Tuesday, November 23, 2010

गीता दत्त की मासूमियत भरी अदाकारी


आज नशीली , जादुभारी आवाज़ की मलिक गीता दत्त का जन्म दिन है. अगर वे आज़ ज़िंदा होतीं, तो ८० वर्ष की होती!!

गेताजी के पुण्य तिथी पर कुछ खास लिखना चाहता था, मगर अब वे सुख भरे दिन बीते रे भैय्या... वाली स्थितियों के चलते हुए नही लिख पाया.गुरुदत्त जीकी पुण्य तिथी पर भी पिछले महिने कुछ नही लिख पाया.आज भी कुछ खास नही लिख पाउंगा.

याद आया कहीं पढा हुआ कि गुरुदत्त जी नें गीता रॊय से शादी के बाद अपनी हर फ़िल्म में गाने ज़रूर गवाये, जो काफ़ी मक़्बूल भी. मगर उन्होनें मात्र गीताजी के लिये बतौर हिरोईन एक फ़िल्म भी लॊंच की थी-’गौरी’, जो बंगला भाषा में बनने वाली थी और भारतीय फ़िमों के इतिहास में सबसे पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म थी.

अगर वह फ़िल्म बनती तो पता नहीं हम गीता दत्त के रूप में एक अभिनेत्री से भी रूबरू हो जाते. फ़िर शायद सर्वकालीन कालजयी का़गज़ के फ़ूल बन पाती , जो लगभग उसी विषय वस्तु पर थी?

गुरुदत्त एक अफ़लातून , जिनीयस क्रियेटर या सर्जक थे, और अपने दिल की आवाज़ या सनक की वजह से फ़िल्म का विषय चुनते थे, और बिना ज़्यादह सोचे समझे फ़िल्म बनाना शुरु कर देते थे. उनके मित्र और लगभग हर फ़िल्म के लेखक जनाब अब्रार अल्वी नें उन्हे खूब समझाने की कोशिश की, कि बंगाली फ़िल्म तीन चार लाख में बनती थी क्योंकि उतना ही उसका रिटर्न होता था.जबकि हिंदी फ़िल्मों पर उन दिनों भी गुरुदत्त जी चालीस पचास लाख खर्च कर देते थे.

चलिये , आज उनके जिनीयस कलाकृतियों को World Cinema में पाठ्य पुस्तकों का दर्ज़ा मिलता है, मगर मैं तो गीता जी की मादक मगर शालीन आवाज़ के साथ उनकी सादगी भरी आंखों के भाव प्रवेणता का भी कायल था, और अवश्य गुरुदत्त जी के सधे हुए निर्देशन में हम एक बढिया अभिनेत्री को अपने बीच पाते.

चलिये, आपको गीताजी के एक बहुत ही बढियां गीत का कवर वर्शन सुनाते हैं जिसे हमारे ब्लोग दुनिया की हरफ़नमौला कलाकार और कवियत्री सुश्री अल्पना वर्मा नें गाया है.

जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैने कही, बात कुछ बन ही गयी....


अल्पनाजी वैसे हर गायिका के गानेंगाती हैं, मगर मुझे उनकी आवाज़ में गीता दत्त के मासूमियत भरे स्वर नज़दीक प्रतीत होतें हैं.

वैसे चलते चलते बता दूं, कि जिस समय गौरी फ़िल्म के निर्माण की बात चल रही थी, उसके पहले गुरुदत्त जी नें Women in White’ की कथावस्तु पर राज़ फ़िल्म का निर्माण शुरु किया था जिसमें वहिदा और सुनील दत्त थे. इस फ़िल्म के १०-१२ रीलें भी बन गयी थे. मगर वह फ़िल्म भी डब्बा बंद हो गयी...

पता है उस फ़िल्म में पहली बार संगीत कौन दे रहे थे?

जी हां.. राहुल देव बर्मन!!!! (What a rare combination! RD & Gurudutt!!!!)

Sunday, November 14, 2010

इब्तदा ए इश्क में हम सारी रात जागे-



अभी अभी एक मराठी नाटक देख कर आया हूं, जिसमें एक बडा ही पावरफ़ुल डायलोग था:

If you want to close chapter, you have to hate the thing you LOVE most.

बात सीधी दिल में उतर गयी,और अब दिलीप के दिल में से दिलीप के दिल से
के फ़लक पर....

आज से दो चार साल पहले इस बात का इल्म हो गया था कि ज़िंदगी में अगर ऊपर जाना हो तो किसी की सर पर तो पांव रखना पडेगा. लेकिन मैं किसी की बडी लकीर को छोटी करने का गुनाह कर नही पाया तो अपनी ही दूसरी लकीर छोटी कर ली.

मैं बात कर रहा हूं अपने पहले पहले प्यार की... याने संगीत और गायन के अपने शौक की....

इसिलिये दो तीन साल पहले मैने भी सोच लिया कि Now its time to close chapter of Music. सो एक अंतिम प्रोग्राम कर मैने अपने एमेच्युअर शौक की इतिश्री कर ली.

और फ़िर झौंक दिया अपने आप को अपने प्रोफ़ेशन के प्यार में .( I genuinely LOVE my profession-By the way).वैसे भी एजिप्ट में प्रोजेक्ट शुरु होने से आधे से भी ज़्यादह महिना वहां कटता है.

But I could not hate that thing I LOVED most. MUSIC.

इन्ही दिनों जब पुराने घाव एक दिन हरे हो गये, और मै लिमका से अपने ग़म ग़लत कर रहा था , तो मेरे अंतर्मन मित्र ने बोला... इब्तदा ए इश्क में रोता है क्या...आगे आगे देख अब होता है क्या...

सोच कर एक दिन अपनी वाली पर आ गया.. याने एक प्रोग्राम को हां कह दिया.

अब सिर मुंडवाते ही ओले पडे. कार्यक्रम के दो दिन पहले तक तो इजिप्ट में ही साईट पर दंड बैठक लगाना पड रहे थे, तो रियाज़ का क्या होता?(यकीन मानिये ...बिन रियाज़ सब सून- गुलाम अली साहब के शब्द याद आ गये)

तभी सोचा सुएज़ से कैरो आने जाने के एक एक घंटे में ही रियाज़ की जायी. ड्राईवर भी टेंशन में आ गया, आज साहब नें उसके अरबी गाने क्यूं बंद करवा दिये, और खुद चालू हो गये ... ये इंडियन भी छः महिने चुप रहते हैं और छः महिने गाते रहते होंगे!!!

वैसे प्रोग्राम की शाम के एक दिन पहले तक हमें खुटका था,कि अल्लाह जाने क्या होगा आगे, मौला जाने क्या होगा आगे....

kuwait Airport पर Transit में दो भारतीयों नें जो नवरतन तेल चुपड रखा था कि नाक बहने लगी और गले में खराश आ गयी. मैने तो पूछ ही लिया उनसे, कि भाईसाहब क्या यहां ये तेल मुफ़्त में मिलता है
?

तो भाईयों और बहनों, दिल थाम के बैठें... हम आ रहे हैं, इतने सालों बाद स्टेज पर, और आपके पेशे खिदमत है ये सुरीला दोगाना फ़िल्म हरियाली और रास्ता का ---

इब्तदा ए इश्क में हम सारी रात जागे,
अल्लाह जाने क्या होगा आगे, मौला जाने क्या होगा आगे...


आगे क्या हुआ अब आप खुद ही चेक कर लिजिये!!!!



मुकेशजी की जगह अपुन, और लताजी की जगह अदिती दिक्षित.१६ साल की इस लडकी की आवाज़ में सुरीलापन , सोज़, और लोच है. शायद इसिलिये ज़ी टीव्ही के लिये सा रे गा मा प में सबसे कम उम्र की प्रतिभागी रही और जैसा कि मुझे बताया है पहले २० में आ गयी थी. बाद में १८ में नही आ पायी दुर्भाग्य से.

अभी काफ़ी इम्प्रूव्हमेंट करना है, खास कर आवाज़ के थ्रो और पॊवर में... चलो अगली बार सही...

और भी बहूत बहूऊऊऊत गाने गाये जी भर के, (सारी रात तो नहीं जागे!!दूसरे भी गायक गायिका थे जनाब.)

सोलो में - मुकेशजी का - ओ मेहबूबा, तेरे दिल के पास ही है मेरी मंज़िले मकसूद....
हेमंत दा का - ना तुम हमें जानो, ना हम तुम्हे जानें..
और रफ़ी जी का - बदन पे सितारे लपेटे हुए...
और ड्युएट में - ये गीत,
- झूमता मौसम मस्त महिना..और ओ मेरी मैना...( मन्ना दा )
- दम भर जो इधर मूंह फ़ेरे ( मुकेशजी)
- आज कल तेरे मेरे प्यार के चर्चे (रफ़ी जी)

और अंत में एक चतुर नार ( कई हज़ारों बार.. इसक चर्चा अगली बार)

Wednesday, November 10, 2010

हम जब होंगे साठ साल के., और तुम पचपन की.... कहां है दोनो?




सबसे पहले आप सभी मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें,

आज सुबह एक मित्र के बडे भाई का फोन आया, कि क्यों तुम्हारी दैनिक भास्कर में पहचान है?

मैंने पूछा काहे के लिये...

तो गुस्से में बोले कि अख़बार में लिखा है, ६० साल के वृद्ध का एक्सिडेन्ट...क्या साठ साल में कोई वृद्ध हो जाता है भला?

वैसे , बात उन्होने ठीक ही कही है. वे कहीं से भी साठ के नही लगते. अपने परिचितों को भी याद किया जो साठ के आसपास होंगे, तो वृद्ध जैसी कोई छबि नही बनती? खैर अखबार के ये क्या जानेंगे , मगर मैं भी ये सोच कर सिहर उठा कि आज से कुछ सालों बाद मुझे भी लोग वृद्ध कहेंगे ?

पत्नी नें कहा कि आजकल स्वास्थ्य की अवेयरनेस काफ़ी बढ गयी है, और ज़्यादहतर लोग फ़िट ही हैं आजकल...

संय़ोग से अभी रात को फ़िल्म कल, आज और कल देख रहा था, तो सामने अचानक ये गाना आ गया..

हम जब होंगे साठ साल के, और तुम होंगी पचपन की,
बोलो प्रीत निभाओगी ना, तब भी अपने बचपन की......

गाने में भी यही कुछ था... बुढापे में साठ साल में लकडी के सहारे चलना, आवाज़ का कंपकपाना, आंख का धूंधला हो जाना..,. आदि.

फ़िर ये भी सोचा कि एक तसवीर ये भी है, कि चालीस पचास में ही मधुमेह, रक्त चाप, हृदयरोग , आदि से हमारी पीढी रू ब रू हो रही है, और संख्या में इज़ाफ़ा होरहा है,जब कि पुराने चावल देसी घी की बघार में फ़ूले जा रहे हैं.

खैर, अब बात यह भी है, कि आज से तीस चालीस साल पहले गाये गये इस गाने की जोडी नें रील लाईफ़ के बाहर रीयल लाईफ़ में भी शादी कर ली थी, और आज रणधीर कपूर और बबिता कपूर लगभग साठ और पचपन के ही होंगे.


तो आज क्या सीन है बॊस?



पता नही कौन कहां है,मगर इतना ज़रूर है, की करीश्मा और करीना के माता पिता की यह जोडी अब साथ साथ नही है!!

है ना अजब प्रेम की गजब कहानी......




Wednesday, October 13, 2010

बेचारा झुमरू दिल - किशोर दा की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजली..


आज हरफ़नमौला कलाकार किशोर कुमार की पुण्यतिथि पर मेरे दिल की गहराई से किशोर दा को विनम्र श्रद्धांजली ...

पिछले साल किशोर दा के कॊलेज इंदौर क्रिश्चियन कॊलेज में विडियो शूट करने का प्रयास किया था,जिससे बहुत ही भिशूण स्वानंद प्राप्त हुआ था. आपमें से कई वहां गये भी होंगे.मैने उसे इस ब्लोग पर भी पोस्ट किया था.

मुझे गुजिश्ता दिनों में कई मित्रों ने गुज़ारिश की कि उसे फ़िर दिखाया जाये. आपमें से कईयों नें तो देखा भी होगा.

इसलिये आधे दायें जाओ, आधे बांयें जाओ, और बाकी मेरे साथ चलो किशोर दा के किशोर युवा दिनों की यादें ताज़ा कर लें...दिलीप के दिल से....



जीवन में कई गानें गाये अभी तक..

रफ़ी साहाब, मन्ना दा , की गले की हरकतें और मुरकियां, मुकेशजी और तलत साहब की भावनाऒं और एहसासात से भरी दर्द भरे आर्त स्वर, हेमंत दा की धीर गंभीर आवाज़ और सबसे एल्हैदा किशोर दा की खिलंदड्पूर्ण लाईव गाना.... सभी गाने की कोशिश में लगा रहा. गायकों के अमृत सुरों की च्यवनप्राश खा कर एक बात साफ़ समझ में आ गयी.

किशोर दा जीवंत रियलिटी शो के मानींद गाते थे, मानों स्टुडियो भी स्टेज ही हो.उनके अंदर का अभिनेता गाना गाते हुए उनके गले में उतर जाता था.वे गायक नहीं थे, एक सांचे में ढली डेफ़िनेशन की बात करें तो.वे गाते हुए भी अभिनय करते थे, और अभिनय भी लय और सप्त सुरों जैसे सप्त रसों की छटा दिखाते हुए.

किशोर दा की थाली में आपको हर प्रकार के व्यंजन मिलेंगे. हास्य की मीठी रबडी, व्यंग्य की रसभरी जलेबी, दर्द भरी तिखी मिर्च से भरपूर सब्ज़ी, रोमांटिक कढी़... (य़े मैं नही, अमितकुमार नें एक बार बताया था!!)



मगर पता नहीं ये मूडी कलाकार ना जाने किस आशंका से हर दम किसी गिलहरी की तरह सहमें, डरे से रहते थे.सन १९८२ में अमेरिका में डिज़्नी लेंड में मेरे माता पिता नें किशोर दा को भी लाईन में लगे देखा तो पिताजी नें पास जाकर उनके पीठ पर हलके से धौल जमाई, जैसे कि वे कॊलेज दिनों में लगाया करते थे. तो किशोर दा एकदम घबरा के गंभीरता से कहने लगे कि भई मैं किशोर नहीं हूं.मुझे माफ़ करो. तो पिताजी नें उन्हे कॊलेज के दिनों की याद दिलाई और कुछ पुराने दिन शेयर किये.हालांकि पिताजी का सीधा संपर्क नहीं था किशोर दा से उन दिनों, मगर सांस्कृतिक कार्यक्रम की वजह से एक ही स्टेज शेयर ज़रूर किया था.अनूप कुमार भी सांस्कृतिक सचिव थे वहीं. तब कहीं जाकर किशोर दा कुछ संयत हुए और फ़िर मूड में आकर उन दिनों का नोस्टाजिया शेयर किया.केंटीन वाले के उधार पांच रुपय्या बारह आना भी!!!

किशोर दा मगर हमेशा दिल से झुमरू ही रहे...कई किस्से कई संस्मरण,क्या लिखें, बस आप और गीत यहां सुनें...

उनका सबसे पहला गीत.. फ़िल्म ज़िद्दी से, सन १९४८...

Monday, September 13, 2010

यही वो जगह है, यहीं पर कभी हमने आपके सामने गाया था....



दोस्तों, कभी कभी हम अपने जीवन के ऐसे दौर से गुज़रते हैं, जब हमें खुदा हर तरफ़ से खुशियां बरसाता है, और आपका दिल बल्ले बल्ले उछल रहा होता है.

मगर , यूंही चलते चलते यादों के पुराने खंडहरों से हम गुज़रने लगते हैं, और खुशी और ग़म के समानांतर रास्ते पर जब हमारे गाडी़ हिचकोले खाती है,तो मीठी सी चुभन हो या तीखी सी ख़लिश हो, आप उसमें रमने लगते हैं, और दीदाए तर होते हैं.

पिछले दिनों, किशोर दा की जन्मदिन की खुशिया मनाईं कैरो (ईजिप्ट)में, जैसे कि रफ़ी साहब के पुण्यतिथी पर उन्हे याद किया था. रफ़ी साहब के बांद्रा स्थित घर के बरामदे में रखी हुई उनकी फ़िएट याद आये, जिसमें चाभी भी लटक रही है उस दिन से, या किशोर दा के बंगले पर गेट सेही उन्हे पेड पर चढे हुए गाना गाते हुए देखा और सुना....सभी यादें दिल में घर किये हुए है.

याद पडता है कि किशोर दा गाना गा रहे थे आशाजी का, जो दूरी के वजह से ठीक से सुनाई नही पड रहा था.. गाना था.........

यही वो जगह है ,यही वो फ़िज़ाएं, यहीं पर कभी आप हमसे मिले थे....

पता नहीं क्यों, जिस खूबसूरती से आशा जी नें गाया था वो गाना, किशोर दा किसी और मूड में दर्द के काढे़ में अपने स्वरों को उकाल उकाल कर क्या समा बना रहे थे.चौकिदार नें अंदर नहीं जाने दिया, इसका ग़म ना करते हम तो बडे से जायेंट व्हील पर बैठ कर स्वरों के उस उतार चढाव में खो गये.फ़िर अचानक बीच में गाना रोक कर किशोर दा चिल्लाकर किसे को आवाज़ देने लगे नारायण,नारायण... तो हम खिसक लिये.

तो अभे जब आशाजी की जन्मदिन की खुशियां मनाईं, तो उस दिन ये गाना रिकोर्ड कर लिया , कुछ ऐसे ही अंदाज़ में. संय़ोग ये रहा, कि इन दिनों में अल्पना जी से बातचित हुई तो उन्होने ये बताया कि अभिजीत नें भी इसे गाया है. खैर, आप भी सुनिये.

आशा जी सुनेंगी तो नाराज़ होंगी ही. पिछली नाराज़गी भारी पडी़ थी मुझे, जब इंदौर में उन्होने एक कार्यक्रम दिया था, और मैने, अखबार नईदुनिया में उसकी समीक्षा में उनके आलोचना के थी, क्योंकि उन्होने अधिकांश गीत नये लिये थे, और मेरे जैसे अनेक दीवानों को निराश किया था. इसलिये दूसरे दिन जाने से पहले उन्होनें नाराज़गी से लताडा था मुझे.(सर आंखों पर)


चलिये अब सुनिये, वही गीत और अगली बार समय रहा तो उस बात का जिक्र करूंगा, कि जब वे इंदौर आयीं थीं लताजी के नाम का पुरस्कार ग्रहण करने, और गाने का प्रोग्राम देनें से इंकार कर दिया था.और फ़िर इस खा़कसार को स्टेज पर आपातस्थिती में उतरना पडा था. आप सोच सकते हैं, कि जो पब्लिक उन्हे सुनने आये थी उसे मुझ जैसे नाचीज़ को सुनना पडा होगा तो क्या हुआ होगा!!!!(रब की मर्ज़ी)

यही वो जगह है, जहां कभी हमने आपके सामने गाया था....

Sunday, August 29, 2010

जाने कहां गये वो दिन.....मुकेशजी की पुण्यतिथी




अभी विविध भारती सुन रहा हूं और एक बेहद हृदयस्पर्शी गीत नश्र हो रहा है:

तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नही...

मन में कई सवालत उठ रहे हैं पिछले कई दिनों से, लगभग एक महिने से जब से इजिप्ट में प्रोजेक्ट शुरु हुआ है, तो भौतिक रूप से,मानसिक रूप से तसल्लीपूर्ण ज़िंदगी बसर हो रही है. जेहनी तौर पर मेरे अंदर का आर्किटेक्ट/इंजिनीयर और साथ ही एंटरप्रेन्युअर मालिक के रहमों करम से खुश है, मगर रूहानी स्तर पर मेरे अंदर का कलाकार एक दम घुटने वाली अवस्था से गुज़र रहा है.

दर असल पिछले करीब तीन चार सालों से स्टेज पर फ़ॊर्मल कार्यक्रम नही देने के कसक दिल में कई दिनों से चुभ रही है.हां, इधर उधर घर की या दोस्तों की शादी या मंगल कार्य में अपनी उपस्थिति दर्ज़ ज़रूर कराई,मगर मन अब तरस सा गया है. हर साल एक गायक, रफ़ी जी, मुकेशजी, हेमंत दा, , मन्ना दा आदि.

अब आप कहेंगे,क्यों अपने ग़म गलत कर रहे हो. तो सच कहूं,जब से ब्लोगिंग शुरु की है, कुछ सुकून भरे पल यहां बिता लेता हूं, और्र आप के सामने अपनत्व के भावना प्रबल हो जाने के कारण इतना लिखने की ज़ुर्रत कर बैठा.

अब देखिये ना. गीता दत्त जी का जन्म दिन गया पिछले महिने.मन में कुछ भाव उमडे,और उनके जीवन के कुछ यादगार लम्हों को यहां बाटना चाहा भी,मगर फ़िर समय का तकाज़ा.

और जब मेरे दिल के अज़ीज़ कलाकार रफ़ी जी की पुण्यतिथी थी,तो अपने सुएज़ केनाल पर बने अपने गेस्ट हाऊस में बैठ कर कुछ भारतीय , कुछ मिश्री साथियोंके साथ कुछ गीत गुनगुनाये भी.ब्लोग नहीं लिख सका.

फ़िर किशोरदा के जन्म दिन पर भी कैरो के एक होटल में जब गायक नें इजिप्शियन गाने के बाद मुझे देखपर आवारा हूं गाया,तो मैं भी भावाभिभूत हो गया कि ये गीत जो हम भारतीय जन मानस की रूहों तक अंदर घुस गया है,जिसने रशिया में और युरोप में भी हज़ारों दीवाने बनाये,वही गीत यहां भी अपने जलवे बिखेर रहा था.

इसलिये आज जब मैं यहां बैठा इंदौर में मुकेशजी को याद कर रहा हूं,तो इच्छा हुई तो ज़रूर थी कि कहीं कोई कार्यक्रम दिया भी जाय.मगर संभव नही हो सका, क्योंकि उसके लिये , रिहल्सल केलिये भी तो समय चाहिये. अपनी ही बनाई हुई चांदी की चारदिवारी में कैद हो गया हूं, क्योंकि मैने ही ये रास्ता चुना है.समय और गुणवता के कार्यक्रम में लगने वाले लगन और मेहनत आज संभव ही नही.

चार दिन पहले ही जगजीत सिंग जी के कार्यक्रम से लौटते हुए अनुज मित्र संजय भाई पटेल नें शिकायत करते हुए कहा कि अब एक दिन बहुत झगडा करना है.

बस,फ़िर रात को देर तलक लेप्टॊप पर मुकेश जी को सुनता रहा, आनन फ़ानन में एक उनका एक गीत मुकम्मल किया जो इजिप्ट में एक रात रिकोर्ड किया था. आशा है, मेरे दिल के इन ज़ख्मों को आप मेहसूस करेंगे, और प्रेरित करेंगे कि मैं ब्लोगिंग में फ़िर से सक्रिय होऊं.इंशा अल्लाह!!


कुछ मुकेशजी पर भी.

सात्विक चरित के मालिक मुकेशजी की सुनहरी आवाज़ में जादू था उनका मन से , रूह से पाक होना. मुझे याद है, जब मैं उनके एक गाने की रिहल्सल में मौजूद था- कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है, तो वे सुबह से ही स्टुडियो में आ गये थे, और रिहल्सल कर रहे थे.लता भी आने वाली थी, मगर उन्हे जानबूझ कर दोपहर बाद बुलाया था.मुकेशजी चाय पर चाय पीकर आपने गले की खराश को ठीक रख रहे थे, और उन्होनें तहे दिल से स्वीकार भी किया कि उनकी रेंज, गायकी , समझ, और पकड लताजी के सामने कुछ भी नहीं.



तभी जब दोपहर के बाद जब लताजी आयें, तो बस दो या तीन रिहल्सल्स के बाद लताजी टेक के लिये तैय्यार हो गयी थी.दुर्भाग्य से तब तक हम रुक नहीं पाये थे.






मगर जो भी लोग यह कहते हैं की मुकेशजी के ऊंचे पाये के गायक नही थे,तो मैं उन्हे यह अर्ज़ करना चाहूंगा ,कि वे एक सरल और आम आदमी के गायक थे, और इसलिये वे क्लिष्ट गायकी से बचते थे.अपने अनुभव से कह रहा हूं. श्रोता बिरादरी में सन २००१ में मुकेश जी पर दिये एक अनौपचारिक कार्यक्रम में मैने देखा कि जब मैने मेरा जूता है जापानी का स्थाई शुरु किया तो हॊल में उपस्थित पुरुषवर्ग, और तो और महिलावर्ग भी दबे ज़ुबान में गाना गुनगुनाने लगा. तो फ़िर मैने अंतरे पर सभी को साथ में गाने को क्या आमंत्रित किया तो मानो हॊल में सुरों का सैलाब सा आ गया,और गै़रते मेहफ़िल के मारे श्रोताओं नें खुल कर गाना शुरु किया - निकल पडे हैं खुल्ली सडक पर, अपना सीना ताने....






आज इसीलिये मुकेश जी हर उस इंसां के दिल में रूह में समा गये हैं, कि हर दर्द भरे मंज़र में हम मुकेशजी के गाये किसी गीत को गा कर उनके पथोस की इंटेसिटी को मेहसूस करके अपने अपने ग़म गलत किया कर लेते हैं.

तो आज सुनियेगा - कोई जब तुम्हारा हृदय तोड दे....


Friday, July 16, 2010

वो भूली दास्तां....लो फ़िर याद गये मदन मोहन....


फ़िर वही शाम, वही गम, वही तनहाई है.....
दिल को समझाने मदन मोहन की याद चली आयी है...............

१४ जुलाई १९७५ को ये गुणी , वर्सेटाईल और माधुर्य से भरी धुनों का शहेन्शाह हमसे बिछड गया, और तब से उसके करोडों चाहने वाले जब भी यह गीत सुनते है, या इस जैसे कई अनेक, तो हम, आप और वे उनकी याद में आंख से एक कतरा तो ज़रूर बहाते हैं.

मैं अपने बचपन में मदन जी के एक गाने से रूबरू हुआ जैसे कि मां के कोख से ही, जब मेरी मां नैना बरसे रिमझिम रिमझिम सुनती थी, जो उसका हिंदी का बेहद पसंदीदा गीत था. चूंकि वे इतना अच्छा नहीं गाती थी, वे मेरे पिताजी से हमेशा यह गाना सुनती चली आ रही थी, बिलकुल पुरुष स्वर में!!!अपने अंतिम दिनों में भी!!इसलिये मैं भी लताजी के ही गाने गा गाकर बडा हुआ.

परसों यहां मदनजी को श्रद्धांजली देने के लिये एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें गायिका सपना नें लता जी के गाये हुए एक से एक नगमें सुनाये. मन फ़िर रम गया इन नगमों में और यादें मुझे पीछे ले गयी कुछ ८-१० सालों पहले, जब मुंबई में लताजी नें बहुत दिनों बाद एक कार्यक्रम दिया था और उसमें से कई गानें मदनजी के संगीतबद्ध किये हुए थे!!

तब एक गाना बडा ही दिल को छू गया , जो पहले भी सुनता चला आ रहा था, मगर पता नहीं क्यूं, उस दिन वह कलेजे को चीर कर रूह तक घुस गया-

वो भूली दास्तां... , लो फ़िर याद आ गयी....

अगर आपको उस दिन गाया हुआ यह गीत सुनना हो तो यूट्युब में जाकर सुन सकते हैं. मैं उसे यहां लोड नहीं कर सकूंगा , क्योंकि एम्बेड कोड नही है.

http://www.youtube.com/watch?v=a8L01-6441A&feature=related

मगर यकिन मानिये, इस गीत को खुद गानें की भी इतनी ख्वाहिश थी कि चुपके चुपके बाथरूम में गा लेता था. दोस्तों की मेहफ़िल में ये गाना गाने के कोशिश की ज़रूर , मगर सर्वकालिक महान लताजी के गाये गाने का जिगर नहीं ला पाया.

आज ज़्यादा भूमिका ना बांधते हुए एक इल्तज़ा है आप सभी अंतरंग मित्रों से, स्वर साथियों से,कि आज मेरी ये दिली ख्वाईश पूरी कर ही लेता हूं, और ये गाना रिकोर्ड करने की धृष्टता कर डालता हूं.गाने के मूड़ और जोनर के हिसाब से पुरुष स्वर में से खास गायक की तरह से गाने की कोशिश की है ( आप पहचान गये ना?).

अब जो भी गलत गाऊं, सज़ा मंज़ूर....पेशे खिदमत है.....



वस्तुतः , मैं एक एमेच्युअर गायक हूं , बिल्कुल खालिस शौकिया कलाकार.उसपर भी सिर्फ़ स्टेज पर गाता चला आया हूं.

अब जब रिकोर्डिंग करने लगा, घर में, कराओके ट्रॆक्स पर , तो रोज़ रोज़ नये प्रयोग नये आयाम खुलते जा रहे हैं, और एक ज़बर्दस्त चेलेंज सा लग रहा है.

जब आप स्टेज पर होते हैं, तो आपको एक अतिरिक्त उर्जा की, थ्रो की दरकार रहती है, और साथ में देह भाषा का भी सामंजस्य रखना पडता है, खासकर आजकर के दृष्य़ श्रव्य मिडिया के ज़माने में.फ़िर थोडा बहुत सुर इधर उधर हुआ तो भी चुपके से धक जाता है.अमित कुमार और कुछ हद तक नितिन मुकेशभी मुझसे ये कबूल कर चुके हैं,कि वे स्वर का इतना खयाल नहीं रख पाते, या ज़रूरत नहीं समझते.वहीं लताजी तो स्वर के लिये एक वायलीन का (कमल भाई) या हारमोनीयम(अनिल मोहिले) का साथ लेती हैं, और साथ में गाये हुए सुर को सुनने के लिये मोनिटर को एडजस्ट करने पर विशेष ध्यान देतीं हैं, जब भी वें स्टेज पर प्रोग्राम देतीं हैं.दरसल ये वो लोग हैं जिन्होने रिकोर्डिंग पर महारत हासिल कर ली है,जिसमें स्वर का खास ध्यान देने की पहली शर्त होती थी. क्योंकि गायक या वादक की ज़रा सी भी चूक से पूरी रिकोर्डिंग फ़िर से करनी पडती थी.आजकल इतने सारे सॊफ़्टवेयर आ गये हैं, कि मात्र कट पेस्ट से हे नहीं, सुर / पिच या लय/टेम्पो को भी कम ज़्यादा किया जा सकता है.टी सिरीज़ के स्टुडियो में हमारे एक गाने की रिकोर्डिंग के समय मैं ये देख कर या सुनकर दंग रह ग्या था कि अनुराधा पौडवाल बहुत बेसुरा गा कर चली गयी थी, और वहां के रिकोर्डिस्ट टेकनिशीयन्स बाद में स्वरों को साऊंड फ़ोर्ज पर मेनेज करते पाये गये!!

इसिलिये लताजी, मन्ना दा, रफ़ी साहब, मुकेश जी ,हेमंत दा, तलत साहब,या फ़िर भूपेन हज़ारिका,सुरेश वाडकर और बालासुब्रमन्यम... इनको जब भी अपनी मांद से निकल कर स्टेज पर गाते मैने स्वयं देखा तो उनकी लगन, डेडिकेशन और कमिटमेंट का तो मैं कायल ही हो गया.

एक छोटा सा किस्सा याद आया. सन १९८२/८३ के आसपास जब लता जी नें इंदौर में कार्यक्रम देनें का मन बनाया, तब कार्यक्रम के दिन सुबह स्टेडियम में जाकर ध्वनि व्यवस्था को चेक करने की इच्छा ज़ाहिर की. दुर्भाग्य से,शहर के एक पूर्व मंत्री नें किसी पूर्वाग्रह/विशिष्ट कारण के वजह से उनके कार्यक्रम के बहिष्कार के घोषणा कर डाली! जिस होटल में वे रुकी थी , इसके सामने काले झंडे दिखाने और टकराव की स्थिति बनाने का भी दुस्साहस कर लिया.

इसलिये आयोजकों के प्रमुख नईदुनिया दैनिक के प्रमुख संपादक श्री अभय छजलानी जे ने उनसे करबद्ध प्रार्थना की कि ऐसे माहौल में उनका जान मुनासिब नही होगा, और वे कार्यक्रम से कुछ पहले ही जाकर ध्वनि व्यवस्था चेक कर लें.

मगर वे नहीं मानी, और भारी बंदोबस्त में वे वहां गयीं. वहां उन्होने पोडियम के नीचे अपने साथ लाया हुआ छोटा सा मॊनिटर रखा, और आउटपुट को चेक किया. साथ ही इतने बडे क्रिकेट स्टेडियम में कडी धूप में दूर दूर तक लगे भोंगे ( यही तो कहा जाता था!!) भी चेक किये. दो भोंगों में गलती थी और बदलने वाले बात पर तो ध्वनि व्यवस्थापक नें कहा कि ये भोंगे तो इंदिरा गांधे तक को लगाये गये थे, तो वे्पहले तो एकदम ना्राज़ हो गयी,मगर बाद में खिलखिला कर हंस पडी,और बाकी हम सभी भी हंस पडे!!बाद में वें बोली, मुझसे एक आम आदमी की कुछ अपेक्षायें है, अच्छे गाने की, और खराब ध्वनि व्यवस्था के कारण उनके विस्श्वास ,आनंद और मेरी मेहनत पर पानी फ़िर जाता.

उस दिन के अनुभव नें मुझे बहुत कुछ सिखाया, अपने खुद के कार्यक्रम के लिये और बाद में बडे कलाकारों के लिये जिनका मेरा वास्ता बाद में तब पडा जब मैं लता मंगेशकर जी के नाम पर स्थापित पुरस्कार के आयोजन समिति का एक सदस्य म.प्र. सरकार द्वारा नामजद किया गया.तब से हर साल इस खा़कसार को यह फ़क्र हासिल हुआ कि हर किसी बडे कलाकार या संगीतकार के इंदौर आने से लेकर स्टेज के कार्यक्रम की ध्वनि व्यवस्था तक की ज़िम्मेदारी तकनीकी तौर पर सम्हाली.(एक कार्यक्रम में महेन्द्र कपूर के साथ आये मुख्य तबला वादक सुरेंद्र पा जी ने मुझे माईक चेक करते हुए गुनगुनाते हुए सुना तो वे महेंद्र कपूर से बोले कि यहां इंदौर के तो माईकवाले भी बहुत सुरीले हैं तो उन्होने हंसते हुए उनकी गलत फ़हमी दूर की, कि नहीं ये तो आयोजक ही है)

इसलिये जब मैं भी अपने स्टेज की मांद से निकल कर रिकोर्डिंग की मांद में घुसा हूं तो मुझे भी नानी याद आ रही है, जिसका जिक्र अगली बार......

एक और प्लेयर...

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Tuesday, July 6, 2010

आओ ट्विस्ट करें- पंचम दा की विस्फ़ोटक धुनों पर....श्रद्धांजली

RDX of Rahul Dev Burman


आज तो बस मैने ठान ही ली है, कि आज एक पोस्ट ज़रूर हो जाये.

दर असल इतने दिनों में व्यस्तता का तो आलम था ही, मगर लेपटॊप खराब हो जाना, फ़िर इजिप्ट के दो तीन चक्कर और काम की अधिकता, बस ब्लोग से दूर ही रहा.

वैसे बात ये भी है कि मैं कोई लेखक तो हूं नहीं, जो स्वयंस्फ़ूर्त ही कुछ लिख दूं. दिल में जो मेहसूस करता हूं वही कलम पर या कीबोर्ड पर उतर जाता है, और दिलीप के दिल से पोस्ट का सृजन हो जाता है.

मगर इस बार दिल तो किवाडों के अंदर ही बंद रहा , और दिमाग के खेल चलते रहे. मसलन इजिप्ट में कंपनी खोलना, प्रोजेक्ट का श्रीगणेश करना आदि आदि.

तो आज सोचा कि आज तो बस लिख ही दें, जो भी मन में आता है.

दर असल इन दिनों फ़िल्मी संगीत से जुडी कई हस्तियां याद आई , उनके जन्म दिन या पुण्यतिथी पर.

तलत साहब याद आये, उनके इन्दौर में हुए कार्यक्रम की एंकरिंग की थी तो उनसे हुई अंतरंगता, राज कपूर साहब से निजी मुलाकातें, फ़िल्म बॊबी के लिये दिये गये गाने की अनौपचारिक ऒडिशन, राहुल देव बर्मन से होटल ताजमहल के क्रिस्टल हॊल में फ़िल्म अपना देश के प्रीमीयर पार्टी पर राजेश खन्ना के साथ की गयी उनकी मस्ती... ,बचपन की इन यादों ने दिल पर दस्तक दी, और परदेश में मन को दिले सुकून दे गयी ये यादें.


राहुल देव बर्मन तो बडे ही अफ़लातून संगीतकार थे.मेहमूद नें सही ही फ़रमाया था. वे उन दिनों ही इतना फ़्युचरिस्टिक संगीत का, धुनों का सृजन करते थे .वे हमेशा नई नई परकशन्स वाद्यों पर, स्वरों के विभिन्न आयामों पर यूं प्रयोग किया करते थे कि मेहमूद ने आज से चालीस साल पहले कहा था, कि शायद पंचम नाम का तारा बॊलीवूड के संगीत के आकाश में ज़रा जल्दी ही उग गया है. ज़रा दस बीस साल ठहर जाओ, वह धूमकेतु की तरह आकाश पे छा जायेगा.

उनका कहना सच ही हुआ, उन्ही दिनों में वह सुरों के आकाश पे छा गया था, अपनी निराली मगर मधुर धुनों से. मगर आज चालीस साल बाद ज़रा गौर करें , कि पिछले दस पंद्रह सालों में जितने भी रिमिक्स बनें है, उनमें अधिकाष पंचम दा की धुनों पर ही हैं.Is not it?

उनकी प्रयोगधर्मिता के तो हमें कायल होना ही पडेगा.गाने के अंदर ही स्केल चेंज का फ़ंडा पहली बार आपने ही दिया. अलग अलग तरह के ताल वाद्य और ठेके उन्होने गानों में उपयोग किये, जैसे कि मादल इत्यादि. अभी पिछली बार के दुबई टूर में मैंने एक साईड रिथम का अरेबीयन वाद्य खरीदा था, जो मारकस और रेसो रेसो का ही युगल स्वरूप था, जो अरेबियन संगीत के तालवाद्यों में से एक है. यू ट्युब पर राहुलदेव की एक पुरानी रिकोर्डिन्ग के विडियो में वह वाद्य प्रयोग किया गया दिखा!!

मगर काश वे आज जिंदा होते, तो क्या आज की पीढी के संगीतकारों से कहीं उन्नीस बैठते? शायद हां... क्योंकि वे शायद मेलोडी के साथ कंप्रोमाईज़ नहीं कर पाते,जो अधिकतर नये संगीतकार कर रहें हैं. यूं नही कि आज की पीढी के ये सृजनकार गुणी या टेलेंटेड नहीं है, मगर समय की कमी, नयी पीढी की अल्प स्मृति या रिदमिक ताल की तात्कालिक श्रवणीयता के बहाने जो भी परोसा जा रहा है, वह मेलोडी तो नही है.( अपवादों को छोडकर)

चलो , आपको उन्ही का एक गीत सुनवातें हैं, जो सन १९६५ के आसपास रचा गया था, मेहमूद के ही फ़िल्म भूत बंगला के लिये, जिसमें पंचम दा का भी कॊमिक रोल था.


गीत है आओ ट्विस्ट करें, क्या खुला मौसम....


इस गीत को मना दा नें क्या खूबसूरत गाया है. क्या एनर्जी और सुरों का पावरयोगा है ये गीत!!! आपको बता दूं, फ़िल्म में इस गानें से एकदम पहले अमीन सायनी साहब नें तनुजा का गीत पेश किया था , (लताजी की मधुर आवाज़ में) जो मेलोडी, माधुर्य से भरे भारतीय संगीत शैली का था, और उसके एकदम बाद यह पाश्चात्य शैली का ट्विस्ट सोंग, बिल्कुल विपरीत जोनर का... ये सिर्फ़ पंचम दा ही कर सकते थे.


ये गाना मन्ना दा को समर्पित कार्यक्रम दिल का हाल सुने दिल वाला .. से लिया गया है, और इस गाने को मैने भी फ़िल्म उपकार के धीर गंभीर गीत कसमें वाद प्यार वफ़ा के एकदम बाद गाया था, और कोशिश की कि उसमें में से कुछ उर्जा, कुछ पावर को मैं भी अपने गले में डाल सकूं. (मन्नादा से उदयपुर में शो के दौरान निजी मुलाकात में मैने पूछा था कि आप तो क्लासिकल आधारित गानों के लिये जाने जाते हैं,मगर फ़ास्ट गानों में आपको कौनसा गीत पसंद है? तो उन्होने कहा कि ये गीत उनके दिल के करीब है.कुछ लडके और लडकीयां जो वहां मौजूद थी वे दंग रह गये जब बाद में मन्नादा नें
उतनी ही जोश, तडक भडक और नफ़ासत के साथ यह फ़ास्ट गीत गाया.)मैं भी ज़रा ज़्यादा ही झूम लिया था इस गाने में.....!!!!!!

संजय भाई नें सही कहा है अपने एंकरींग में, इस गाने की पृष्ठभूमी बनाते हुए, कि आजकल हमें नये फ़्युज़न के नाम पर जो भी सुनाया जा रहा है, यही काम पंचम दा नें बरसों पहले किया और मधुरता को बरकरार रखते हुए!!! और चाहे कुछ भी हो जाये, पुराना संगीत कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा.आप उनके बात से सेहमत ज़रूर होंगे.

Sunday, May 23, 2010

अद्बुत , अद्भुत और अद्भुत ... मुकुल शिवपुत्र - कुमार जी गंधर्व के पुत्र.



अभी कल ही दोपहर को इंदौर पहूंचा. पिछले दिनों काम के सिलसिले में इजिप्ट में था, कैरो और सुएज़ में जहां की मानव निर्मित बडी नहर प्रसिद्ध है.

इन दो दिनों में बहुत कुछ हुआ.परसों रास्ते में अबु धाबी में दो तीन घंटे रुकना था, क्योंकि डायरेक्ट फ़्लाईट नहीं थी. तो सोचा अल्पनाजी से बात कर ली जाये. फोन नं था तो बात कर ली.

यूं तो अब तक उनके सुनहरे , हर फ़न में माहिर बहु आयामी व्यक्तित्व से परिचय हुआ था उनकी कविताओं से, उनके मधुर गायन से, उनके पहेलियों के व्यापक ग्यान से... और इस बार रूबरू बात करने का मौका मिला. अच्छा लगा.उन्होने भी पहली बार किसी भी ब्लोगर से बात की.(हमने लगभग चार पांच दोगाने (ड्युएट्स) एक साथ गाये हैं, पर नेट पर अलग अलग रिकोर्ड कर ये काम किया था.

एक बात लिखना चाहूंगा.. बहुत कम ही ऐसा होता है, हम सभी सिर्फ़ नेट पर मिले हैं, मगर लगता है, कि सभी के दिल मिल जाते हैं और वसुधैव कुटुम्बकम की तर्ज़ पर हम सभी एक परिवार के सदस्य हो जाते हैं. अल्पनाजी से सिर्फ़ मेल से खतो खिताबत हो जाती थी, मार उस रात को ११ बजे उनसे बात करने के बाद, एक बहन की तरह उन्होने मुझसे पूछ लिया कि खाना खाया क्या. मन भीग गया. धन्यवाद अल्पना जी.

इन्दौर आया तो पता चला कि महान गायक , सुरसाधक, लोकगीतों के प्रयोगधर्मी श्री कुमार जी गंधर्व की याद में उसी शाम को शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम होने वाला था, और गायक थे स्वयं कुमारजी के बडे सुपुत्र श्री मुकुल शिवपुत्र जो अपने दम पर खुद एक बेहद ही उम्दा ,ऊंचे पाये के कसे हुए गायक हैं.शायद आपमें से काफ़ी लोग उनके बारे में जानते भी होंगे.

मुकुल शिवपुत्र एक यायावरी, फ़कीरी , फ़क्कड तबियत के मालिक हैं, और पिछले कई सालों से गुमनामी की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं. कभी बीच बीच में खबर मिलती थी कि किसी मंदिर में कई दिनों से बिना खाये पिये बैठे हुए पाये गये.कई संगीत प्रेमियों नें उनकी मदत करने की भी कोशिश की, मगर उनका मिजाज़ नहीं बदला है.

इसलिये जब ये पता चला कि २० सालों बाद इन्दौर में उनका कार्यक्रम हो रहा है, तो मैं बडा रोमांचित हुआ कि वाकई आज सुरों की मेहफ़िल सजेगी.पुरानी यादें भी कुछ ताज़ा हो आयी जब कई सालों पहले उनसे कुमारजी के घर में, या मामासाह्ब मुज़ुमदार जी के घर मुलाकात हुआ करती थी.तब भी सनकी तो थे ही वे.

शाम को ताऊ का फ़ोन आया. कहने लगे क्या आप जाओगे कार्यक्रम में, क्योंकि आज ही रतजगा करके आये हो. मैं उन्हे बधाईयां देने की सोच ही र्हा था.फ़िर उन्होने कहा कि किसी वजह से वे जा नहीं पायेंगे, मगर क्या मैं उस कार्यक्रम की रिकोर्डिंग कर सकता हूं? मैंने कहा कि मैं भला ताऊ के आदेश का पालन नहीं करने की हिमाकत कर सकता हूं? फ़िर उन्होने साथ ही ये भी जोड दिया कि अल्पना जी को भी पता चला है और उन्होने भी अनुरोध किया है.



बस और क्या था. नेकी और पूछ पूछ ..अद्भुत , एक ही शब्द है. वहां पीछे बैठे एक श्रोता नें टिप्पणी की.. मुकुल साक्षात भगवान हैं, और क्या कहूं..यहां संगीत ईश्वर से एकाकार हो गया.

मुकुलजी को सर माथे पर बिठाया श्रोताओं ने जो इस बात से सिद्ध हुआ कि इंदौर में कल ४४ डिग्री का तापमान था, और सनक के लिये मशहूर मुकुलजी नें हॊल के पंखे बंद करवा दिये!पसीने में तर बतर प्रशंसकों ने इस सुर साधक को बडी तन्मयता और भावनाओं के सैलाब में डूब कर सुना!













तो सुनिये इतने बडे कार्यक्रम की एक बानगी स्वरूप छोटी क्लिपींग साथ में दे रहा हूं. डूब जाईये उस मस्ती में, उन रूहानी स्वरगंगा की मधुर लहरीयों में.



आप और मुकुल शिवपुत्र...






राग नट बिहाग में प्रस्तुत है मध्यलय तीन ताल में निबद्ध रचना झन झन झन झन पायल बाजे .. जो कुमारजी के घराने की विशेषता लिये हुए है..(और कोई गीत याद आया?)


Saturday, May 1, 2010

सुर देवता मन्ना दा को जन्मदिन पर आदरांजली...




कडी १


ये बात तो पक्की है, कि इतने दिनों गायब होने के बाद जब फ़िर से आपके संम्मुख आया हूं तो मुआफ़ी तो मांगना ज़रूरी है.

कितनी बार आपसे वादे किये, अपने आप से कसमें खायी,ब्लोग जगत के मेरे सुरीले परिवार से प्यार और वफ़ा का वास्ता भी दिया, मगर फ़िर वही ढाक के तीन पात.

चलिये मान लेते हैं कि -

कसमें वादें प्यार वफ़ा सब,बातें हैं बातों का क्या?
कोई किसी का नहीं ये झूटे , नाते हैं नातों का क्या?....

मगर क्या करें, दिल है के मानता नहीं, और आज मन्ना दा के जन्म दिन के पावन पर्व पर फ़िर हाज़िर हूं.

मन्ना दा तो हम सभी के , आपके, मेरे हर दिल अज़ीज़ गायक है ही, मेरे लिये तो वे मेरे सुर देवता भी हैं, आराध्य भी हैं.बचपन से जब समझ आयी तो अपने आपको रफ़ी साहब और मन्ना दा का मुरीद पाया. हीरो जो मन में बसे थे वे थे शम्मी कपूर और मेहमूद, तो ये मुहब्बत तो होनी ही थी.

मगर जब जब भी गानों के चयन की बात होती थी तो मन्ना दा के गीतों को गाने मे बडा चेलेंज लगता था.

रफ़ी साहब और मन्ना दा एक ही पाये के गुणी गायक हैं. स्वर में माधुर्य, गोलाई, मींड, लोच, हरकतें और सुरों पर गज़ब की पकड!! और स्वरों की रेंज तो बस लाजवाब, अतुलनीय.

रफ़ी साहब को तो अल्लाहताला नें हम से छीन ही लिया है, लेकिन उसी खुदा पाक का लाख लाख शुक्र है कि उसनें मन्ना दा को भरी पूरी ज़िंदगी बक्षी है, और आज ईश्वर की कृपा से वे ९०-९१ साल की उम्र में भी संगीत की सेवा कर रहे हैं.
(अभी सुना था कि उन्होनें पिछली शनिवार को लखनऊ में कार्यक्रम दिया था- सलाम !!)

मैं खुशनसीब हूं कि मालिक के फ़दल से मुझे हिंदुस्तान के कई नामचीन संगीतकार और गायक से मुलाकात का अवसर मिला. लेकिन मन्ना दा से रूबरू मिलने का एक छोटा मार मुख्तसर सा मौका मिला था करीब बीस बाईस साल पहले, जब वे इंदौर पधारे थे प्रतिष्ठित लता मंगेशकर पुरस्कार को प्राप्त करनें. मगर जल्दबाज़ी मे कुछ गुफ़्तगू नहीं हो पायी. पांच छः साल पहले उदयपुर में ज़रूर मिला था, कार्यक्रम के बेक स्टेज पर , मगर कार्यक्रम की उधेडबुन में ज़्यादह बात नहीं कर पाया. हां , दो साल पहले, १ मई को, मेरे किसी मित्र किशन का कलकत्ता से फोन आया, कि क्या मन्ना दा से बात करना चाहोगे?उसके पास उन्का फ़ोन नं आया था.

मैंने कहा नेकी और पूछ पूछ? तुरंतो मैने उसके दिये हुए फ़ोन नं पर बात की . संयोग से मन्ना दा ने स्वयं फोन उठाया.

मैं इतना बल्ले बल्ले हुआ जा रहा था, कि विशेष कुछ बातें हो नहीं पायी, बस दादा बोलते रहे, और मैं सुनता रहा, कि अब भी वो कैसे गा रहें है, और किस तरह से आज की फ़िल्मी दुनिया का संगीत उनको रास नहीं आता.

मैं शर्मा शर्मी में बोल नहीं पाया था कि मैं उनके गानों को गाता हूं, और वे समझे कि मैं कोई कार्यक्रम करने वाली संस्था से जुडा हूं, और उनका प्रोग्राम करवाना चाहता हूं.

फ़िर मुझे उनसे कहना पडा कि मैं उनका ज़बरदस्त फ़ॆन हूं, और उनके गानें गाता हूं, तो वो हंस पडे. कहने लगे कि तुम ज़रूर रफ़ी साहब के गाने गाते रहे होगे, और साथ साथ में मेरे भी गाने भी गाते होगे.उनका कहना था जो वाकई में सही भी है, कि हम अमूमन देखते हैं, कि कोई रफ़ी साह्ब को गा रहा है, कोई मुकेशजी, हेमंत दा, तलत मेहमूद जी को. मगर Exclusively मन्ना दा को गाने वाला नहीं मिला.

मैने कहा कि वैसे तो मैं सभी गायकों को गाता हूं, और amateur या शौकिया गायक हूं तो ज़रा नाराज़ ही हो गये. फ़िर भी उनसे कहा कि पिछले दिनों मैने उनके गानों पर आधारित एक कार्यक्रम दिया था (Exclusive Manna Dey only), तो बोले, ऐसा तो कभी सुना नहीं कि सिर्फ़ उनके थीम पर कोई कार्यक्रम हुआ हो .

तो मैंने सोचा कि अपने उस कार्यक्रम की सी डी उनको भिजवा दूं, तो उनसे पता लिया, और विनम्र प्रार्थना की कि समय मिला तो वे सुनें. तो वे बडे बच्चे जैसे भाव से बोले, कि भाई मेरे पास प्लेयर नहीं है.(शायद सही ही नही होगा कलकत्ता के घर में , क्योंकि वे तो ज़्यादहतर बंगलोर में ही रहते हैं, या फ़िर मुझसे बचने के लिये कहा हो!)

बरह हाल मैने तो सीडी अपने मित्र किशन के साथ भेज दी थी . अब सुना या नहीं ये उन्हे ही या फ़िर भगवान को ही पता.

मित्रों , उस कार्यक्रम का टाईटल था दिल का हाल सुने दिलवाला और उसमें से कुछ गानें , मैने यहां आपको सुनवाये थे और दिखवाये भी थे---




तू प्यार का सागर है,

सुर ना सजे,

तेरे नैना तलाश करें,

किसने चिलमन से मारा,

तू है मेरा प्रेम देवता..
.




तो आज मुझे इज़ाज़त दें कि आज उसी कार्यक्रम में से आपको दो गाने और सुनवाऊं, जिससे मन्ना दा के विलक्षण रेंज और विपरीत मूडस को बखूबी निभाने की अद्भुत प्रतिभा परिलक्षित होगी. साथ में आप लुत्फ़ उठायें कार्यक्रम के सूत्रधार संजय भाई (पटेल) के लाजवाब और श्रेष्ठ निवेदन का, जिससे एक perfect ambience बन जाता है, और श्रोता उस सुर के समंदर में डूबता उतरता जाता है.इसिलिए, गाने से पहले उनका निवेदन भी आपके समक्ष है.

कसमें वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या-

नैराश्य और वैराग्य की पृष्टभूमि में गाया यह गीत, एक ठहरे हुए पानी से भरे पोखर के किनारे हमें ले जाता है, और हम जीवन की इस सच्चाई से रूबरू होते हैं.




साथ में और सुनिये एक दोगाना, जिसमें मेरा साथ प्रियाणी वाणी नें दिया है, जो दो साल पहले की Star Voice Of India की finalist थी.

प्रस्तुत कार्यक्रम में मैने मन्ना दा के विभिन्न मूड्स और पहलू के गीत सुनाये, जिसमें रोमांटिक,हास्य,क्लासिकल और दर्द भरे गीत तो थे ही, मगर ये गीत भी लिया, कई सुनकार श्रोताओं के विरोध के बावजूद, क्योंकि, उदयपुर में मन्ना दा नें खुद कहा था कि मैं हर तरह के गानें गा सकता हूं और ये गीत उन्हे बहुत ही पसंद है!

ये दो गाना है ---

ओ मेरी मैना, तू मान ले मेरा कहना,

जिसे महमूद और मुमताज़ पर फ़िल्माया गया था.आप स्वयम देखें, कि ये वही मन्ना दा का गीत है, जिन्होने कसमें वादे प्यार वफ़ा सब और पूछो ना कैसे मैने जैसे लाजवाब गीत गाये.और इस डांस गीत में वह रवानी, थ्रो, और मस्ती भरा आलम किस खूबी से आया है मन्ना दा नें.

वैसे इस सब में मेरा तो कोई कमाल नहीं है, कमाल है मन्ना दा के लिये मेरी भक्ति का है.

Tuesday, March 16, 2010

साहिर की अंतरंग की पीडा़ का क्रंदन- जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है..




साहिर लुधियानवी


कडी़ २

पिछली पोस्ट पर आपकी टिप्पणियों के लिये शुक्रिया अदा करता हूं, क्योंकि वह पोस्ट काफ़ी समय बाद लिखी गयी थी,और लगा था कि आप मुझे भूल गये होंगे. (ऐसे ये हक है आपको, मेरे बात और है, मैने तो मुहब्बत की है).

मेरे मित्र OLD MONK नें फ़रमाया कि उन्हे व्यक्तिगत कारणों से आज क्यूं हमसे पर्दा है कव्वाली ज़्यादा माफ़िक लगी औरतों के लिये. तो उनसे गुज़ारिश है कि वे समय निकालकर अपने विचारों से इस बात की पुष्टि ज़रूर करेंगे ताकि उस अलग से एक पोस्ट पर डाला जा सके.वैसे ये बेहतरीन कव्वाली दिलीप के दिल के भी करीब है.

आज हम एक दूसरे गीत के बारे में बात करना चाहेंगे जिसका ज़िक्र पिछली पोस्ट में भी किया था---

जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है...





डॊ, अनुराग जी नें अपनी टिप्पणी में सही लिखा है कि यह रचना भारत की उस समय की वर्तमान परिस्थिति को बखूबी परिलक्षित करती थी ,और पं नेहरू की भी आंख की किरकिरी थी, जिसके बारे में साहिर नें अपनी तीखी कलम से सही खाका खींचा था.

वैसे फ़िल्म प्यासा में आप हम नें देखा, सुना और उसके बेहतर चित्रीकरण , केमरा संचालन , प्रकाश संयोजन का कमाल देखा (दादा साहेब फ़ालके पुरस्कार २००९ के विजेता फ़ोटोग्राफ़र श्री मूर्ती की कलाकारी के बदौलत). लेकिन इमानदारी से कहूं तो गुरुदत्त के कौशलपूर्ण निर्देशन और भावपूर्ण अभिनय की साथ मिलने से बेहतर हुए एक क्लासिक फ़िल्म की इस क्लासिक रचना का असली श्रेय साहिर को दिया जाये या गुरुदात को ये मैं तय नहीं कर पाऊंगा. ये आप ही तय किजिये.

अधिकतर ,प्यासा के आसपास फ़िल्मी दुनिया में यह चलन शुरु हो चुका था कि पहले एक अच्छी, रसीली, कर्णप्रिय तर्ज़ बना ली जाती थी और उसके अनुरूप गीतकार से फ़िल्म की सिच्युएशन के हिसाब से गीत लिखवा लिया जाता था.एस डी बर्मन साहब को कमोबेश इसका श्रेय दिया जा सकता है, और प्यासा में भी कुछ गीतों के संदर्भ में यही हुआ भी था.

मगर आपको ये जानकार कौतुहूल होगा और आश्चर्य कि प्यासा फ़िल्म का जब इंतेखा़ब किया गया था तो नायक विजय एक चित्रकार था, शायर नहीं.फ़िल्म की नायिका (माला सिन्हा) एक अमीरज़ादी थी जो चित्रकार के पेंटिंग्स की प्रदर्शनी करा कर उसे इस्तेमाल करती थी , सोसाईटी में अपने वजूद और वका़र का लोहा मनवाने के लिये.गुलाबो का तो कहीं पता ही नहीं था!!

फ़िल्म के लेखक अब्रार अल्वी जिनका अभी अभी इंतेकाल हुआ है, इस फ़िल्म के लेखक थे, और गुरुदत्त के फ़िल्म कंपनी में मुलाजिम भी. मगर जब गुरुदत्तजी नें साहिर नें लिखी हुई गज़लों की किताब परछाईयां पढी तो वे इस कदर दिवाने हुए उसमें लिखे गीतों को अपनी फ़िल्म प्यासा में शामिल करने के लिये बेचैन हो गये. यहां तक कि उन्होने नायक विजय के पात्र ही चित्रकार से शायर में बदल डाला!!






इस गज़ल संग्रह में से गीतों को लेने का मतलब था सचिन दा के लिये एक बडी चुनौती, क्योंकि भले ही मोटे तौर पर शब्दों को मीटर में लिखा गया होगा, मगर भावाभिव्यक्ति और नज़रिये को सही और पैने तौर पर रखने के लिये कहीं कहीं शायरी को तवज्जो दी गयी तरन्नुम की जगह.

वैसे सर जो तेरा चकराये/हो लाख मुसीबत रस्ते पर/हम आपकी आंखों में.. आदि गीत धुन बनवाने के बाद लिखे गये.मगर बाकी गीतों का इतिहास अलग है.

इसलिये आप देखिये एक गाना था - तंग आ चुके हैं कशमकशे ज़िंदगी से हम - जिसे मुशायरे में पढने की वजह से सिर्फ़ गुनगुना कर गवाया गया रफ़ी साहब से.( बाद में यही गीत आशा भोंसले नें फ़िल्म लाईट हाऊस के लिये एन दत्ता के संगीत निर्देशन में गाया था). आप सुनियेगा इस गीत को तो आप वाकई रफ़ी साहब के काय हो जायेंगे, कि बिना किसी सुर या ताल के कितना मधुर और मेलोडी की चासनी में दर्द को डुबा कर गाया है रफ़ी साहब नें.

दूसरा गीत है जाने वो कैसे लोग थे जिनसे... जो परछाईयां में से ही लिया गया, जिसके धुन बाद में बनाई गयी.गुरुदत्त और साहिर अड गये थे इस गाने को रफ़ी जी से गवांने के लिये , मगर मानना पडे़गा सचिन दा की संगीत की सोच और पकड़ की, कि उन्होने इस गीत को हेमंत दा से ही गवाया. यही बात बाद में गुरुदत्त/साहिर/सचिनदा के बीच की कशमकश और खाई की सबब बनीं(कडी ४ या ५ में )

और सबसे महत्व पूर्ण गीत था जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है?

क्या आप मानेंगे कि इस गीत की लय, शब्दों का मेनेजमेंट, एकदम अलग नहीं है? पायल की छन छन पर घुंगरू की आवाज़, तबले की धन धन पर तबले की आवाज़,खांसी की ठन ठन पर खांसी की और सिक्कों की झंकार पर साऊंड बाईटस के द्वारा साहिर की मनचाही नाटकीयता रचायी गयी.

अल्पना जी नें भी अपनी टिप्पणी में सही लिखा है कि साहिर की संवेदनशीलता ,साफ़गोई और तीखे चुभन लिये शब्दों के पीछे उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभव ही ज़िम्मेदार थे.

ज़रा ध्यान दें...

ये फ़ूलों के गजरे , ये पींको के छीटें,
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख़ फ़िकरे,
ये ढ़लके बदन और ये बीमार चेहरे
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है? कहां है, कहां है , कहां है?

यकीन मानिये, जब साहिर नें ये बोल लिखे थे तो उसके सामने कोई सिच्युएशन नहीं थी. सिर्फ़ एक कविमन, या शायर के ज़ज़बातों की , पेथोस की अभिव्यक्ति थी या मन की पीडा का क्रंदन था.गुरुदत्त भी तो थे एक मासूम, ज़ज़बाती और संवेदनशील मन के मालिक.इसी वजह से ये क्रंदन सीधे उनके दिल के अंदर उतर गया.उन्हे ये लगने लगा कि साहिर के अंतरंग की इस पीडा़, इस झटपटाहट को चित्र रूप देकर रीयल लाईफ़ से रील लाईफ़ में लाकर उसे डिफ़ाईन किया जाये , सिनेमा के दर्शकों के लिये परिभाषित किया जाये.शायद इसी तरह से , इस तरह की रचना को प्यासा में डाल कर इस फ़िल्म को काव्यात्मक ऊंचाई पर ले जाया जा सके.


इसलिये उन्होंने अब्रार अल्वी को समन किया और कहा कि कुछ भी हो जाये, कुछ ऐसी सिच्युएशन पैदा करो ताकि इस फ़िल्म में रचना प्रभावी तरीके से फ़िल्माई जा सके.

तो देखिये साहिर द्वारा लिखे गये इन अमर अश’आर के लिये अब्रार अल्वी नें कैसी सिच्युएशन लिखी और महान गुरुदत्त नें अपनी कलात्मक और क्रियेटिव कौशल से उसके साथ कैसा न्याय किया.और सचिनदा की धुन पर रफ़ी साहब की दर्द में सोखी हुई पुरनूर आवाज़! कंबख्त , क्या कोंबिनेशन है जनाब!



क्या इससे बेहतर कोई और सिच्युएशन या पिक्चराएज़ेशन का इंतेखाब किया जा सकता है?

(अगली कडी में कैसे गुरुदत्त को इस गाने के लिये सिच्युएशन मिली .... कडी ३ में , बस इंतेज़ार करें, क्योंकि बडी पोस्ट से परहेज कर रहा हूं)

Wednesday, March 10, 2010

औरत नें जनम दिया मर्दों को.. साहिर की चुभती हुई रचना..


साहिर

कडी १


दो दिनों पहले ८ मार्च को अज़ीम शायर साहिर लुध्यानवी का जन्म दिन था. वह भी विश्व महिला दिवस के दिन!! क्या ये एक महज़ संयोग माना जाये या इसके पीछे विधाता का कोई डिज़ाईन है, कोई बडा़ मंतव्य है?

शायद हां. आप साहिर के अश’आर सुनें ,पढे़, तो उसमें आपको नारी के लिये एक जुनून की हद के पार जाती हुई संवेदनायें मिलेंगी. अहसासात के इस गहराते मंज़र की बानगी आपको उनके कई फ़िल्मी गीतों में मिलेगी, जिसमें कमोबेश किसी औरत की दिल की हकी़कतबयानी की गयी हो.


औरत नें जनम दिया मर्दों को एक ऐसा ही गीत है.




ज़िंदगी के इस नंगी सच्चाई को कितनी पीडा़ और ज़ल्लत के साथ उतारा है शब्दों में, और साथ में कमज़र्फ़ मर्दों की मानसिकता SICKNESS की सीमा तक बयां कर जाती है.साहिर वैसे तो मुला’इम और गुलाबी रूमानी गज़लें और गीत भी लिखतें है, मगर इस गीत में उन्होने जो दिल खराश और खारदार लफ़्ज़ों को पिरोया है वह किसी भी हाजी दिलसोज़ इंसां को पिघलाने का माद्दा रखतें हैं.साफ़गोई और तीखे चुभन लिये इन कठोर शब्दों से आप में से किसी के जिगर को अगर चाक नहीं किया हो तो मुलाहिज़ा फ़रमायें...

साहिर नें सब कुछ लिख दिया है फ़िल्म साधना के इस गीत में, मैं बहुत ही अदना मुलाज़िम हूं आप जैसे इल्मदानों और कदरदानों का. इसे विस्तार करना मेरे बस की बात नहीं....हां , एन दत्ता नें भी अपने नफ़ीज़ तर्ज़ से इस गाने के साथ इंसाफ़ किया है.(याद है इसी फ़िल्म की कव्वाली - आज क्यूं हम से पर्दा है?)





यूं नहीं कि साहिर के इस अजा’ईबखाने में इस तरह के और असलाह हथियार नहीं है.

याद किजिये फ़िल्म प्यासा का वह कालजयी गीत ...

ये कूचे , ये नीलाम घर दिलकशीं के,
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के,
कहां है कहां है मुहाफ़िज़ खुदी के,
जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है?


बडी पोस्ट नहीं चाहता इसलिये अगले तीन दिनों में वादा कि इस बार इस गीत को लिखने की साहिर की मानसिकता,गुरुदत्त का जुनून और ,प्यासा फ़िल्म में चित्रिकरण की पार्श्वभूमि, सभी विस्तार से लिखूंगा....

Monday, January 18, 2010

है दुनिया उसीकी,ज़माना उसीका... ओ पी नय्यर और रफ़ी का दर्द में डूबा हुआ एक कालजयी गीत



आज लगभग एक महिना होने आया, आपसे मुखातिब नहीं हो पाया.

पिताजी की तबियत के कारण, काम में थोडा पिछड गया था. मूड भी नहीं बन पा रहा था. गोया कोई बडा़ उपन्यास लिखना था,जो मूड बना रहा था.

इन दिनों, रफ़ी साहब का जन्म दिन चला गया २४ दिसंबर को. मैं संयोग से एक दिन पहले मुंबई में था, तो किसी से मिलने शाम को बांद्रा में था, तो पता चला, रफ़ी साहब का पुराना घर वहीं करीब था. बस, दिल नें चाहा और मैं निकल पडा.

मगर वहां चूंकि रेडियो मिर्ची FM की टीम आयी हुई थी, अंदर जाना संभव नहीं हो पाया, क्योंकि वह कोई किसी फ़िल्म का प्रीमीयर नहीं था जो भागम भाग में चला जाता. बस सोचा बाद में सुकून से दिली सुकूं पाने के लिये फ़िर आऊंगा. बस नीचे रखी हुई उनकी फ़ियेट ज़रूर देखी, जिसमें चाबी लगी हुई थी, और वही छल्ला जो रफ़ी साहब जेब में रखते थे, जब भी वे शौक से खुद गाडी चलाते थे. ऊपर जाना फ़िर कभी ....

फ़िर महेंद्र कपूर जी का भी जन्म दिन चला गया, ९ जनवरी को. उनके साथ बिताये कुछ लमहे याद किये और उनके गाये हुए गीत सुने और गुनगुनाये.

अब परसों स्व. ओ पी नय्यर साहब का जन्म दिन था. दो साल पहले इसी दिन उनसे मिलने जा पहुंचा था उनसे मिलने, मगर मिल नहीं पाया क्योंकि वे कहीं विरार गये थे आदिवासीयों में डाक्टरी करने. कुछ दिन बाद उनके निधन की खबर आयी, तो दिल को धक्का पहुंचा कि दुर्भाग्य रहा था मेरा.

खैर, रफ़ी जी और नय्यर साहब की जोडी तो सबसे ज़्यादह मकबूल हुई. करीब १५० से अधिक गानें उन्होने रफ़ी जी से गवाये. फ़िर महेंद्र कपूर जी से. किशोरदा, मुकेशजी ,हेमंतदा,मन्ना दा तो कम ही गा पाये उनकी बनाई तर्ज़ों पर. और तो और सरदार मलिक की तरह नय्यर साहब नें भी राज कपूर के लियी रफ़ी साहब को गवाया.


रफ़ी साहब को हमेशा यही मलाल रहा कि वे हमेशा हर हीरो या नायक के चरित्र, मेनरिझ्म और अदायगी की तरह से अपनी आवाज़ को बदल लेते थे, जबकि उन्हे लता जी की यह बात बडी़ ही अच्छी लगती थी लता जी नें कभी भी अपनी आवाज़ को नहीं बदला. लताजी के अनबन के बाद जब उनकी फ़िर से लता जी के साथ दिल जमाई हुई, तो उन्होने नय्यर साहब को यह बात बताई थी. नय्यर साहब बहुत हंसे थे, और उन्होने कहा था कि आप जिसे अपनी कमज़ोरी मान रहे हैं , वह तो आपकी खा़सियत है, जो दूसरे गायक कलाकारों को संभव नहीं है.

नय्यर साहब नें कई गानों की धुन बनाईं, ठसक के साथ पंजाबी ठेके पर , ढोलक की दुडकी चाल पर .चेलो, क्लेरिनेट और सॆक्सोफ़ोन जैसे पाश्चात्य वाद्यों से लेकर सारंगी , सितार ,और बांसुरी जैसे खालिस देसी वाद्यों का भरपूर उपयोग किया. मस्त ,रंगीन रोमांटिक गानों पर महारत रखनें वाले नय्यर साहब कभी कभी दर्द भरे गानों का भी सृजन बखूबी किया करते थे .

मेरी पसंद के दो महानतम दर्द भरे गानों की फ़ेहरिस्त में आपके दो गानें है:

चैन से हमको कभी .. और

है दुनिया उसीकी, ज़माना उसीका......



जी हां , फ़िल्म कश्मीर की कली का यह गीत दर्द के एहसासात की इंतेहां बयान करता है. रफ़ी साहब के भीगे हुए स्वरों में एस एच बिहारी नें लिखे हुए भावपूर्ण अश’आर, नय्यर साहब की पेथोस से भरी तर्ज़ में जब हमारे कानों में पडते हैं ,तो ज़माने भर के मुहब्बत करने वाले प्रेमीयों के टूटे दिलों के साथ आपके संवेदनशील दिल के तार अपने आप जुड जाते हैं, और आप उसी भाव में दर्द के उस सागर में डूबने उतरने लगते हैं. साथ में प्रस्तुत सॆक्सोफ़ोन की प्रील्युड और इंटरल्युड में सोलो रेंडरिंग आपके कलेजे को चीर डालती है, और भावनाओं से लहु लुहान हो कर शम्मी कपूर, रफ़ी जी, नयार साहब और आप एकजीव हो जाते हैं
.

कौन नहीं चाहेगा इस तडप को , मेहबूब की बेवफ़ाई को जीना, भोगना?

चलिये, आपको यह गीत सुनवा देतें है. इसके विडियो को मिक्सिंग के लिये उपलब्ध कराने के लिये अल्पना जी का धन्यवाद. आप भी यह प्रयास देखें , सुनें, और पसंद आये तो दाद दिजीये. जिन्हे संगीत और रिकोर्डिंग में दिलचस्पी हो, उन्हे बता देना उचित होगा, कि यह असंभव ही है, कि किसी भी गाने का कराओके उस्के ओरिजिनल साऊंडट्रॆक से हूबहू मॆच करे. प्रस्तुत गाने की विडियो क्लिपिंग में मूल गाने को कराओके ट्रेक के साथ पहले सोफ़्ट्वेयर की मदत से कोशिश करके मिलाया, स्स्वर, ताल और लिप्स मूव्हमेंट में, फ़िर उसपर गीत रिकोर्ड किया और मिक्स किया. ऐसे प्रयोग करने सें जो दिली सुकून मिलता है, वह आप जैसे कलाकार या कवियों को पता ही है.

(आज फ़िल्मी जगत के प्रथम सिंगिंग सुपरस्टार के एल सहगल साहब की भी पुण्यतिथी है. रात को उनके गानों की समाधि में बैठूंगा)





ओडियो प्लेयर भी लगाया है, जिन्हे विडियो स्ट्रीमिंग में परेशानी आती है, उनके लिये. बाकि विडियो के लिये प्ले का बटन दबाने के बाद pause करने से थोडे देर बाद बिना रुके देख सुन सकने में आसानी होगी.
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