Friday, December 4, 2009
सुन मेरे बंधू रे, सुन मेरे मितवा, सुन मेरे साथी रे
सचिन्द्र देव बर्मन, ये नाम मेरी पिछली पोस्ट पर चमक रहा था. अब भी मेरे मन में घुला घुला सा, गुनगुनाया सा नाच रहा है. कुछ भी लिख दूं, उनके लिये अधूरा सा लगता है.
और तो और, जब उनकी धुनों पर रचे गये गीत जब मैं गुनगुनाता हूं, तो वे खुद मुझमें परकाया प्रवेश से कर जाते है ,और मैं अपने गले से निकलती हुई इठलाती हुई स्वर लहरियां सुन कर,उनकी बंदिशों की मुरकीयों और हरकतों की बारीकी से और रिदम की लयकारी से अभिभूत हो कर, ना जाने किस संसार में पहुंच जाता हूं.फ़िर भी अधूरा पाता हूं अपने आप को. उनकी ये अद्भुत स्वररचना का क्षितिज़ दिखता भर है,पार जाना असंभव है.
आज इतने दिनों बाद मैं आपसे मुखातिब हूं , फ़िर भी सचिन दा की बनाई गयी धुनों के मोह जाल में अभी भी गिरफ़्तार हूं,इसलिये एक और पोस्ट पेशे खिदमत...
सचिन दा फ़िल्मों के चयन को लेकर बेहद चूज़ी थे. वे सिर्फ़ उन्ही के लिये संगीत देते थे जिन्हे संगीत की समझ थी.
गायक के चुनाव करते हुए भी वे उतने ही चूज़ी होते थे. सुना है, जिस दिन उनकी रेकॊर्डिन्ग होती थी, वे सुबह गायक से फोन से बात करते थे और बातचीत के दौरान पता लगा लेते थे कि उस दिन उस गायक या गायिका के स्वर की क्या गुणवत्ता है.एक बार किशोर दा के किसी पुराने नटखट गाने को सुबह कहीं रेडियो पर सुना, और एकदम फ़ोन घुमा दिया- किशोर, आज की रिकोर्डिंग में मुझे छिछोरा पन नहीं चलेगा... किशोर दा सोचते ही रह गये कि जितनी संजीदगी से उन्होने उस दर्द भरे गीत की रिहल्सल की थी, उसमें छिछोरापन कहां से दिख गया दादा को!!
संगीत के कंपोज़िशन के साथ ही वाद्यों के ओर्केस्ट्राइज़ेशन की भी बारीकीयां उन्हे पता थी.एक दिन किसी कारणवश एक की जगह दो वायोलीन वादक रिकॊर्डिन्ग में बजा रहे थे, तो दादा नें कंट्रोल केबिन से साज़ों के हुजूम में से यह बात पकड़ ली.उन्होने कहा, मैं एक ही वायोलीन का इफ़ेक्ट चाहता हूं.
वे इस बात को मानते थे, और अपने बेटे राहुल को भी उन्होने यह बात बडे़ गंभीरता से समझाई थी कि हमेशा कुछ नया सृजन किया करो, ताकि लोगों में यह आतुरता बनी रहे, कि अब क्या. जब तीसरी मंज़िल फ़िल्म के लिये पंचम ने सभी गीत लगभग वेस्टर्न स्टाईल से दिये तो दादा बेहद खुश हुए. वे धोती कुर्ता ज़रूर पहनते थे मगर मन से बडे आधुनिक या मोडर्न थे.
पंचम से वे बेहद प्यार करते थे. एक दिन जब वे कहीं टहल रहे थे तो बच्चों के किसी समूह में से एक ने कहा- देखो, वे आर डी बर्मन के पिताजी जा रहे हैं. वे उस दिन बडे खुश होकर सब को पान खिलाने लगे (वे जब खुश होते थे तो सब को पान खिलाया करते थे)
किसी कारणवश प्यासा के समय उनकी बातचीत लता से बंद हो गयी थी. तो उन्होने आशा से गाने गवाये, मगर बाद में पंचम की वजह से छोटे नवाब की रिकोर्डिंग के समय वह रूठना खत्म हुआ.
सचिन दा से समय तक गीत पहले लिखे जाते थे, बाद में धुन बनाई जाती थी. दादा इतने नैसर्गिक कम्पोज़र थे कि मिनटों में धुन बना लेते थे, और इसीलियी उन्होने यह प्रथा पहली बार डाली कि पहले धुन बनेगी बाद में उसपर बोल बिठाये जायेंगे. साहिर, मजरूह और शैलेंद्र के साथ उनके कई गीत बनें, मगर देव आनंद नें नीरज, हसरत और पं. नरेन्द्र शर्मा से भी कई गीत लिखवाये जो हिन्दी में साहित्यिक वज़न रखते थे. पं. नरेन्द्र शर्मा से तो वे बडे़ खुश रहते थे क्योंकि वे भी मिनटों में कोई भी गीत रच लेते थे, वह भी बहर में, और विषय से बाबस्ता.
प्यासा फ़िल्म में गुरुदत्त नें उनसे एक गीत बिना किसी साज़ के भी बनवाया और रफ़ी से गवाया था. (तंग आ चुके है कश्मकशे जिंदगी से हम- जो बाद में फ़िल्म लाईट हाऊस में एन.दत्ता के निर्देशन में आशा नें भी गाया). साहिर की एक काव्य संग्रह 'परछाईयां' से उन्होने कुछ चुनिंदा रचनायें चुनी और सचिन दा से धुन बनवाई. जैसे जिन्हे -नाज़ है हिन्द पर वो कहां है, जाने वो कैसे लोग थे - फ़िल्म के बाकी गानो में आपको सचिन दा के अंदाज़ के गानें मिले होंगे- सर जो तेरा चकराये, हम आप की आंखों में आदि. मगर आपनें भी सुन ही लिया है, कि दूसरे गीत कितने अलग ढंग से संगीत बद्ध किये दादा नें.
यह फ़िल्म उनके गुरुदत्त और सचिन दा के जोडी़ का एक काव्यात्मक ऊंचाई प्राप्त करने वाला कमाल ही था, जो प्यासा के बाद दादा और साहिर के मनमुटाव के बाद टूट गया. सचिन दा का बोलबाला तब इतना बढ़ गया था कि गुरुदत्त को कागज़ के फ़ूल फ़िल्म के समय दोनों में से जब एक को चुनना पडा़ तो उन्होने दादा को ही चुना.(अबरार अल्वी अब नहीं रहे, उन्होने ये किस्सा कहीं बताया था, तो किसी और मौके पर वह भी सुना देंगे)
उनके गीतों में जो लोकगीतों की महक थी वह उत्तर पूर्व भारत के भटियाली, सारी और धमैल आदि ट्रेडिशन से उपजी थी. उनकी आवाज़ पतली ज़रूर थी मगर दमदार और एक विशिष्ट ठसके वाले लहजे की वजह से पृष्ठभूमि में गाये जाने वाले गीतों के लिये बड़ी सराही गयी.
आज फ़िर इच्छा हो रही है कि उनकी आवाज़ में भी एक गीत गाऊं -
सुन मेरे बंधू रे, सुन मेरे मितवा, सुन मेरे साथी रे...
'बड़ी सूनी सूनी सी है, ज़िन्दगी ये ज़िन्दगी ' इस गीत के रिकॊर्डिंग के दो दिन बाद ही वे हमें छोड़ कर चले गये और गाने के बोल सार्थक कर गये.
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13 comments:
आपने याद दिलाया तो मुझे क्या क्या याद आया ,हाय अब कहां वो लोग, कहां वो शायरी कहाँ वो संगीत, वो गायक, किसी ने सच ही कहा है ओल्ड ईज़ गोल्ड. आजकल तो बस शोर मच रहा है,और लोग मॉडर्न बनने के चक्कर मैं ,बस सुने जा रहें है ना मतलब मालूम ना म्यूज़िक ही समझ पा रहे हैं. चलिए मज़ा लेते हैं, शुक्रिया
जितना डूब कर पढ़ा उतना ही डूब कर खो गये सुनने में....वाह!!
बहुत शानदार पोस्ट, आपकी हर पोस्ट संजोकर रखने लायक होती है. पढते २ पुरानी यादों मे लौटा ले जाते हैं आप. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बार बार सुन कर भी मन नहीं भरा बहुत बहुत धन्यवाद्
S.D.Burman ji par likhi yah post bahut hi achchee lagi.
Aap ka gaya yah geet behad achchha hai...bahut achchee recording aur mixing hui hai..original jaisa hi alg rhaa hai--voice modulation ..kya kahne!congrates!
Very informative and enjoyable.
Now awaiting yr take on O.P.Nayyar.
गीत में एक ग़ज़ब का आकर्षण होता है..
आप का यह गीत सुंन कर तो मेरी आंखो मै वो चित्र भी घुमने लगा, मस्त कर दिया इस सुंदर गीत ने धन्यवाद
आनंद आ गया दिलीप जी. बहुत-बहुत शुक्रिया!
आपके पिछले गीत भी सुने हैं पर इस गीत में आपने तो कमाल कर दिया। बहुत बहुत आनंद आया। सचिन साहब के बारे में इन जानकारियों को बाँटने के लिए आभार...
ये तो आपकी बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है!
नमस्कार. बर्मनदांची मी जबरी चाहती आहे.आज अचानक तुमच्या ब्लॊगवर आले आणि अडकूनच पडले.:) आता आधीचा बॆकलॊग भरून काढते. एकीकडे 'वहां कौन हैं तेरा...’ ऐकतेय.
SD sahab nayaab the !!! shukriyaa jaakari ke liye!!!
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