Tuesday, October 27, 2009
बिछोह की पीडा़ का टोटल रिकॊल - मदन मोहन का संगीत
अभी रविवार को दोपहर को टाईम्स नाऊ चेनल पर टोटल रिकॊल में संगीत सम्राट मदन मोहन पर यादों के झरोकों से उनके जीवन के अंतरंग क्षणों से और सुर संयोजन के अनेक पहलुओं से हमारा तार्रुफ़ करवाया गया, तो मेरे मन की खिडकियों से दिल का पंछी सुरमयी गगन में उड चला और याद आने लगे उनके असंख्य गीत जिन्होंने हमारे सभी संगीतप्रेमी जीवों के दिलों पर बरसों से राज किया है.
मदन मोहन जी जो विरासत में हमारे लिये खज़ाना छोड गये हैं उनको हम अपने अंतरंग मन के सेफ़ डिपोझिट वाल्ट में रख कर दिवाली दिवाली बाहर निकालते हैं , साफ़ सुफ़ करने के लिये, और फ़िर चमका के वापिस रख देते, हैं, कि कही वक्त की ज़ालिम हवायें उन्हे मलीन ना कर दें. कभी कभार उनके गाने यहां वहां ब्याज में सुन लेते हैं, मूलधन तो सेफ़ ही रखा रहता है.
अभी यह महिना कुछ अलग रहा है मेरे लिये.मेरे बरसों पुराने मित्र अरुण में मुझसे एक बार बातें की.मुझे याद आया वह गाना -
मुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी ,हैरान हूं....
क्योंकि वह किसी अनजान बात से खफ़ा हो कर खुद ही दूर चला गया मेरी ज़िंदगी से . आठ दस साल हो गये. बहाना दिया आध्यात्म का. फ़िर पिछले दिनों एक दिन उसका पत्र आया मेरी बिटिया को, जिसे वह बेहद स्नेह रखता था.साथ ही एक छोटी सी मेमोरी चिप भेजी जिसमें पुराने गीतों का खज़ाना था, जो हम बचपन से एक साथ सुनते आ रहे हैं, और पसंद करते आये थे. बस उसे मुकेश पसंद नहीं था, तो मैं उसके सामने नहीं सुनता था.(आज भी कभी मुकेश का गाना सुनाई पडता है तो मन सहसा जांचने लगता है कि कहीं वह तो नहीं है आसपास).
उसमें लताजी के गाये दो गीत बडे ही शिद्दत से दिल को छू गये, जो काफ़ी समय के बाद सुने मैने-
और ना चाहते हुए भी आंसूओं का सैलाब नैनों के बांध तोड कर बहने को बेकरार हो उठा. मगर पुरुष होकर और साथ ही तथाकथित बुद्धिजीवी और मेच्युरिटी के नकाब के ओढ़ने का फ़ायदा लेकर जज़बातों के बहाव को रोक दिया.
पहला गीत है खुशनुमा - लताजी के अल्हड, मासूम स्वर में...
एक बात पूंछती हूं , ए दिल जवाब देना....
कुछ भी याद नहीं आ रहा था कि यह गीत किस फ़िल्म का है,और इसके संगीतकार का क्या नाम है. स्थाई के सुरों की मेलोडी (शंकर) जयकिशन के धुनों के काफ़ी करीब लगी,अंतरा तो और नज़दीक लगा. मगर इंटरल्युड के वाद्य संयोजन बिल्कुल मदन मोहन जी को नामांकित करते हैं. मेरे एक मित्र श्रीधर कामत को मैने पूछा ,जिन्हे सैकडों पुराने गानों की जन्मकुंडलीयां अमूमन याद रहती हैं. वे भी भूलवश इसे बेटी बेटे का गीत बता गये. मगर बाद में नेट पर पता चला कि ये गीत फ़िल्म सुहागन का था जिसे मदन जी नें ही संगीतबद्ध किया था. आईये सुनिये ये गीत विडियो पर और ऒडियो पर भी,
(ताकि सनद रहे- बकलम यूनुसजी)
दूसरा गीत है, मुझे याद करने वाले, तेरे साथ साथ हूं मैं - जो फ़िल्म रिश्ते नाते के लिये मदनजी नें ही सुरों से संवारा है. ना जाने क्यों , हसरत जी का लिखा हुआ ये गाना संवेदनाओं के सभी बंधन तोड गया.ये गाना भी लताजी नें ही गाया है, और इसमें भी मुझे जयकिशन जी के कहीं कहीं दर्शन होते हैं(शायद आम्रपाली का गीत तुम्हे याद करते करते कुछ इसी जोनर का है)वैसे लताजी के बारे में बार बार क्या कहना? उनके अलावा और कोई ये गीत गा सकेगा - इतनी पीडा़ , उद्वेग और विरह की टीस की इतनी गहरी अभिव्यक्ति के साथ- यह संभव ही नहीं.और हसरत जी के बोल - एक एक शब्दों पर गौर करें और आहें भरने का हिसाब नहीं रख पायेंगे आप.
वैसे पता नहीं क्यों , लगभग इसी सिच्युएशन का एक और गीत हमेशा सुनता आया था और दिल के काफ़ी करीब है भी -
तू जहां जहां चलेगा , मेरा साया साथ होगा.. (जो इसी राग में गूंथा गया है)
मगर यह गीत उसके भी पार चला गया, और कहीं ना कहीं मेरे मित्र के बिछडने के सांकेतिक एहसास को एकदम से ताज़ा कर गया वह पुराना ज़ख्म- जिसे नाज़ों के साथ पाल कर रखा था, जिसपर रोज़ पट्टी बांध कर रखता था, और कभी कभार खपली उखेड भी देता था- ताकि ज़ख्म हरा रहे, और यार के बिछोह की पीडा का एहसास हर पल इसलिये रहे कि ज़ख्म भर जाये तो एक अजीब मानूस कहीं अजनबी हो ना जाये...
गीत आप भी सुनिये...
मुझे याद करने वाले, तेरे साथ साथ हूं मैं...
शायद अरुण के टफ़ एक्स्टिरीयर के खोल के अंदर की कोमल हृदय की भावाभिव्यक्ति हो मेरे लिये, या फ़िर मेरे ही मन के भाव शब्दों में पिघलकर इस गीत में घुस गये हों. रोना तो अब लाज़मी ही है. उस एहसास-ए-दोस्ताना के टोटल रिकॊल के लिये, या उन विरह के भीगे हुए बोलों के साथ सुरों की मेलोडी , या अंतरे में १०० से भी अधिक साज़िंदों के कमाल के स्कोर के पार्श्व में पॆथोस के कोरस का एक खास अंदाज़ (शायद ट्रेमेलो या वाईब्रेटो कहते है इसे- एक निजी भेंट में अमितकुमार ने वाईब्रेटो कहा था और अन्नु कपूर नें ट्रेमेलो- अगर आपमें से कोई रोशनी डाल सके तो..मुझे लगता है इसे फ़ाल्सेटो कहते हैं)
वैसे एक गीत इन्ही शब्दों पर और है मल्लिका पुखराज जी जी की खनकभरी आवाज़ में...
अब आप मुझे माफ़ करेंगे अगरचे आप भी मदन मोहन जी की इस महान स्वर रचना को सुन कर रो पडे हों...
और अगर नहीं रोये.... तो माफ़ी मांग लिजियेगा... मुझसे नहीं, मदन मोहनजी से....
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10 comments:
ना जाने क्यूं
जब् भी रूह या आत्मा से उठती आवाज़ से गाने हमारी दीदी ने गाये हैं
तब तब वे आत्मा को छू कर
आर पार होने में कामयाब हुए हैं -
दिपील भाई
आपको , इतनी शिद्दत से ,
आपके दोस्त की याद आयी ,
ये जानकार अच्छा लगा -
गीत सुनकर ,मेरा मन भी
कहीं खो गया .............
स स्नेह,
-- लावण्या
इतने सुंदर गीत सुनवाने का आभार दिलीप जी ।
आनन्द आ गया, भाई मेरे....आप जानते हो आनन्दित करने की विधा..टू मासेस!! जय हो!!
lata ji ka gaya --मुझे याद करने वाले, तेरे साथ साथ हूं मैं...
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bahut hi dard bhara geet..pahali baar suna.
Madan ji ke sangeetbaddh geeton kee to main bhi fan hun...
-Jo sawaal aap ne post mein kiya hai--wo koi sangeet ka jaankar hi bata sakta hai...
-Post ki prastuti sarthak lagi..nayab geet sunNe ko mile.
पहले सुने नहीं थे ....पर मदन मोहन के भीतर एक अदूत प्रतिभा थी....खास तौर से लता के साथ उन्होंने कई अमर गाने दिए है ...कई बार तो लगता है काश उन्हें ओर फिल्मे मिलती.....
क्या कहूं? बस ऐसे नायाब गित सुनकर आनंदित हुं. आप हमेशा ही कुछ खास गाने चुनते हैं. शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत सुन्दर है आपकी पसंद बहुत देर बाद सुना ये गीत । धन्यवाद्
हमेशा की तरह ,सुर ताल के संसार के साथ आपका आलेख. जिन्दगी को यादों में ला अतीत में छोड़ आते हैं .
शुक्रिया भाऊ !
मदनमोहन के संगीतबद्ध इन दोनों गीतों को सुनाने का आभार.. दूसरा गीत ज्यादा पसंद आया।
आपने बीते हुए दिनों की याद दिला दी। इस संगीतमय यादों की ओर से आभार।
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