खुश भी नहीं हुए होंगे.

लगभग ढ़ाई महिने पहले जब मैंने ब्लॉग का उपक्रम प्रारंभ किया था, तो ये मेरे कई प्रोजेक्टस की तरह एक था. मगर , बाद में यह मेरे दिल के करीब आता चला गया, अनजाने में, और जैसा की होता आया है, इसने नं.१ की पोजिशन प्राप्त कर ली है. साथ ही जैसा आगे होना था, प्रोजेक्ट के समय पर समाप्ति के वादे का टेंशन भी साथ साथ आने लगा.

होना यूँ था कि मैंने रफी साहब की कड़ी शुरू की थी. एक Engineer/Architect की तरह हर पोस्ट को प्लान किया, डिझाईन किया . रफ़ी साहब के अनेक रंग , अलग अलग छटा लिए गीतों का गुलदस्ता बनाते बनाते इन सभी का प्यार मुझे कब यहाँ ले आया पता ही नहीं चला .

पिछले महिने में विशेष हस्तियों के नाम पर काफ़ी कुछ लिखना चाहता था, जैसे लता जी, आशा जी, महेन्द्र कपूर , हसरत जयपुरी, आदि.

अब इस महिने विशिष्ट हस्तियां है, गुरुदत्त , फ़िर अमिताभ, अभी किशोर दा, फ़िर बेग़म अख़्तर आदि.पुराना प्रोजेक्ट तो अटक ही गया, नये भी ठीक से smoothly नहीं जा पाये. खै़र फ़िर अगले हफ्ते से वापिस अपने पहले वाले मकाम पर.

मैं आपसे कह रहा था कि किशोर कुमार के स्मृति में ता. १२ अक्तूंबर को इन्दौर के पास करीब १५-२० किमी ग्राम पिगडंबर में एक नये सुर आश्रम लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय में उनके कोई २० अनसुने, मधुर गीतों की रिकॊर्डस को पुराने रिकॊर्ड चेंजर पर बजा कर सुनवाया गया.

ये सौगात हमें दी है जाने माने ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संकलनकर्ता श्री सुमन चौरसिया नें, जिनके पास हज़ारों की तादात में अलग अलग भाषाओं में दुर्लभ संगीत रचनाओं,गानों के रिकॊर्ड्स का संग्रह है. ये संग्रहालय अभी पिछले दिनों लताजी के जन्म दिवस के पहली संध्या को ही लोकार्पित हुआ है, और हम आप जैसे शौकीन और समझू सुनकारों और कानसेनों के लिये ही ख़ास है.


इस स्वर महर्षि नें अपने सारा घर बार, जमीन जायज़ाद की आहुति इसी स्वर याग में दे कर ये अनूठा, और बेमिसाल तोहफ़ा देकर हमें उपकृत किया है.

उस दिन रेखांकित करने योग्य एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह थी, कि जैसा न्योते में कहा गया था, कार्यक्रम ठीक ३.५५ को सुमन जी नें शुरु करवा दिया. वे कह रहे थे की चाहे इतनी दूर कोई भी नहीं आये, या देर से आये, वे तो मात्र एक श्रोता को भी सुनवाना पसंद करेंगे, जो समय पर आ जायेगा.

पूरे कार्यक्रम की अवधि थी दो घण्टे से थोडा़ कम, और इन पूरे लमहों में हम जैसे स्थान और स्वयम की सुध बुध खो उन पुराने गीतों की मेलोडी में, उनके संगीतकारों के किये गये प्रयोगों में , और उसके विष्लेषण में इतना घुल मिल गये , कि होश ही नही रहा कि कब शाम ढल गयी. गांव के सुरम्य वातावरण में उस दिन वहां उपस्थित हर श्रोता डूबते सूरज की किरणों पर मन को सवार कर, किशोर कुमार के गाये एकल और दोगानों में जीवन का हर रंग ढूंढने में लग गया. खेमचंद्र प्रकाश से हेमंत कुमार नें अपने मधुर स्वरांकन से सजाये इन गीतों में गोधुली की उस पावन बेला पर घर लौटते हुए गायों के घुंगरूंओं की ताल मिल कर एक स्वर्गिक सुख का अनुभव करा रही थी.
(चित्र ’नई दुनिया ’ से साभार)

अब चलियें गीतों की लिस्ट पर नज़र डा़लें :

१. मरने की दुआएं क्यूँ मांगू - जिद्दी - खेमचंद्र प्रकाश
२. जगमग जगमग दीप - रिमझिम - खेमचंद्र
३. लहरों से पूछ लो (लता) - काफ़िला - हुस्नलाल भगतराम
४. हुस्न भी है उदास उदास - फ़रेब - अनिल विश्वास
५. भूलने वाले - गैर फिल्मी - भोलानाथ
६. आरारम,ताराराम - आवाज़ - सलिल चौधरी
७. तू चन्दा तो मैं हूँ चकोर (लता) - आगोश - रोशन
८. मैं हंसूं या रोऊँ - माँ (अप्रदर्शित फ़िल्म) - चित्र गुप्त
९. मोहे ला दे नौलखा हार (शमशाद) - नौलखा हार - भोला श्रेष्ठ
१०. चुप हो जा तेरे लिए -बंदी - हेमंत कुमार
११. ताकत के पंजे में - कहीं अँधेरा ,कहीं उजाला - ओ.पी. नय्यर
१२. पायलवाली देखना - एक राज - चित्रगुप्त
१३. दो आखें ज़नानी (आशा) - दाल में काला - सी. रामचंद्र
१४. पहली ना दूसरी - मदभरे नैन - एस.डी. बर्मन
१५. काली काली रातों - जोरू का भाई - जयदेव
१६. मेरे जीवन की रेल - महलों के ख़्वाब - एस. डी. बर्मन
१७. बंगला गीत जो इन गीतों की धुन पर पर गाये गये -राहुल देव बर्मन
- ये क्या हुआ, कैसे हुआ
- तुम बिन जाऊं कहां..
- किशोर दा की पहली पत्नी रुमा देवी के साथ गाया एक दोगाना
१८. हवाओं पे लिख दो - दो दूनी चार - हेमंत कुमार

ये अंतिम गीत उन्होने मेरे पसंद का सुनवाकर इस कार्यक्रम को विराम दिया.

मैं चाहता तो था कि इन गीतों मे से एक दो गीतों को यहां सुनवाऊं. ऐसा आग्रह भी मैने सुमन भाई ने किया भी था. उन्होने स्वीकृति भी दे दी . मगर किसी तकनीकी वजह से वे उन गीतों की रिकॊर्ड़ को टेप पर तबादला नहीं कर पानें से, वे गीत मुझ तक पहूंच नहीं पाये . सो मैं आपको मायूस करूंगा जिसका मुझे खेद है. दरसल यह पोस्ट तो १५ ता. को ही लिख कर तैयार थी और मैं राह देखकर अब पोस्ट लगा रहा हूं.

मगर रुकावट के लिये खेद है, के बाद का संगीत नहीं लगा कर, मैं आप को सुनवा रहा हूं किशोर दा की ही आवाज़ में एस.डी़.बर्मन के देहांत के बाद मे दिये गये किशोर दा द्वारा दिये गये साक्षात्कार को सुनवा रहा हूं. अगर सुमन जी दे पाये तो कल परसों में फ़िर हाज़िर हो जाऊंगा. वैसे आपकी कोई पसंद हो तो कहें..कोशिश करूंगा..






Monday, October 13, 2008

जिंदादिल और संजीदा कलाकार - किशोर कुमार

कड़ी - १

आज दिल बहुत उदास है.

ज़ाहिर है. आज 13 अक्टूबर को किशोर दा की पुण्यतिथि है, बींसवीं.


आज सुबह से ही एक बेकसी सी छाई रही. पहले जब भी कभी उदासी का आलम होता था तो किशोर दा के नगमों के साए तले आसन जमा कर बैठ जाते थे, उनके हर मूड के गीतों को सुन कर , कभी गुनगुना कर दिल का बोझ कुछ तो हलका कर लिया करते थे. मगर आज क्या करें ?

आज दिन भर वो मेरे करीब , आसपास रहे, उनका अहसास मन में और गहरा उतरता चला गया . यादों के रोलरकोस्टर पर मेरा मन बैठ उनके गानों के विश्व में , सुरों के चढाव और उतार में खो गया. कभी सुन कर, कभी गुनगुना कर किशोर दा के गीतों के महासागर में डूब गया.

किशोर दा के जिंदादिल व्यक्तित्व की बड़ी चर्चाएँ है. मगर कोई यह पूछे की वे पहले एक अच्छे गायक थे,या संगीतकार ,या
अभिनेता, या निर्देशक - तो यह भी अजीब सा सवाल हुआ. इस हरफन मौला कलाकार नें एक अवलिया संत की तरह किसी बंधन को नही स्वीकारा. फ्री स्टाईल कुश्ती के पहलवान की तरह अपने फक्कड़ अंदाज़ में वे हर आखाड़े में कूद पड़े! फ़िल्म संगीत की हर विधा में अपने सृजन की क्षुधा को शांत कराने में लगे रहे.

His genious was menifested in his genre of Inovative, Distinctive & passionate creativity ,parallel to none. His responce to Music was Sponteneous & Intuitive,yet intrepid enough to mesmerise us. His golden voice had all shades of human traits & emotional chords, echoed with pathos & malancholy.

Although, he was not a trained Singer, (He need not be ) he had an unique approach to singing - Kishorian approach!!,unlike his contempory equally genious peers, who had a perfetionist and traditional approach to rendering of songs.

A Natural player like Sachin or Lara, he could apply all his skills with his masterly strokes,at his free will, to all kind/genre of musical notes ,difficult or simple to execute.Kishor Kumar could make a song look so deceptively simple with his Sonorous Richness of Voice.

एक अच्छे गायक की पहचान के लिए, उसके गले के घुमाव, मींड , और अहसासात को , संवेदनाओं , भावनाओं को स्वरों के माध्यम से अभिव्यक्त कराने के उसके कमाल को जानने, समझने के लिए किसी भी सुधी श्रोता को स्वयं गायक होना ज़रूरी नहीं. इसीलिये किशोर दा आम जनता की पसंद के गायक बनें.

किशोर कुमार के गले में जो खनक थी, उसके साथ गज़ब की कॉमेडी की टाईमिंग , अभिनय का अनूठा संयोग था जिसका उपयोग वे गीत में जीवंतता लाने के लिए करते थे. खासकर वे कॉमेडी गीत जिसमें संभाषण या बातचीत के सादे ढंग का उपयोग किया गया हो. कुछ इसी तरह का अनूठा गुण आशा भोंसले की आवाज़ में भी था, जिसकी वजह से उनके दोगानें भी बड़े मक़बूल हुए. (आंखों में क्या जी, हाल कैसा है जनाब का, आप यहाँ आए किस लिए, आदि)

उनकी यह जीवंतता , उनकी ये जिंदादिली , खिलन्दडपन के बावजूद वे एक संजीदा इंसान थे. मन के भीतर कहीँ गहरे में चुभ रहा वह अकेलापन , उनके दर्द भरे गीतों में उभर आता था .

एक टीस सा एहसास हमेशा के लिए अपने जिगर पर लेकर वे हमसे रुखसत हो गए.


कहीं ज़िक्र हुआ था किशोर दा से उनके सबसे ज़्यादा दिल के करीब पसंदीदा गानों के बारे में , तो उन्होंने जिन गीतों का चयन किया था वे सभी के सभी दर्द भरे गीत थे.

उनकी लिस्ट यहाँ दी जा रही है : ( Not in Order)

१. दुखी मन मेरे - सचिन देव बर्मन - फंटूश
२. जग मग जग मग करता निकला - खेमचंद्र प्रकाश - रिमझिम
३. हुस्न भी है उदास उदास - अनिल विश्वास - फ़रेब
४. चिंगारी कोई भड़के - राहुल देव बर्मन - अमर प्रेम
५. मेरे नैना सावन भादों - राहुल देव बर्मन - महबूबा
६. कोई हमदम ना रहा - किशोर कुमार - झुमरू
७. मेरे महबूब क़यामत होगी - लक्ष्मीकांत प्यारेलाल - मि. एक्स इन बोम्बे
८. कोई होता जिसको अपना - सलिल चौधरी - मेरे अपने
९. वो शाम कुछ अजीब थी - हेमंत कुमार - खामोशी
१०. बड़ी सूनी सूनी है - सचिन देव बर्मन - मिली

अभी जो गीत मैं यहाँ सुनवा रहूँ , ये मुझे बड़ा पसंद है ,

आ चल के तुझे , मैं ले के चलूँ , एक ऐसे गगन के तले,
जहाँ गम भी ना हो , आँसू भी ना हो, बस प्यार ही प्यार पले..

एक ऐसा ही जहाँ चाहते थे किशोरकुमार ...



किसी भी गायक की असली पहचान होती है ऐसे गाने से जिसमें सुरों का साथ बहुत कम लिया गया हो.
जिन रातों की भोर नहीं,
आज ऐसी ही रात आयी..

(कितना मौजूं है ये आज की रात ..........)


कल फ़िर लेकर आऊँगा एक अनूठे कार्यक्रम की रिपोर्ट लेकर, जो कल ही किशोर जी की स्मृति में आयोजित किया गया था, जिसमें जाने माने ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संकलनकर्ता श्री सुमन चौरसिया नें हमें किशोर कुमार के वे नायाब और दुर्लभ गीत सुनवाए की हम जैसे श्रोताओं के स्मृति पटल से वे अब तक मिट नही पा रहे है.

Wednesday, October 8, 2008

संगीत का आशावाद...(Optimism in Music) बनाम कानसेन/तानसेन

जोग लिखी संजय पटेल की के चिठ्ठे पर अभी अभी एक बेहद रोचक किंतु शिक्षाप्रद लेख पढ़ कर अभी अभी आया हूं(दोबारा).

श्रोता की खसलत कार्यक्रम का सत्यानाश कर देती है !

श्री संजय पटेल नें इस एक ही लेख में ’कानसेन’ और ’तानसेन’ को मुखातिब हो बड़ी ही सच्चाई और खुलूस से जो बात कही वह कहीं भी पढने को नही मिली, कम से कम मुझे तो.

आप इस लिन्क पर जा स्वयं पढ़े और फ़िर लौट के आयें यहां, थोड़ी चर्चा और करनी हो तो, क्योंकि बात बड़ी समझदारी की है. आपमें से कईयों ने तो वहां जाकर यह पोस्ट पढ़ भी लिया होगा .मैनें तो अपने आप से बिस्मिल्लाह किया है,सुधरने की इस प्रक्रिया में.
"http://joglikhisanjaypatelki.blogspot.com"

अब विस्तार से. थोडा़ समय लूंगा, माफ़ करियेगा.

उन कानसेनों के लिये जो अपने आप को बड़ा तानसेन समझते है - जो इस आत्ममुग्धता के वलय में ही रहते है,और ये निर्णय लेते हैं कि चूंकि वे अच्छे (?) गायक या वादक या कला के किसी भी माध्यम में दखल रखते हैं, इसलिये उन्हे यह अधिकार पहुंच जाता है, कि वे संगीत के अच्छे डॊक्टर हो गये है. हो भी सकते है, उनमें से कई होंगे भी , मगर तब तो उन्हे यह बात और जान लेना चाहिये कि कलाकार नें बड़ी मेहनत से अपना जो हुनर पेश किया है, उसके सकारात्मक पहलू में जा कर आप कुछ अच्छा ले सकते है, उससे कुछ पा सकते है तो क्या हर्ज़ है.मगर दुख की बात ये है, कि वह कानसेन (श्रोता) अपने साथ अपने तानसेन को भी ले जाता है,जिसका भूत उसके कान और सर पर चढ़ कर बोलता है. (कर्ण पिशाच्च ?!!).

मगर ऐसे सरस्वती पुत्रों को शायद यह अभिशाप ही है, जो मैनें अपनी संगीतयात्रा के दौरान अनुभव किया, कि इस मानसिकता के पीछे कारण होता है उनकी वह डाह या मत्सर जो इन टिप्पणीयों मे प्रतिध्वनित होता है कि भला इसकी कमीज़ मेरे कमीज़ से सफ़ेद क्यों ? कोई भी माई का लाल किसी भी गायक/गायिका की नकल शत प्रतिशत नहीं कर सकता. उनका जलाल आना तो संभव ही नही. मगर जैसा की संजय भाई के इस लेख पर की गयी एक टिप्पणी में यह बात बड़े गंभीरता से कही गयी है, कि किसी भी सूरत में लाईव्ह मेहफ़िल से बेहतर श्रवणानंद कहीं और नहीं मिल सकता. टेप या सी ड़ी में भी नहीं ,या उसी कार्यक्रम को रिकॊर्ड़ भी कर लें तो भी. क्योंकि वहां, श्रोता का कलाकार से सीधा आत्मिक संबंध जुड़ जाता है.साथ में माहौल, और श्रोता सत्संग का संयोग भी.

तभी जाकर संजय भाई के इस लेख की प्रासंगिकता और अधोरेखित होती है कि,

ईमानदार श्रोता वह है जो रहमदिल होकर कलाकार की तपस्या का मान करे और सह्र्दय होकर उसकी कला को दाद देकर उसे नवाज़े; उसका हौसला बढ़ाए.



अब बात करें उन कानसेनों की जो स्वयं तो कला के क्षेत्र के मात्र प्रबंधन या पद की वजह से जुड़े होते है,जो कला के किसी भी क्षेत्र से वास्ता नहीं रखते , मगर स्वयं को महान समीक्षक कहलाने में नही अघाते.ये उन टिप्पणीकारों की तरह है, जिन्होने कभी हाथ में बल्ला नहीं पकड़ा, कभी स्टेडियम में धूप में जाकर तपे नहीं मगर, घर में टी व्ही के सामने बैठ कर कहते है, भैया ये सचिन को इस तरह से खेलना था. वहां सचिन की जगह अगर भाईसाहब होते तो क्या गुल खिलाते उसका ज़िक्र यहां नहीं !

ऐसा नहीं की सभी ऐसे हों . इनमें कई ऐसे भी होते है, जो बेहद अच्छे श्रोता और पारखी होते है, संगीत की काफ़ी बारिकीयां उन्हे पकड़ में आती भी हैं. उनके पास संगीत से, माहौल से जुडे़ रहने से और गुणी, नामचीन कलाकारों को सुनने का अनुभव होने से यह पात्रता और इज़्ज़त हासिल हो जाती है. मगर उन्हे भी यह हक़ हासिल नहीं होता कि वे कलाकार के प्रस्तुतिकरण को हिकारत से या उनके पूर्वग्रह ,पूर्वधारणा से आकलन करें क्योकि संजय भाई नें यह भी तो लिखा है- हर दिन भट्टी जमें यह किसी भी बावर्ची (cook)के लिये संभव नहीं.

मैं तो आगे बढ कर यह वेदना भी व्यक्त करूंगा की अगर आप निर्णायक भी हैं तो क्या आपको उन कलाकारों का मखौ़ल उडा़ने का हक पहुंच जाता है? उनकी प्रतिभा या प्रस्तुति में अगर कोई ख़ामी है भी तो इसकी जगह उन्हे उचित मार्गदर्शन देकर मनोबल बढा नही सकते ? क्या आप नये इंडियन आईड़ल के गायक गायिकाओं के चयन प्रक्रिया को देख रहें है? सभी जजेस गुणी है, अपने अपने क्षेत्र के शीर्ष पर भी है. मगर उनकी प्रतिस्पर्धियों की इस तरह अप्रतिष्ठापूर्ण (Derogatory) हंसी उड़ा कर क्या अपने आप को एक अच्छा इंसान साबित कर रहें है?

एक और किस्म के श्रोता की जमात से आपको मिलवाता हूं . मेरे वे साथीगण ज़रूर समझ जायेंगे इसकी पीड़ा , जो गायक भी है.इन फ़रमाइशी श्रोताओं को हमेशा हर स्थान पर , हर मौके पर गाने की फ़रमाइश करने का रोग है.किसी भी महफ़िल में ये अचानक उग आते है, और किसी भी मेहमान को (अगर गायक हो तो) तपाक से गाना सुनाने की फ़रमाईश कर ड़ालते है.अब उस बेचारे की परेशानी तो ज़रा समझें.उसका बिना किसी सुर या ताल की संगत बिना गाना सुना सकने में हिचकिचाना लाज़मी है, (अगर वह थोड़ा बहुत भी गाना स्टेज पर गाता आया हो).संगत की अनुपस्थिती के वाजिब कारण से उसके नानुकूर करने पर ये फ़रमाइशी लाल तो पीछे ही पड़ जाते है,और दीगर भीड़ को भी साध लेते है.अरे, भाई साहब , आप तो गा ही दिजीये, यहां कौनसा स्टेज कार्यक्रम चल रहा है.अब वो नही गाता है तो ये कहते है क्या भाईसाहब, आप भी भाव खाने लगे. अरे मेरे कहने पर तो बड़े बड़े गायक गा चुके हैं, आपको तो घमंड़ हो गया है.यदि वह गा देता है, और मजमा जमता नही है तो मुंह बना कर कहते है - अभी कमजोर है, फ़लां फ़लां के सामने तो कुछ भी नही..पता नही ये लोग किसी पार्टी में अगर तेंडुलकर को भी मिलेंगे तो कहेंगे, ज़रा कवर ड्राईव मारकर तो बताईये!!

इसीलिये संजय भाई नें जिस मुद्दे पर बारीकी़ से और बेबाक़ी से रौशनी ड़ाली है, हमें उससे सबक लेना पड़ेगा .पहले अपने को, बाद में अपने इर्दगिर्द संगीतप्रेमीयों को अच्छे श्रोता से जो अपेक्षित है उसकी समझ दें.

और जो संगीतप्रेमी नहीं है, उन औरन्गज़बों से तो कुछ भी अपेक्षित नहीं किया जा सकता मगर उनसे भी भिड़ना तो पडेगा ही. अभी कुछ सालों पहले रफ़ी जी की पुण्यतिथी पर लायंस क्लब में एक कलाकार को गवाने का प्रस्ताव जब मैंने रखा था तो एक पदाधिकारी नें यह कहा था कि किसी और को ही क्यों, खुद रफ़ी जी को ही बुला लो. मैं उस समय तो चुप कर गया, मगर अब तक राह देख रहा हूं कि वे खुद उपर जाकर कब रफ़ी साहब को आमंत्रित करते हैं!!

अब उस चिठ्ठे की अगली महत्वपूर्ण बात पर गौर करें. आपका थोड़ा वक़्त और लूंगा.



जनाब मेहंदी हसन साहब के साथ गुज़रे अनुभव से हर संगीत के साधक का सर श्रद्धा से झुक जायेगा.यही नम्रता और अपने फ़न की तरफ़ मेहनत और मुसस्सल ईमानदारी का जज़बा हम सभी संगीत प्रेमी और विद्यार्थीयों को एक पाठ पढा़ जायेगा.वाह , क्या बात है!

संजय भाई को यह सौभाग्य प्राप्त है, कि अपने संगीत के शौक और संस्कृतिकर्मी होने की वजह से इन्दौर या पूरे मध्यप्रदेश में आये करीब करीब हर बड़े संगीतकार, गायक, गायिका, फ़िल्मी हस्तीयां, और संगीत की क्षेत्र में जुड़े हर कामयाब व गुमनाम साधक को उन्होनें बड़े करीब से जाना है, पहचाना है. बतौर एंकर पर्सन वाणी पर उनका प्रभुत्व तो है ही, मगर उनका शब्द लालित्य उनके मिजाज़ की तरह ही सुरीला है.इसीलिये उनसे यह आग्रह भी है, कि हम श्रोताओं के इस खा़स समूह को वो इतनी इज़्ज़त बक्षें और ऐसे ही कुछ अंतरंग और सारगर्भित अनुभव से हमें और भी नवाज़ें, ताकि नई पीढी़ को भी इन मूल्यों से रू-ब-रू करवाया जा सके.

बात मैंने भी ज़रा लंबी ही कर दी. मगर क्या करूं , जब संजय भाई ने लेख में उन पहलूओं को जब छूआ तो उस खसलत को मैंने भी महसूस किया.उपर से पिछले इतवार को कुछ ऐसा ही वाकया या अनुभव मेरे साथ भी दर पेश आया तो मैं भी लिख पडा़.(वह कल..)



चलो एक बार फिर से अच्छे श्रोता बन जाये हम दोनों..

मन्ना दा के किसी महफ़िल में तबलची की खस्लत!! हंसियेगा नही, वह भी कलाकार है.
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