Saturday, August 30, 2008
कहीं दूर जब दिन ढल जाये- मुकेश
आनंद
यह फ़िल्म आप हम सभी के मानस में कहीं दूर तक जा बसी है. आपके संवेदनशील मन नें हृषिकेश मुखर्जी के उस फ़िल्म के दोनों चरित्र आनंद और भास्कर के कलेवर के अंदर जा कर उनके हल्के फ़ुल्के उल्हास के क्षणों की या दर्दो ग़म की अनुभूति ज़रूर की होगी.
यह गाना इस शाश्वत सत्य को भोगने की पीडा को अभिव्यक्त करता है, कि जीवन क्षण भंगुर है, एक यात्रा जिसकी शाम तय है.फ़िल्म का नायक आनंद युवावस्था में ही अनचाहे इस यात्रा के अंत में अपने आप को पाता है. उसनें भी सपनोंका एक जहां बसाया था,जिसके बारे में फ़िल्म के आरंभ में वह कहता भी है:
मैने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने, सपने सुरीले सपने..
कुछ हंसते, कुछ ग़म के ये सपने लिये इस खुशमिज़ाज़ इंसान से आप हम जब रूबरू होते है तो उसके Exterior के आनंदित और उल्हास भरे व्यक्तित्व के पीछे छिपी उसके मन की वेदना से हम रूबरू होते है इस गीत के ज़रिये.मौत की भयावह सच्चाई से.
यह गीत योगेश ने लिखा है . (एक और गीत लिखा है इस फ़िल्म का- ज़िंदगी , कैसी है पहेली..) सलिल दा नें शाम के किसी राग में इसकी रचना की है, और इस जीवन के यथार्थ दिखाने वाले नगमे को मुकेश से अलावा और कौन गा सकता है भला?
अब आप इसका विडिओ देखें और मेरे साथ साथ चलें, आनंद के मन में झांकने..उसके सपनों में और ग़म में शामिल होने..
गाने के प्रारम्भ में समुंदर के क्षितिज पर अस्त होते हुए सूरज से आनंद के मन को उद्वेलित होते हुए हम पाते है, मृत्यु की आहट को वह डूबते सूरज में महसूस करता है, और उदास हो जाता है. मगर अगले क्षण ही एक बैलगाडी दिखाई है निर्देशक नें, जिसे देख नायक थोडा मुत़मईन हो जाता है, शांत हो जाता है . अपने दिल को आश्वस्त कर देता है, कि जिंदगी एक सफ़र ही तो है.
कहीं दूर जब दिन ढल जाये , सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये..
मेरे खयालों के आंगन में ,कोई सपनो के दीप जलाये, दीप जलाये......
आप ज़रा यहां बोलों का चयन देखें - सांझ की दुल्हन.. मृत्यु के बारे में आज तक कही गयी एक मात्र उपमा..
नायक भी इस दुल्हन का वरण करने के लिये अपने मन को तैय्यार करता है, और जो सपने उसने पहले देखे थे , उन्हे भुला कर इस दुल्हन द्वारा सपनों के दीप जलाने का स्वागत करता है.
गाने के पहले Interlude में उसके मन का अंतर्द्वंद को ,संत्रास को पत्ते गिरते हुए पेडों के झुरमुट द्वारा और समुंदर के लहरों का मन पर आघात करता हुए विज़्युअल से, साथ ही बांसुरी के हार्मोनी और वायोलीन के समूह के उतार चढाव से हृषी दा और सलिल दा नें बखूबी निर्मित किया है.
फ़िर देखिये पहला अंतरा..
कभी युं हीं जब हुईं बोझल सांसें, भर आयी बैठे बैठे जब युं ही आंखें,
तभी मचल के, प्यार से चलके, छुए कोई मुझे पर नज़र ना आये, नज़र ना आये..
क्या कुछ समझाने की ज़रूरत है? मौत में रोमांस खोजने का यह अंदाज़ , क्या बात है..
दूसरे अंतरे के पहले के interlude में आप सुनेंगे मृत्यु की आहट, Bass Trumpets के खरज़ स्वरों के प्रयोग द्वारा. साथ ही बांसुरी की उत्सवी और विरोधाभास भरी सरगम पूरी Octave में, साथ में विज़्युअल में आनंद के पुराने प्रेम की यादें दर्शाता हुआ सूखे हुए फ़ूल का किताब मे से निकलकर प्रेम की असफ़ल परिणीती का वर्णन करता है, और साथ में नये रिश्तों का मोह भी..
तभी तो वह दूसरे अंतरे में कह उठता है-
कहीं तो ये दिल कभी मिल नही पाते, कहीं पे निकल आये जनमों के नाते,
ठनी थी उल्झन, बैरी अपना मन, अपना ही होके सहे दर्द पराये,दर्द पराये..
प्रेमिका के बिछडने की पीडा़ , साथ में नये रिश्तों के अपनत्व का अहसास, दोनॊ भाव इस अंतरे में...
फ़िर तीसरे अंतरे में-
दिल जाने मेरे सारे भेद ये गहरे, हो गये वैसे मेरे सपने सुनहरे,
ये मेरे सपने, यही तो है अपने,मुझसे जुदा ना होंगे इनके ये साये.. कहीं दूर जब दिन ढल जाये.....
क्या आप बता सकेंगे यहां रचयिता तिकडी के मन के भाव क्या रहे होंगे? यह आप के लिये. और साथ में मुखडे और पहले दोनों अंतरों के कुछ अलग भाव, अर्थ अगर हैं तो आईये, सिरजने दिजिये आप के दिल से..
हां, इस गीत को पिछले एक हफ़्ते से भोग रहा हूं , सुर और अर्थ मानों दिल में गहरे पैठ गये है. इसी गाने को गाकर भी पीडा हल्की कर रहा हूं. आप भी सुनना चाहें तो यहां प्रेषित है.. सुनने का नम्रता से अनुरोध. वैसे इस बार पार्श्वसंगीत के साथ.
मैं, आप, संगीत और मुकेश !! दिलीप के दिल की आवाज़ से....
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