शमा - ए - रफ़ी के परवानों .......
आखिर फ़िर वही मनहूस ३१ जुलाई आ ही गयी.
फ़िर वही मकाम आया है आज, जिससे गुज़रना हमारे दिलों पर फ़िर खंजर चलने से कम नहीं.आज ही के दिन हमारे मूसीकी़ की हसीन दुनिया में चमकता हुआ आफ़ताब गुल हो गया और छा गयी ऐसी तारीकी, कि आज तक हम उस उजाले के तसव्वूर में खुदी को भुलाये , खुद को भुलाये बस जीये जा रहे हैं.
बचपन से हमने जब भी होश सम्हाला, अपने को इस सुरमई शाहानः आवाज़ की मोहोब्बत की गिरफ़्त में पाया, जिसे मेलोडी या सुरीलेपन का पर्याय कहा जाता रहा है.हम मश्कूर हैं इस सुरों के पैगंबर के, जिसनें हमारे जवानी को , एहसासात की गहराई को , प्यार की भावनाओं को परवान चढाया, और हमें इस लायक बनाया कि हम उस खुदा के साथ साथ उसके अज़ीम शाहकार की भी इज़्ज़त और इबादत कर सके.
तब से आज तक वह नूरानी आवाज़ की परस्तिश सिर्फ़ मैं ही नहीं , आप सभी सुरों के दुनिया के बाशिंदे भी कर रहें है.काश होता ये कि मालिक हम सभी तुच्छ लोगों की ज़िंदगी में से कुछ दिनों को भी उनकी उम्र में जोड देते तो आज हम उस फ़रीश्ते की आवाज़ से मरहूम ना होते, और रोज़ रोज़ उनकी मधुर स्वर लहरीयों की छांव तले उस कुदरती मो’अजिज़ः को सुनते और बौराते फ़िरते.अभी वैसे भी मूसीकी़ के इस जहां में फ़ाकाकशी के अय्याम चल रहे है, और ऐसे में रफ़ी साहब की यादों में और उनके गाये हुए कालातीत गानों के सहारे ही मस्त हुए जा रहे हैं, अवलिया की तरह झूमें जा रहे हैं.
आपको पिछले साल रफ़ी साहब की पोस्ट पर बताया ही था कि मैने अपने गायन के शौक का आगाज़ किया था उम्र के सातवें साल में उस बेहतरीन गीत से जिसे नौशाद जी नें फ़िल्म कोहिनूर के लिये राग हमीर में निबद्ध किया था, और रफ़ी साहब में अपनी पुरनूर आवाज़ में चार चांद लगा दिये थे -
मधुबन में राधिका नाचे रे....
कृपया यहां पढें
(http://dilipkawathekar.blogspot.com/2008/08/blog-post_14.html)
उस दिन से रफ़ी जी के गानों का जुनून दिल में तारी हो रहा है.दिल दिन ब दिन हर गीत की गहराई में गोते खा कर नये नये आयाम खोज कर ला रहा है, हीरे मोती के खज़ाने निकाल रहा है. जैसे गीता को जितनी भी बार पढो उनती बार नये अर्थ निकल कर आते है, रफ़ी जी के गाये हर गीत को बार बार सुनने पर हर बार नया आनंद प्राप्त होता है.
आज सुबह साडे़ छः बजे जब विविध भारती पर भूले बिसरे गीत में एक गीत सुना तो लगा जैसे रफ़ी साहब के लिये आज कुदरत भी सुबह सुबह तैय्यार हो कर सलाम करने आ गयी है.
नाचे मन मोरा मगन तिकता धीगी धीगी.....
मैं रोज़ जहां सुबह घूमने जाता हूं (अमोघ का स्कूल - डेली कॊलेज , इंदौर...) ,उसके रास्ते में ये गीत सुना.और संयोग ये कि हल्की हल्की बूंदा बांदी हो चुकी थी, और फ़िज़ा में वही एम्बियेंस घुल रहा था .उस माहौल को मैने कॆमेरे में कैद कर लिया, जहां बदरा गिर आये थे भीगी भीगी रुत में . मोर भी अपनी प्रियतमा के लिये नहीं आज खास तौर पर स्वयं रफ़ी जी के लिये ही अपने मोरपंखों को फ़ैलाये नृत्य कर रहा था.
आईये , आप भी उस भीगे मौसम में भीगे मन से सराबोर होने आ जायें ,रफ़ी साहब की पुरकशिश आवाज़ में ये गीत भी सुनें और सुकून हासिल करें.
यकीन मानिये, इस फ़िल्म में कोई स्टॊक सीन नहीं है, बस आज प्रकृती नें भी रफ़ी जी के लिये अपना इज़हारे अकीदत पेश किया है.मानो रफ़ी जी के ही लिये ये पूरा महौल खास आज के लिये निर्मित किया गया हो.
आज से हम हर तीसरे दिन मुहम्मद रफ़ी जैसी शक्सि़यत पर कुछ ना कुछ लिखेंगे.कुछ दिल से दिल की बात करेंगे, और अपने अपने दिलों को सुरों के इस राह पर ले जायेंगे, जिसका रहनुमा भी रफ़ी जी हैं और मंज़िल भी रफ़ीजी . कि़यामत आती हो तो आने दो.
आईये, हम सभी श़ख्सी़ तौर पर उस पाक रूह की तस्कीन के लिये मिल कर दुआ करें, क्योंकि अब हमारे हाथ में दुआ करने के अलावा और कुछ भी नहीं जो उस श़क्स़ को नज़र कर सकें....
तेरे गीतों में बाकी़ अब तलक वो सोज़ है, लेकिन..
वो पहले फ़ूल बरसाते थे, अब दामन भिगोते हैं.......
(जावेद नसीम)